Saturday, 30 January 2016

मैं ख़ामख़ा था।

वो बेहद खूबसूरत थी और मैं बहोत मासूम। उसकी खूबसूरती उसे सबसे जोड़े रखती तो मेरी मासूमियत पे वो फिदा रहती। उसके नखड़े बहोत हुआ करते थे और उन नखड़ों का जिक्र किसी शाम के रोमांटिक नोबल का एक हिस्सा। वो जल्दी किसी से बातें नहीं करती मगर घंटों खुद को किसी के ख्यालों से बांधें रखती। पहलेपहल तो लगा जैसे वो कोई तिलिस्म हो और मैं कोई बेपरवाह राही, जो बरसों के प्यास को लिये उसके करीब तक जा पहुंचा हूँ। उसकी खूबसूरती उसकी आँखों में कैद थी जैसे, वो अगर खामोशी से भी दो पल देख लें तो जैसे समुंदर भर की प्यास गायब हो जाये। अकसर उसे मुझसे काम हुआ करता था कभी किसी वजह से तो कभी किसी वजह से। मुझे भी ये मिलने-मिलाने का दौर बहोत हसीन लगने लगा था। बात मुलाकात से आगे बढ़ी तो इश्क़ ने दस्तक दे दी, अब वो सामने ना भी होती तो भी वो मुझमें कहीं-न-कहीं घुलती रहतीं और मैं उसके कैद में एक और मासूमियत के चादर के साथ मनमौजी होकर एक हसीन से सफर पर निकल जाया करता। मुझे ज्यादा बोलना अच्छा नहीं लगता था मगर जब भी कभी वो बोलती उसे घंटों खामोशी से सुन सकता था। वो दरअसल मेरे मासूमियत पर एक लिहाफ सी थी, अगर वो साथ ना होती तो मैं भी कुछ और होता और मेरे बगैर भी वो वो ही होती।

नितेश वर्मा और वो।

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