बात तब की है जब हम करीबन 14 या 15 के रहे होंगे। उस समय मैं काफ़ी हद तक मासूम और युवा दिखने लगा था और वो भी मुझसे कुछ उम्र में बड़ी दिखने लगी थी। तब उनके पिताजी ने एक दिन एतराज़ जता दिया की वो मुझसे मिलने ना आया करें और ना ही किसी हमउम्र के बच्चों के साथ बाहर निकलकर खेला करें। बात तो पहले कम ही समझ में आयी थी, फिर धीरे-धीरे लगा जैसे बात सही ही है। उस वक़्त ना तो ज्यादा पढाई-लिखाई होती और ना ही बढ़ती उम्र में लड़कियों को घर से बाहर घूमने की आजादी और जो लड़कियाँ बेबाक हो जाती उन्हें या तो समाज से निकाला कर दिया जाता या फिर उनका जनाजा उठा दिया जाता। शादी से पहले या शौहर के बदले किसी और से इश्क़ करना लगभग एक गुनाह के बराबर था और कभी-कभी ये गुनाह उनके अर्थी पर जाकर खत्म होती थी। ज़ाहिल जमाना हुआ करता था, फिर भी लोग इश्क़ किया करते थे। इश्क़ करने के लिये ताक़त की नहीं हिम्मत की जरूरत होती थी। जमाना एक तरफ खून की होली खेलता तो दूसरी तरफ़ दो जिस्म बरसात के इंतजार में टकटकी लगाए काली घटाओं को देखा करतीं। ख़ैर, मुतालबा एकबेएक बंद नहीं हुआ.. कई थप्पड़ रसीदें गए, गुंडागर्दी की गई, सरेआम जिल्लत उठानी पड़ी, बात तब जाकर खत्म हुई जब जान बंदूक की एक गोली पर जाकर टिक गयीं। समझौता हुआ, माना-मनाया गया। अक्ल के पंडों को दूर-दूर से मामला हल करने को बुलाया गया। कुछ वक़्त लगे, फिर यह तय हुआ गर्म खून है, मुतालबा तो ऐसे बंद नहीं होगा.. लड़की की शादी करा दी जाए.. दूर रहेगा.. कुछ दिनों में संभल जाएगा.. और वो भी बच्चों के हो जाने के बाद अपनी जिंदगी में मसरूफ़ हो जाएगी.. प्यार भी धीरे-धीरे जाकर दोनों भूला देंगे। तो बात चलकर यह तय हुआ कि मुहब्बत में अब मुझे रिहाई देनी होगी। लोगों का कहना था मुहब्बत रिहाई भी माँगती है मगर एक आशिक़ से माँगती है ऐसी दलीलें पहली दफ़ा सुन रहा था या उसे करने की कोशिश में लगा था। उम्र समय के साथ ढलती गई वो अब 20 की होने लगी थी और मैं अब भी उसकी गली से हर सुबह-शाम गुजर जाया करता, किसे पता है जो इश्क़ में रिहाई देता है वो ताउम्र खुद तकलीफ़ में जीता रहता है और सब सोचते है आखिर उसका गया ही क्या है।
आखिर बहुत सी कोशिशों के बाद उन लोगों की भी दुआ कुबूल कर ली गयीं। उसका निकाह पढाया जा चुका है, रूख़सती भी अगले इतवार को तय किया गया है। मुहब्बत हार गयी हालात और परिवार के आगे, एक बार फिर मुहब्बत ने एक हाथ को छोड़कर दूसरा हाथ थाम लिया। हांलाकि ये मुझे पता है की वो मुझे छोड़कर गयीं है.. मगर मेरी मुहब्बत उसकी आँखों में आज भी उतनी ही जवाँ है जितनी 6 बरस पहले हुआ करता थीं.. और शायद अगले सालों दर साल ये ऐसा ही रहेगा। हमने मुतालबा बंद किया है मुहब्बत करना नहीं, एक दूसरे के सीने में हम धड़कते रहेंगे चाहे हमारी जिस्म किसी को भी सौंप दी जाए। यही आखिरी कसम थी हमारी जो हमने साथ में एक-दूसरे के हाथों को थाम के किये थे। अब इन बातों को गुजरें लगभग 23 साल हो गए है, आज वो मिली भी थी, मगर शायद पहचान नहीं पायी, आँखों पर अब चश्मा लग गया है.. दिखता नहीं.. या मुझे देखना नहीं चाहती। या किसी की कहीं बात आज सच साबित हो रही हो, समय की दूरी ने मुहब्बत को भी मिटा दिया, समझ नहीं आता मगर वो कहते हैं ना, सच जल्दी समझ भी नहीं आता। ख़ैर बाक़ी सब ठीक है, अभी जिंदा भी हूँ और धड़कने भी बखूबी धड़क रही है। शायद कुछ है जो बाक़ी रह गया हम दोनों के दरम्यान, शायद।
नितेश वर्मा
आखिर बहुत सी कोशिशों के बाद उन लोगों की भी दुआ कुबूल कर ली गयीं। उसका निकाह पढाया जा चुका है, रूख़सती भी अगले इतवार को तय किया गया है। मुहब्बत हार गयी हालात और परिवार के आगे, एक बार फिर मुहब्बत ने एक हाथ को छोड़कर दूसरा हाथ थाम लिया। हांलाकि ये मुझे पता है की वो मुझे छोड़कर गयीं है.. मगर मेरी मुहब्बत उसकी आँखों में आज भी उतनी ही जवाँ है जितनी 6 बरस पहले हुआ करता थीं.. और शायद अगले सालों दर साल ये ऐसा ही रहेगा। हमने मुतालबा बंद किया है मुहब्बत करना नहीं, एक दूसरे के सीने में हम धड़कते रहेंगे चाहे हमारी जिस्म किसी को भी सौंप दी जाए। यही आखिरी कसम थी हमारी जो हमने साथ में एक-दूसरे के हाथों को थाम के किये थे। अब इन बातों को गुजरें लगभग 23 साल हो गए है, आज वो मिली भी थी, मगर शायद पहचान नहीं पायी, आँखों पर अब चश्मा लग गया है.. दिखता नहीं.. या मुझे देखना नहीं चाहती। या किसी की कहीं बात आज सच साबित हो रही हो, समय की दूरी ने मुहब्बत को भी मिटा दिया, समझ नहीं आता मगर वो कहते हैं ना, सच जल्दी समझ भी नहीं आता। ख़ैर बाक़ी सब ठीक है, अभी जिंदा भी हूँ और धड़कने भी बखूबी धड़क रही है। शायद कुछ है जो बाक़ी रह गया हम दोनों के दरम्यान, शायद।
नितेश वर्मा
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