Saturday, 30 January 2016

हिन्दुस्तान-पाकिस्तान

बात बहुत अरसे पुरानी नहीं है, बस इतना समझ लीजिए की उस वक़्त देश अंग्रेजों का गुलाम नहीं हुआ करता था। कहीं भी कोई भीषण हाहाकारी नहीं मची थीं, बस छुट-पुट लोग कभी-कभी अपनी बातें मनवाने को जुलूस निकाल लिया करते, कोई फ़तवे जारी हो जाते मगर उग्रता देश से बाहर जा चुकी थीं। और सत्तेधारियों का ये मानना था की लोग अब उनका बहिष्कार कर रहें है, वो कुछ ज्यादा ही आज़ाद ख़्याली हो गए है। आए दिन लोगों को कमी महसूस होने लगती वो पुलिस प्रशासन से लड़ बैठते, अब कुछ लोगों को लगने लगा था कि विद्रोह भड़कने वाला है, इन्हें वक़्त रहते ना संभाला गया तो देश में फिर से कोई गड़बड़ी मच जायेगी। देश में खलबली का एक मुख्य कारण हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का विभाजन भी माने जाने लगा था। हैदराबाद के मुसलमान इससे काफी नाराज थे, मगर सद्र-ए-सियासत का हुक्म था, सो उसे निभाया गया। कुछ मुसलमान  हिन्दुस्तान में रह गए तो कुछ पाकिस्तान चले गये। हालांकि इसमें सफ़र किसी ने तय नहीं किया, कुछ लोग तो बहुत दिनों तक यह समझ नहीं पाएँ की वो पाकिस्तान कब पहुंच गए। हालांकि जैसे-तैसे मामला जाकर हल हुआ, जब तक लोग मुतमइन हुए देश की हालत सुधर चुकी थी।
अब समस्या इससे कुछ लोगों को होने लगी की मुसलमान प्रधान देश के बाद भी क्यूं मुस्लमानों का एक आधा हिस्सा हिन्दुस्तान में ठहर गया।कुछ दिनों तक मामला सियासी निगरानी में रहा फिर उसे जनहित करार कर दिया गया। सियासतदानों के यह मान लेने के बाद कुछ ना-नुकूर करके लोगों ने भी इसे मान लिया।
कुछ चाहने वाले जो किसी ना किसी चाहत में जी रहे थे, मुल्क आज़ाद होने के बाद उनके याद में तड़प-तड़प कर मर गये। किसी को देश की मिट्टी नसीब नहीं हुई तो कोई जेहनी तौर से बीमार होकर मर गया। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान विभाजन कुछ लोगों के लिये वरदान साबित हुआ तो कइयों को लेकर डूब गया, फिर भी लोग जनवादी रूप लेकर मौन रहे। अब सारी बातें शासन-प्रशासन तय करने लगी। लोगों को लगा जैसे अब सब ठीक होने लगा है। आज़ादी के कुछ बरसों के बाद हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की बनीं नहीं, आए दिन ये मामला सामने आने लगा कि वो अपना हक़ चाहते है, बात कश्मीर से चलकर हैदराबाद तक पहुंच गई। बात जब और बढी तो दूसरे मुल्कों ने तक़ाजा किया, बड़े मुल्कों ने हुक्म फरमाया - दोनों देशों को एक सुचारु रूप से विभाजित किया गया, तारें बिछाई गयीं उसके उपर डाइनामाइट लगाया गया, सैनिकों को रखवाली पर बिठाया गया। सब मिला-जुलाकर लगभग इतना खर्च हुआ जितने में एक और मुल्क अपनी हालत सुधार सकता था।
जब-तक मुल्क इन मुश्किलातों से फ़ारिख़ हुआ, देश की आम जनता भाषा, जात, लोकतंत्र जैसी अनेक मुद्आए लेकर रैलियां निकालने लगीं, धरने पर लोग बैठने लगें। आए दिन देश के आम लोगों ने हिन्दुस्तान मुर्दाबाद और पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाने शुरु कर दिये। शुरुआत में दोनों मुल्कों ने सोचा ये अगली मुल्क की कोई शातिराना चाल है। सैनिकों की भर्ती की जाने लगी, जब लगा कि हाल अपने इख़्तियार में नहीं है तो ज़बरन लोगों को घर से उठाकर सैनिक बनाया जाने लगा। मुल्क अंदर ही अंदर कातिलाना हुक्म फरमाए जा रहा था और लोग उफ़्फ भी ना कर पा रहे थे। जब कुछ दिनों बाद मामला दुरूस्त हुआ तो सियासतदानों को यह पुख्ता सबूत मिल गया कि यह हाल पड़ोसी मुल्क की साज़िश के अनुरूप था। माँग करने वाले लोग अब बार्डर पर तैनात रहने लगे, जब कभी फुरसत मिलता चिट्ठियाँ लिख लिया करते। महीने में एक बार डाकिया आता और आकर हाल सुना जाता।
धीरे-धीरे जब माहौल बदलने लगा लोग अपने ज़िन्दगी में मसरूफ़ होने लगे। कइयों ने तो करोड़ों-अरबों में पैसे जमा कर लिये, धीरे-धीरे जब औक़ात बढी लोग विदेशों में जाने लगे। कुछेक को विदेश भाने लगी तो कइयों को लताड़ कर निकाल दिया गया। धीरे-धीरे सियासी निगरानी और इंतेजामात कम किया जाने लगा। फौजियों की आए दिन नृशंस हत्याएँ होने लगी, मुल्क परचम पर लहरा रहा था तो ध्यान गया नहीं। लोगों ने भी अंदेख़ा कर दिया। लोग अपने घर से परेशान रहने लगे थे, मुल्क का पता किसी को नहीं चला। कभी हिन्दुस्तान पाकिस्तान की कमियां गिनाता तो कभी पाकिस्तान हिन्दुस्तान को जीं भर कर कोसता। दोनों मुल्क के लोग इस बात से इतने चिढे हुए थे कि, जब भी कोई ऐसी रिपोर्ट आती वो फिर कोई दूसरा चैनल ट्यून कर देते। कुछ लोगों का कहना था कि कभी फिर हिन्दुस्तान और पाकिस्तान पूरा हिन्दुस्तान हो जायेगा तो कुछ कहते थे अगर पूरा पाकिस्तान हो जाये तो क्या बहस है। हर रोज़ बस इसी बात पर मार-काट चल रही थी, अगर पूरा हिन्दुस्तान पाकिस्तान हो गया तो पूरे हिन्दू कहाँ जायेंगे।

नितेश वर्मा 

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