Saturday, 30 January 2016

शिकायतें

ना ही फेसबुक पर ज्यादा फ्रेंड़स हैं और ना ही इस मुख्तसर सी जिन्दगी में। गर्ल-फ्रेंड बनाने की हालांकि बहोत सी कोशिशें की मगर अब तक नाकाम ही रहा हूँ। फुरसत के वक़्त जब भी चलकर करीब आते है एक बोरियत और उबाऊ जेहन को घेर लेती है, किसी नामालूम से पते पर जैसे घंटों कोई चलती ट्रेन आकर ठहर जाती है.. बिलकुल वैसी वाली ही फिलिंग मंडराती रहतीं है.. कोई काली सी घटा बनकर जो ना तो बरसती ही है और ना ही छटती है।
तो जब भी फुरसत में होता हूँ कोई किताब लेकर बैठ जाता हूँ। कभी साहिर, कभी गुलज़ार तो कभी दिनकर, कभी निराला। ज्यादा पढता नहीं ज्यादा सीखने की कोशिश करता हूँ, मगर अकसर नाकाम होता हूं।
ऐसा बहोत बार हुआ है जब मैंने देखा है मिर्ज़ा गालिब, मीर तक़ी मीर, फ़राज़, फ़ैज, राहत इंदौरी, जावेद अख्तर और भी बहोत सारे नामचीन शायरों के शे'र को अपने नाम से लोगों को प्रकाशित करते हुए। मैं इसपर अपनी कोई टिप्पणी नहीं रखता हूँ कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए या फिर वो ऐसा करके बहोत गलत कर रहे हैं। लेकिन अगर वो उनकी शे'र को उनके नाम से पोस्ट करे तो ज्यादा बेहतर होगा। लिखने-सीखने का सिलसिला जारी रहेगा और साहित्यिक मान भी बढेगा।
अग़र आप बुरा लिखते है तो इसमें कोई बुरा नहीं, कोई भी इंसान मुकम्मल नहीं होता। सब में कोई ना कोई, कुछ ना कुछ कमी रहती ही है। मगर आप खुद को बेहतर दिखाने के लिए किसी दूसरे का कलाम अपने नाम से प्रकाशित करते है तो यह चोरी के लांछन वाले हिस्से में चला जाता है। मैं तो यह कहता हूँ, हर कलाम की प्रशंसा होनी चाहिये लेकिन कोई भी कलाम चोरी की नहीं।
उर्दू अदब के थोड़े से जानकार, जो उर्दू जुबान ना तो लिख सकते है और ना ही ढंग से बोल सकते है। शहरयार बनकर अकसर घूमा फिरते है। अब ऐसा है जैसे वो ग़ालिब की तख्ते-ए-दार पर बैठे है और वो जो कुछ भी पाद देंगे वो हवा में गालिब-ए-दीवान बनकर लिख जायेगी। ये वहीं लोग है जिन्हें अकसर दूसरों से प्रतिस्पर्धा रही है, अपनी नाकामयाबी वो दूसरे को ओछे बताकर छिपा लेते है। ये चोर बिलकुल नहीं होते, लेकिन ये पैर में फंसे उस रस्सी की तरह होते है जो तो चलने की आजादी तो देता है मगर एक दायरे में, जो दायरा उन्हें उचित लगता है। बदलते वक्त का स्वरूप उन्हें ना बदले मगर जमाना किसी 100/50 के रूक जाने से नहीं रूकने वाला। अगर आप पीछे मुड़कर देखने लगे तो यह संभव नहीं की ये जमाना भी पीछे मुड़कर देखने लगें। जब तक वक़्त था साहिर, शैलेंद्र, मजरूह इत्यादि लिखा करते थे लेकिन आज गुलज़ार, ज़ावेद, इरशाद लिखते है। आज के वक़्त के हिसाब से वहीं लिखा जा रहा है जो आज बोला जा रहा है। अगर आप शुद्ध हिन्दी भाषी या उर्दू के जानकार है तो आज के ऐसे लिखने वाले भी कई हैं। बस जरूरत यह है की आप अपने आलीशान बंगले से निकलकर दो-चार किताबें खरीद लाये उन किताबों की भीड़ में इनकी भी कोई किताब पड़ी होगी धूल खाते हुए, उन्हें आहिस्ते उठाइए वो इतनी तल्ख हो चुकी है कि अब कोई बोझ सहन नहीं कर सकती, फिर उस पर पड़ी धूल को साफ करके पढिए, आपको आपका साहिर, शैलेंद्र, मजरूह, शहरयार, प्रदीप और भी नजाने कौन-कौन मिल जाएगा। हाल आज ऐसा की कविता कवि को नहीं पाल सकती एक कवि को अपनी कविताएं पालनी है, और पेट पालने के आगे सब मजबूर होते है साहिब।
अगर आज शायद लिखा जायें "जब तूने गेंसू बिखराए बादल आए झूम-झूम के" तो यह उतना ना सुना जाये जितना "आज रात का सीन बना लें"। कसक किसी बात की नहीं है वक़्त बदले है.. तो हालात भी, साथ-साथ ख्वाहिशों भी.. सोच भी। अगर फिर भी किसी को मुश्किल है तो वो जरूर आए मुम्बई,बालीवुड.. यहाँ सबको मौका मिला है, आप बेहतरीन है आपको और भी जल्दी मिल जाएगा। आए और अपनी प्रतिभा को सारे जमाने को दिखायें, सब से उन्हें पसंद करवाये। डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, म्यूज़िक डायरेक्टर, एक्टर और भी नाजाने किस-किस को समझायें
की आपने जो लिखा है वो बहोत बेहतरीन है, यह गाना आते ही शहर में आग की तरह फैल जाएगा। और अगर यह भी नहीं कर पाए तो फिर तकिया-कलाम उठाइये, एक-आध घंटे इन गीतकारों को गरियाइये फिर कंबल तान के सो जाइये, देर से उठियेगा तो बॅास भी गरियाऐगा आपको, बोनस के साथ।
बात बस इतनी है कि जो समय की मांग है, बस उसे ही पूरा किया जा रहा है। और कुछ गाने जो शायद म्यूजिक स्लो कर दे तो आपको आपके जमाने में लेके चला जाए -
# कितने दफ़े दिल ने कहा, दिल की सुनी कितने दफे।
# अगर तुम साथ हो।
# कतरा-कतरा मैं गिरूं
# मैं तुझे बतलाता नहीं, पर अंधेरे से ड़रता हूँ मैं माँ।
# दीवानी मस्तानी हो गई।
# जी ले जरा।
# अभी मुझमें बाक़ी थोड़ी सी है ज़िंदगी।
# जब तक है जान।
# हमारी अधूरी कहानी।

नितेश वर्मा 

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