Saturday, 30 January 2016

एक जमाने का स्कूल

उम्र बढ़ा तो क्लास भी बदलने लगी, समझ बढ़ी तो स्कूल-कालेज। सिलसिला ऐसे ही जारी रहा जिम्मेदारीयाँ बढ़ी तो शहर बदलने लगे और जब कुछ बदलने को नहीं रहा तो मैं बदलने लगा। दरअसल बदलाव मुझसे कुछ ऐसे जुड़ा रहा की चाहकर भी मैं उससे पीछा नहीं छुड़ा पाया।
बात ग्यारहवीं क्लास से शुरु हुई थी, शुरु क्या हुई थी.. बस नजरों का हेर-फेर हो जाया करता था। कभी फुरसत से मैं उसे देख लेता था तो वो कभी जल्दबाजी में मुझे। मूसलसल लोगों में यह चर्चा का विषय बना रहा था, लेकिन जुर्रत किसी की ऐसी होती नहीं थी कि नाम उछाला जाए। भय बच्चे को बाँध के रखती है। एक वाकअया याद आ रहा है इसपर- जाड़े का मौसम था, स्कूल सुबह 9 बजे से शाम के 4 बजे तक होती थी। स्कूल पुराने ज़माने की थी, बच्चे बहुत मुश्किल से खुदको स्कूल से जोड़कर रख पाते थे। उस वक्त एक मास्टर साहब हुआ करते थे, प्रधान थे तो थोड़ी ठाठ रहतीं थी उनकी। हमलोग भी बड़े निर्लज हुआ करते थे, वो जब मूड में आए हमलोगों को कूट देते थे और हम कूटा के खिंखिया देते। ये बात हमें चुभंती नहीं थी जब तक हमें प्यार का बुखार नहीं चढ़ा था। जब सबके हिस्से में प्यार मुकर्रर-मुकम्मल हुआ तो बात शान तक आ गई। अब मैं कुछ ज्यादा ही मरखांह हो गया था, रामधारी सिंह दिनकर की कविता "कृष्ण की चेतावनी" का हर वक़्त पूरे क्लास में घूम-घूम के पाठ किया करता था। एक दिन क्लास को फिर जमघट बनाकर कृष्ण का भेष धरा गया, उसी रटी-रटाई कविता के साथ और फिर मास्टर साहब आकर पीछे से लतिया दिये, खूब जब कुटाई हो गयी तो मैंने बहसबाजी शुरु की और मुझे प्रधान के हवाले कर दिया गया। शिकायत ये की गयी कि लड़का पूरे क्लास में घूम-घूम कर अश्लीलता फैलाया जा रहा था, लड़कियों को जीना भी दूभर हो गया है, उनकी तरफ से आए दिन मुझे लेकर शिकायत आती रहती है। भरपूर कुटाई हुई और घर भेज दिया गया, दर्द को छिपाने के लिये मैंने ठंड का बहाना बनाया जो कि बहोत ही असरदार रहा। हालत सुधरी तो स्कूल पहुंचा, पूरा माहौल बदला हुआ था लड़कियाँ क्लास के एक ओर बैठने लगीं थीं और लड़के मन मसोसकर दूसरी तरफ। अब लड़कियों से बात करने की मनाही भी थी, प्यार का सीन तो बहुत ओंछी हरकत माने जाना लगा। स्कूल को लगा अब बच्चे भी सुधर गये है और वो एक प्रगतिशील समाज के बच्चों का उत्पादन करने लगे है। बच्चों को अब नम्बर्स के हिसाब से क्लास में बिठाया जाने लगा और तेज हो रहे बच्चों के साथ लडकियों को महफूजियत से उनके क्लास में बिठाया जाने लगा। स्कूल बिजनेस और उन्नत छात्रों के उत्पादन का एक अद्भुत नमूना बनकर सामने आने लगा, हर साल ऐडमीशन भेडियों की तरह होने लगी। हालत ये हो गयी थी कि बच्चे कैसे भी पढ़ें पढ़ेंगे तो इसी स्कूल में।
अब स्कूल आज बहुत आगे निकल चुका है, कल एक दोस्त ने बताया- भाई! 60000/ में ऐडमीशन दिलाकर आया हूँ, बेटी ने टेस्ट क्लीयर किया था। तेरे वाले ही स्कूल में, जिसमें तू कभी पढ़ता था।
- अच्छा! कोंगरेट्स हर। मिलता हूँ, फिर कभी तुझसे।
- अच्छा, बाय।
- बाय।
- हुम्मम! स्कूल।

नितेश वर्मा 

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