Saturday, 30 January 2016

जलील होना पड़ता है।

जिन्दगी मूसलसल गुजरती रहती है, उसकी अपनी ही एक सिद्धमान गति है.. जो ना कभी किसी बुरे वक़्त में जल्दी गुजरती है और ना ही किसी अच्छे वक़्त में ठहरती हैं। जिन्दगी हर रोज़ कुछ ना कुछ सीखाती रहतीं है, बताती रहती है.. और हर दफ़े कोई ना कोई इम्तिहान लेती रहती है। और आदतन या नसीबयित कुछ भी कह लीजिए मैं हर दफे फेल हो जाता हूँ। जैसे फेल होना ऐसा हो गया है- जैसे साँसें लेना, पानी पीना, भोजन करना.. अगर जब तक फेल ना हो जाऊँ तब तक कुछ अच्छा फील नहीं होता।
जलील होना तो जैसे बचपन से ही जुड़ा रहा। बचपन में.. मैं दुबला-पतला हुआ करता था बिलकुल अभी की तरह.. बस उस वक्त इतनी सोच-समझ नहीं हुआ करती थी। उस वक्त बड़ी जोशों-खरोसों के साथ कुश्ती प्रतियोगिता होती थी, मेरे दादा भी मुझको प्रतियोगिता जीतते हुए देखना चाहते थे। सिलसिला जारी हुआ.. मेरी ट्रेनिंग शुरू हुई.. पहलवानों को बुलाया गया, फिर मुझे युद्ध-कौशल सिखलाया गया और प्रतियोगिता में ज़बरन जुगाड लगाकर सम्मिलित कराया.. और फिर जाकर मैं फेल हो गया। उस वक़्त दादा ने बहोत ज़लील किया, ह्रदय जैसे द्रवित हो उठा। मगर बच्चा था, क्या करता मन मसोसकर रह गया। परिवार के लोगों ने तय किया चलो पहलवानी नहीं कर पाया तो क्या, घर का वारिस है - खूब पढ़ाई करेगा और अव्वल दर्जें का आफिसर बनेगा। फिर क्या था, एक अच्छे प्रतिष्ठित स्कूल में नामांकन कराया गया.. घर पर ट्यूशन के लिये उसी स्कूल के मास्टर को पढ़ाने के लिये बुलवाया गया, कुल मिलाकर बहुत खर्चे किये गए। मास्टर साहब की ज्यादा ही खातिरदारी की गई जब तक मैंने बोर्ड का इक्ज़ाम नहीं दिया था.. बोर्ड के इक्ज़ाम से पहले तक मैं स्कूल का हीरो था फिर बोर्ड के इक्ज़ाम में आकर फेल कर गया वो क्या है ना उस वक़्त मास्टर साहब ने सेट किये हुए क्योंश्चन 10 दफे सोल्व नहीं करवाये थे। अब फिर इस दफे फिर से जलील होना पड़ा। बात धीरे-धीरे लोगों तक पहुंचती उससे पहले जैसे-तैसे कर कराकर कम्पार्ट का इक्ज़ाम दिलवाकर बाहर इंजीनियरिंग के लिए भेज दिया गया। खौफ अब सीने में बना रहने लगा.. पढ़ाई-लिखाई होने लगी.. परिवार वालों को अब यकीन बस लगभग होने ही लगा था कि लड़का सुधर गया है, कि तब तक जाकर इश्क़ ने मुझे मुस्कुराते हुए गले लगा लिया। मुहब्बत हुआ तो चर्चें भी होने लगी और बात उड़ते-उड़ते मेरे घर के छत से भी एक दिन गुजर गयीं। बड़ी लानत हुई थी खुद पर उस दिन.. एक बार और जिल्लत उठानी पड़ेगी। अगले ही दिन घर बुलाया गया, मेरी हाजिरी हुई.. लास्ट इयर और घरवालों का तकाजा, लड़की ज्यादा अहमियत रखती है तो परिवार छोड़ दो और अगर परिवार तो वो लड़की छोड़ दो। बहुत मुश्किल से गुजर रहा था, दिल को समझा-बुझा के, रो-गा के परिवार के साइड में फैसला सुना दिया। फिर इश्क़ के इम्तिहान में फैल हो गया और फिर जलील होने उस लड़की के पास चला गया। इंजीनियरिंग पास करी तब-तक उस लड़की के प्यार में पागल हो-होकर शायरीयां करने लगा, कविता-कहानी लिखने लगा। लोगों को पसंद आने लगा तो फिर रोज़ लिखने लगा। कुछ दिनों बाद घर पहुँचा कुछ हित-रिश्तेदार भी घर पहुँचें थे, नौकरीपेशा नहीं होने पर जलील होना पड़ा, फिर एक दफा और फेल। अब कुछ लोग कहने लगे कि बेटा हाथ से निकल गया है, नाम डूबा दिया है इसने। बस आपको तो अब यहीं दिन देखना रह गया था कि बाप अफ़सर और बेटा झोला लटकाए दिन-भर प्रकाशकों के पास दौड़ रहे है। एक बार फिर फेल हुआ था, लेकिन इस बार जलील कोई और हुआ था। मेरी कामयाबी, मेरी नाकामयाबी, मेरे करतूत, मेरी आदतें कैसे मेरे अपनों को भी जलील और गौरवान्वित बनाता है, उस दिन जाकर आभास हुआ था।
आदतें बदलीं तो जैसे दिन भी बदलने लगे, कोशिश की तो नौकरीपेशा भी हो गया, जिम्मेदार होता हुआ देखकर परिवार के लोगों ने शादी भी करा दी। अब फेल होने से डर लगने लगा लेकिन किसी को एक दफा भी मैंने जाहिर नहीं किया की मैं हर रोज़ फेल होता हूँ और हर रोज जलील होता हूँ अपनी नजरों में। अब लोग मेरी हर रोज़ की कामयाबी पर जश्न मनाते है तो मैं भी उनके जश्न में जीभर के झूम लेता हूँ। खुद का जीना भी क्या जीना होता हैं, मैं तो दूसरों के खुशियों के लिये जीता हूँ। मेरी आँखों में कभी झांककर देखोगे तो तुम्हें एक समुंदर मिलेगा और उन लहरों के बीच अधमरे से पड़े हुए कुछ बेहद ही खूबसूरत नावें। अब ज्यादा लिखूंगा तो फिर मतलबी हो जाऊंगा और फिर फेल.. और फिर इस दफे आपकी नजरों में जलील।

नितेश वर्मा 

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