Saturday, 30 January 2016

जिन्दगी धुएँ की तरह

धुएँ की लपटें लगातार उपर उठती और फिर दीवार की छत से टकरा कर पूरे कमरे में पसर जाती जैसे कोई रोशनी बिखरती हो सुबह की कुहासे में। दरअसल दिसम्बर का महीना अकसर लोगों को मौकापरस्त बना देता है ये ऐसा मौसम होता हैं जिसमें लोग खुद को वक्त का एक बोझ समझने लगते है। एक तो दिन
मुख़्तसर सी होती है और रात जब भी होने को होती है तो शाम से ही तन्हाई एक घटा बनकर छा जाती हैं। अकसर सही कहते हैं लोग - वक्त मौकापरस्तों का रहनुमा नहीं होता।
मैमसाब कुछ खाने को लाऊँ?
नहीं काका, अभी नहीं.. अभी मूड कुछ अच्छा नहीं है, थोड़ी थकान हैं.. मैं बाद में आपको खुद बुला लूंगी।
अएए! वो क्या है ना मैमसाब आज मेरा बेटा आने वाला है, तो मैं सोच रहा था आपको खिला देता तो..

अच्छा, कोई बात नहीं आप चले जाइये मैं खुद से खाना ले लूंगी।
धन्यवाद! मैमसाब।
सिगरेट की कश से जब भी सुमोना रिहा होती तो वो खुद को अपने डायरी की किसी पन्ने से जकड़ लेती। 32 वर्ष की हो चली सुमोना पेशे से एक लेक्चरर हैं और हाल में ही उनका तबादला इस क्रम में शिमला में हुआ है। शिमला में सुमोना का अपना खानदानी बंगला हैं  वो अपने तबादले के साथ अपने घर की भी देखभाल करने की कोशिश कर रही हैं।
काश! ये रिश्तों की कडवाहटें भी बंगले में पड गए इस धूल की तरह होते तो कितना अच्छा होता कमसेकम समझ आने पर उन्हें फिर से एक खूबसूरत आईने की तरह संवारा तो जा सकता, मगर ऐसा कहाँ कभी होता हैं। अपनी सोची हुई चीजें अकसर खुद को ही ना मिलने पर कष्ट देती हैं। किसी की उम्मीदें.. तो किसी को उम्मीदों से बाँधकर अकसर निराशा ही हाथ आयी हैं - सुमोना जब कभी भी ये सोचती है तो वो अंदर तक सिहर जाती जैसे पूरे शिमले की ठंड उसे बुत बना देना चाहती हो.. और अब वो ये सोचकर खामोश रहती हैं की अब शायद इनसे लड के भी क्या करना।
हैलो! हैलो..
सुमोना ने ऊंघते हुये बोला क्या काका! अभी उठा दिया आज तो सन्डे हैं ना।
सारी, मगर आज बाबा नहीं मैं आया हूँ, मेरा नाम रवि हैं, मैं आपके लिये चाय लेकर आया हूँ  और एक सवाल मैं आपको क्या कहकर बुलाऊँ मैमसाब या कुछ और।
सुमोना ने मुस्कुराते हुये कहा- बस सुमोना कहा करो, तुम क्या करते हो और हाँ, मैं चाय नहीं काफ़ी पीती हूँ लगता हैं काका ने तुम्हें बताया नहीं होगा।
हम्म। सुमोना जी बताया तो था, लेकिन मैंने अनसुना कर दिया था ये सोचकर लिटरेचर की लेक्चरर और चाय नहीं पीती होंगी।
सुमोना ने इस दफे कोई जवाब नहीं दिया और ना ही कुछ बात करने की कोशिश की - बस रवि की ओर देखकर मुस्कुरा भर दिया था।
सुमोना अपने ऐश-ट्रे को छिपाने की कोशिश से उठी की कल रात की लिखी सारी कविताएँ फर्श पर बिखर गयीं। हर बार ऐसे ही होता हैं जब भी कोई चीज़ समेटने की कोशिश करो तो कोई समेटी हुई चीज बिखर जाती हैं। मगर हालात और इंसान कभी भी अपने नाकाम कोशिशों के बाद भी बाज़ नहीं आते।
रवि ने कमरे के पर्दों को खोलकर सूरज की झनती हुई किरणों को कमरे में आने की अनुमति दे दी थी, लेकिन कमरे में इतना सन्नाटा था कि कागजों के गिरने भर से रवि चौंक सा गया। फिर कुछ सँभलकर बोला - सुमोना जी! आप रहने दीजिए मैं समेट देता हूँ इसे।
काश! काश .. कोई समेट पाता। सुमोना ये कहकर खुद से कागजों को समेटने लगीं।
रवि ने भी कोई कोशिश या कोई जिद नहीं की, वो समझ चुका था कुछ घाव जिस्म पे नहीं दिल के भीतर किसी कोने में दबे रहते हैं जो तभी खुला करते हैं जब कोई हमनवा या हमदर्द उनके साथ हो।
तुम बताओ! तुम क्या करते हो? सुना है कि बच्चों को पढ़ाने लगे हो।
जी, बिलकुल सही सुना है। थोड़ा बहुत पढ़ा लेता हूँ, इसलिये स्कूल वाले झेल रहे है मुझे।
इस बात पर दोनों ने एक-दूसरे को देखकर मुस्कुरा दिया।
और बताओ, कितने दिनों की छुट्टी लेकर आये हो?
छुट्टी तो लेकर नहीं आया, बस कुछ काम है उसी के सिलसिले में आया हूँ यहाँ।
अच्छा, क्या काम है?
जी, मुझे दरअसल.. एक मिनट काल आयी है जरूरी, आइ हैव टू पिक दिस।
सुमोना ने एक मुस्कुराहट अपने चेहरे पर लाकर जैसे इजाजत दे दी.. अकसर होता भी ऐसा ही है जब हमें कुछ समझ में नहीं आता तो हम किसी दूसरे की खुशी को ही अपनी खुशी मान लेते है। इंसान होते हुए भी इंसान खुद के स्वभावों से परिचित नही होता उसे अकसर खुद की ही सोचो पर परेशानी और हैरानी होती रहती है। शायद! इसलिये इंसान को कुदरत का सबसे अजीबोग़रीब पेशकश माना जाता है।
छुट्टी के दिन होने के कारण.. कोई उबाऊ जेहन को ना घेरे इसलिए सुमोना अब अपनी डायरी लिखा करती है या कोई घर का हिसाब किताब और अगर कुछ भी ना हो तो खुद को अखबारों में उलझा लेती है। लेकिन ऐसे पहले नहीं थी सुमोना.. मगर जबसे उनके पिता जी इस दुनिया से गुजरें है वो उदास रहती है और उनकी परेशानी का मुख्य कारण उनके पिता की आखिरी इच्छा है - वो चाहतें थे कि सुमोना उस लड़के से शादी करके अपना घर बसा ले जिससे बचपन में अंजाने में उसके पिता ने उसकी मंगनी कर दी थी, उस वक़्त सुमोना की उम्र ही क्या थी यही कोई 13 साल उसे तो ढंग से कुछ भी याद नहीं।
अच्छा! सुमोना जी, अब मैं चलता हूँ। आपको और कोई काम तो नहीं है।
नहीं, फिलहाल कोई काम नहीं है.. अच्छा शाम में तुम क्या कर रहे हो? फ्री हो तो चाय पीने चले कुछ बातें भी हो जाऐंगी और कुछ बाहरी तफरी भी हो जायेगा।
हम्मम, अच्छा! 7:00 बजे तक मैं आ जाऊंगा आप तैयार रहना।
ओके।
बाय, सी यू एट 7:00

कैसी लगी.. तुम्हें यहाँ की चाय?
अभी तो पहली चुस्की ही ली है.. और ये इतना गर्म चाय क्यूं पिलाते है।
क्यूं क्या हुआ? और चाय ठंडी कहाँ मिलती हैं और उसे पीता कौन है।
लेकिन कसम से, इतनी गर्म कहीं नहीं मिलती।
ख़ैर, और बताइये.. कैसा रहा आपका दिन।
मसलन?
मतलब पूरे दिन क्या किया आपने।
धूप में बैठीं रही.. कभी कभार डायरी में कुछ लिख लिया तो कभी खुद का ही लिखा हुआ कई बार पढ़ लिया।
आप खुश तो है ना?
क्यूं, तुम्हें ऐसा क्यूं लगा।
नहीं मैंने तो बस ऐसे ही.. मैंने आपको खामोशी में रहते कई बार देखा है, शायद इसलिए एकदम से ये पूछ बैठा।
चाय पीओ, ठंड हो रही है।
हुम्ममम।
दरअसल, बात बताने वाली है नहीं कि सबको चीखें मार-मार के बतायी जाये.. मगर अब किसी से ना कहो तो अंदर ही अंदर घुट के..
तो, फिर आप बताए, शायद! मैं आपकी कुछ मदद कर सकूँ।
इस वक्त तो ख़ैर कोई मेरी मदद नहीं कर सकता और ना ही मैं किसी के मदद के इंतजार में बैठीं हूँ। बात शादी से समझौते तक पहुंच गयी थी, मुझे घर संभालना था शादी के बाद.. वो भी इस शर्त पर कि मैं अपना घर खुशी-खुशी उसके नाम पर कर दूं। साँसें मैं कब लूंगी और कैसे ये सब तय किया गया था मगर मैं इसे दुत्कारती हूँ मैंने आजादी चाहीं और रिहा हो गयी।
माफ़ कीजिए इसे आजादी नहीं बेबाकी कहते है। ख़ैर आपका इंतख़्वाब भी वाजिब था, इन हालात में कोई भी वही करता जो आपने किया है। मगर यह सब समझते हुए खुद को एक दलदल के मझधार से बांध के भी तो रखा हुआ है आपने, उसका क्या?
मैं खुद कुछ नहीं समझ पा रही हूँ, मैं जाने कौन सा बोझ लेकर चल रही हूँ.. समझ नहीं आता।
मेरे ख्याल से आपको अब अपने जिन्दगी में आगे देखना चाहिए। जिन्दगी ना तो कभी एक गलत फैसले तले खत्म हो जाती है और ना ही किसी के गुजर जाने से रूकती है। अगर आप चाहें तो मैं आपके साथ आपकी तमाम जिन्दगी बिताना चाहता हूँ, मुझे नहीं पता मैं ये सब इतनी जल्दी और ऐसे जगह बैठकर क्यूं कर रहा हूँ। मेरी छुट्टियाँ तो काफ़ी लम्बी है और मुझे काम भी इन छुट्टियों में एक ही था.. अब बस, पूरी छुट्टियाँ आपके जवाब के इंतजार में गुजरेंगी, बस एक आपके हाँ के इंतजार में।

नितेश वर्मा 

2 क्लासों का फ़ासला

बस मैं उससे 2 क्लास छोटा हुआ करता था, उम्र.. उस वक्त उम्र का कोई पता नहीं हुआ करता था और ना ही कोई किसी से ऐसी बेहूदा सवाले करता था। वो दिखने में बेहद खूबसूरत थी, मगर अकसर ये अलग क्लासों का फासला एक बहुत बड़ा मसला हुआ करता है, अगर आप कभी.. ऐसी किसी.. मझदार-ए-इश्क़ के सौदागर बने हो तो आप यकीनन मेरी बातों को चुपचाप मान लेंगे। अब प्यार तो अंधा होता है साहिब, तो मैंने भी कुछ नहीं देखा.. ना उम्र, ना क्लासों का फासला, और ना ही पुराने जमाने के हालात। अब यकीन हो चला था कि मैं इसी के इश्क़ में दीवाना होने के लिये बना हूँ, इससे सफल प्यार ही मेरे जीवन का एकमात्र मकसद है। छोटी उम्र होते हुए भी एक बड़ा सा जिगर लेकर मैदान-ए-इश्क़ में कूद पड़ा, बात अब बहस की ये थी कि प्यार कैसे जाहिर किया जाए। लौंडो की गुट बांधी गयीं, अकसर इन मामलों में ऐसे ही लड़कों की जरूरत पड़ती है। ख़ैर, कुछ चाय और चिप्स पर मनाये गए तो किसी को हमउम्र साथी सहेली से प्यार हो गया था, कोई हमदर्दी में आ गया था तो कोई गॅासिप्स के बहाने तो कोई बस ये देखने के लिये कि लड़कियाँ थप्पड़ कैसे मारती है। अब जितने शक्लें उतनी जुबाँ, उतनी ही बातें, मगर इससे किसी आशिक को क्या फर्क पड़ता है।
गुट बन चुकी थी, प्यार भी दिल ही दिल में हज़ारों प्रोपोजल संवार चुका था.. अब बस उसे कैसे भी करके परोसा जाना बाक़ी था। ख़ैर ऊपरवाले की हरी झंडी मिली और प्रोपोजल जा पहुँचा और जवाब में एक करारा थप्पड़ उनके भाई ने मुझे रसीद दिया। सारी गुटबंधी एक तमाचे के शोर से गायब हो गयी। तरस खाकर फिर मुझे भी छोड़ दिया गया, बस तक़लीफ इस बात की रह गयी कि उसने ना तो इज़हार कुबूल करा और ही अपने भाई से मुझे पीटने दिया। बात ये अरसों तक दिमाग में कोई समाधान नहीं ढूंढ पायी की आखिर वो था क्या? क्या वो भी मुझसे प्यार करती है और करती है तो भाई को इज़हार वाली बात क्यूं बता दी। अकसर ऐसे मामलों में लोग समन्वय बिठाते है तो मैंने भी वहीं किया, फिर से पीछा करने का सिलसिला जारी हुआ नजरों से नज़रें मिली कितनी दफा तो कुछ पल को ठहरी भी। मगर वो कहते है ना जमाने की आँख लग गयी, कुछ दिनों बाद मामला सामने आया उसे मुहब्बत तो थी मगर किसी और से जो उससे 2 क्लास बड़ा था, मेरे मुहल्ले का मुँहबोला भाई.. उसकी सहेली का दोस्त.. जिसके जिम्मे मुझे स्कूल भेजा जाता था।

नितेश वर्मा 

उम्र: एक कहानी सी

मेरे ख्याल से छुट्टियों में सबको घर चले जाना चाहिए। शहर में कोई हो ना हो मगर वहाँ की गलिया जरूर होती हैं जो आपके इंतजार में पागल रहती हैं। उम्र बड़ी नाज़ुक सी चीज है, जिस वक्त में वो गुजरती है उसी के ख्यालों में डूबी रहती है।
बचपन बहोत शानदार थी मेरी - उम्र 11 साल। मुहल्ले का रावण, अभी दिमाग शैतानी वाला है। क्रिकेट का दिन भर खेल, नाले में गयी गेंद को निकालना फिर उसे बिना धोये कंटीन्यू क्रिकेट करना.. और इससे भी कुछ कसर बाक़ी रह जाये तो उसी हाथ से किसी दोस्त के खरीदे सामान में हिस्सा कर लेना.. जो हिस्से में आया उसे मुँह में ठूंस के फिर क्रिकेट कंटीन्यू कर देना। उस वक़्त अंग्रेजी पढ़ाने लिये एक मास्टर आया करते थे 150 ₹ महीने पर.. ये बात बहोत अच्छे से याद है क्योंकि हमेशा की कूटाई के साथ हर दफा ये बात रटवायी जाती। थोड़ी गरीबी थी, मगर सुबह के लिए 1 ₹ और शाम के लिए एक अधन्ना मिल जाया करता था, कहिये तो पूरे ठाठ में था मैं। सुबह 1 ₹ की निमकीन और शाम के अधन्ने से कंचे। कंचे बहुत कमाए हैं मैंने अपनी जिंदगी में, इस बात की बहोत खुशी है, और इसे बताने का अपना ही एक अलग मज़ा। पढ़ाई एक मंहगे से संस्कृत स्कूल में.. फीस 500₹। अभी भी वो बहुत मंहगी स्कूलों में से एक है.. ये बात भी बिलकुल अच्छे से याद है क्योंकि जब भी कूटाई होती.. ख़ैर.. छोड़िये.. जाने दीजिए।
अब उम्र 17 है - एक बहोत ही मुँहजोर लड़का। अपने कालोनी का सिकंदर.. नहीं सिकंदर नहीं.. चलो फिर हिटलर.. पूरा का पूरा अपना राज। अब घर से रोजाना बढ़ा दिया गया है.. सुबह में 10 ₹ और शाम के 7 ₹.. शाम वाला आज तक समझ में नहीं आया 7 ₹ ही क्यूं.. क्योंकि उस वक़्त 7 ₹ में एक गोल्ड-फ्लैक भी आती थी। अब कूटाई कम हो गयी है, घरवालों की परेशानी बढ़ गयी है.. निजात के मौके तलाशें जा रहे है। और मेरे अभी भी ठाठ चल रहें है।
अब उम्र 19 है - घरवाले खुश है, बस माँ को अपवाद में लें ले तो। एक नया शहर, इंजीनियरिंग कॉलेज। दाखिला हो गया है, बिना कुटाई के फी भी बता दी गयी है। लोन पेपर्स लेकर आने की हिदायत भी दे दी गयी है। अब रोजाना महीनवारी तनख़्वाह में तब्दील हो गया है। एक मल्टीमीडिया सेट, लेप्टाप और कुछ नये कपड़े.. जूते पुराने ही है पिछले दीवाली पर खरीदे गये थे। कुल मिलाकर फिर से ऐश ही ऐश हैं, एक दफा फिर दुनिया घाटे में और मैं फिर मुनाफे में। इंजीनियरिंग कालेज, दारू-सिग्रेट से दिल नहीं लगा.. एक लड़की से बेशक.. और बेशर्म प्यार हो गया। ख़तों और तस्वीर के सिलसिले से आगे निकलकर फेसबुक का सहारा लिया गया। प्यार आगे बढ़ा फिर मुझसे बेहतर एक और लड़का बीच में आ गया, अब प्रेम कहानी ख़त्म हो गयीं है।
अब उम्र 23 है - इंजीनियरिंग कंप्लीट हो चुकी है, नौकरी ना के बराबर लगी है 19500 ₹ पर। बात पहले 27000 ₹ पर तय थी, फिर नालायक समझकर 19500 ₹ पर नौकरी थमा दी गयी। मैंने इंकार करना चाहा, फिर घरवालों ने 19500 ₹ पर ही खुशी जता दी.. नौकरी कर ली मैंने। 6000 ₹ लोन के कट जाने लगे है, 5500 ₹ पी जी वाले अंकल। घर वालों के मोबाइल रिचार्ज में 1000 ₹ उसके बाद सारा का सारा माल मेरा.. फिर से पूरी ठाठ.. ऐश ही ऐश है। उधार लेकर एक बाइक भी ले ली है.. सेकैन्ड हैंड, फिर कुछ दिनों बाद उसे चोर चुराकर ले गए.. खुशी है कि नयी नहीं खरीदी थी। फिर से इस दफा मुनाफे में।
अब उम्र है 27 साल - एक सभ्य इंसान, नज़रें सीधे रखकर चलने वाला इंसान। कविताएं, ग़ज़ले करने लगा हूँ.. कुछ शार्टस-स्टोरी भी लिख लेता हूँ, जो लिखता हूँ उसी को बार-बार पढ़ता हूँ, दूसरों से चिढन होती है.. सुनता भी नहीं। छुट्टियों के इंतजार में रहता हूँ, अगली दफा जो शहर गया उसे भी अपने साथ ही उठाकर इस शहर ले आऊंगा। बार-बार आना-जाना अच्छा नहीं लगता। और कहीं ले आया तो फिर.. मैं मुनाफे में और पूरी की पूरी दुनिया घाटे में। एक और बात अब तनख़्वाह 65000 ₹ हो गयीं है, अब ये कैसे हुआ मुझे खुद भी पता नहीं।

नितेश वर्मा 

अब कल से

अब कल से सब बदल रहा है और मैं भी बदलने की पूरी कोशिश करूंगा। घरवालों ने शादी तय कर दी है, जॅाब तो मैंने तुम्हारे छोड़ देने के कुछ दिनों बाद ही कर ली थी। उन्हें लगता है मैं बहुत ही बड़ा इंजीनियर हूँ इसलिए मुझे मानो-सम्मान देकर मैनेजर बना दिया गया है। दिन भर ख़ामख़ा की शायरी और कविताएं लिखा करता हूँ.. थोड़े बहोत सिग्नेचर करने होते है बस.. वो पीने वाला तो कब का छोड़ दिया। अकसर जब भी टी वी आन करता था वो बेहूदा पता ना सुरेश या नरेश था.. आकर अपनी परेशानी सुनाकर मुझे भी परेशान कर देता। वो तो माँ ने कसम याद दिलायी थीं कि उन्होंने 7 बरस पहले मुझे नशे से दूर रहने की कसम देकर जबरदस्ती इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने को भेजा था। तब किसे पता था, तुमसे मिलने के बाद सबसे प्यार हो जायेगा और तुम्हारे चले जाने के बाद खुद से नफ़रत। बरहाल तुम्हारे बारें में भी सुना.. तुम तो मास्टर हो गयीं हो एकदम, रोज़ अखबार में आर्टिकिल्स आते है तुम्हारे.. बस अब पढ़ने की हिम्मत नहीं रही, एक जमाने में तुमसे सुनने की आदत थी अब वो भी नहीं रही।
तुम्हारी तस्वीर को अब भी उसी नाबेल के नोट से लगाकर रक्खा है जहाँ पर एकदम से सब उलट जाता है और फिर 30 साल पीछे जाकर प्रेमी-प्रेमिका मिल जाते है। बेहद रोमांटिक शाम हो जाती है, हल्की बारिश हवाओं के साथ चलती है। अब बस उसी के ताक में हूँ कि कहीं से भी वो दिन मेरे लिए भी लौट आए। फेसबुक के "हमदर्द है तू", "जा बेवफा", "फिर मिलेंगे" जैसे कई पेज्स के कमेन्ट बाक्स में ये कहानी पोस्ट कर चुका हूँ। बहोत लाइकस मिलते है.. रिप्लाइज़ भी आते है और एक बात बताऊँ.. लड़कियाँ भी लाइकस करती है.. बस तुम्हारी तरह कोई कामेन्ट नहीं करती। फ्रेंड- रिक्वेस्ट की भरमार लगी पड़ी है, अब जाकर यकीन हुआ ये पेज्स एडमिन कितने महान होते है। तुमसे ज्यादा शिकायत नहीं होने की एक बड़ी वजहें ये पेज्स ही है.. कभी फुरसत में हो तो आना फिर देखना मेरा तमाशा.. मैं भी वहाँ हीरो हो गया हूँ।
कल बारात है, कार्ड तुम्हारे पसंद का ही छपवाया है मैंने.. देखो अपना आखिरी शर्त भी पूरा कर दिया मैंने।अब जो फिर इसी तरह कहीं मेरे पोस्ट करते-करते अगर वक़्त 30 साल पीछे पलट गया तो फिर सारी सवाले मेरी होंगी और फिर इस दफे घाटे के सौदे में तुम। अगर तुम्हारी खूबसूरती भी साथ वापस आ गयीं उस मासूम से चेहरे के साथ तो फिर सारे शिकवे माफ़।
तुम्हारे अख़बार में ही छपने को भिजवा रहा हूँ, छाप देना। पसंद आया हो तो सबसे उपर ही छपवा देना। सोचता हूँ तुम्हें शुक्रिया की जरूरत नहीं होगी, फिर भी शुक्रिया.. क्यूंकि
अब कल से सब बदल रहा है।
इस बार अलविदा जरूर लिख भेजना, मेरे बाय के जवाब में - बाय।

नितेश वर्मा 

मैं ख़ामख़ा था।

वो बेहद खूबसूरत थी और मैं बहोत मासूम। उसकी खूबसूरती उसे सबसे जोड़े रखती तो मेरी मासूमियत पे वो फिदा रहती। उसके नखड़े बहोत हुआ करते थे और उन नखड़ों का जिक्र किसी शाम के रोमांटिक नोबल का एक हिस्सा। वो जल्दी किसी से बातें नहीं करती मगर घंटों खुद को किसी के ख्यालों से बांधें रखती। पहलेपहल तो लगा जैसे वो कोई तिलिस्म हो और मैं कोई बेपरवाह राही, जो बरसों के प्यास को लिये उसके करीब तक जा पहुंचा हूँ। उसकी खूबसूरती उसकी आँखों में कैद थी जैसे, वो अगर खामोशी से भी दो पल देख लें तो जैसे समुंदर भर की प्यास गायब हो जाये। अकसर उसे मुझसे काम हुआ करता था कभी किसी वजह से तो कभी किसी वजह से। मुझे भी ये मिलने-मिलाने का दौर बहोत हसीन लगने लगा था। बात मुलाकात से आगे बढ़ी तो इश्क़ ने दस्तक दे दी, अब वो सामने ना भी होती तो भी वो मुझमें कहीं-न-कहीं घुलती रहतीं और मैं उसके कैद में एक और मासूमियत के चादर के साथ मनमौजी होकर एक हसीन से सफर पर निकल जाया करता। मुझे ज्यादा बोलना अच्छा नहीं लगता था मगर जब भी कभी वो बोलती उसे घंटों खामोशी से सुन सकता था। वो दरअसल मेरे मासूमियत पर एक लिहाफ सी थी, अगर वो साथ ना होती तो मैं भी कुछ और होता और मेरे बगैर भी वो वो ही होती।

नितेश वर्मा और वो।

एक जमाने का स्कूल

उम्र बढ़ा तो क्लास भी बदलने लगी, समझ बढ़ी तो स्कूल-कालेज। सिलसिला ऐसे ही जारी रहा जिम्मेदारीयाँ बढ़ी तो शहर बदलने लगे और जब कुछ बदलने को नहीं रहा तो मैं बदलने लगा। दरअसल बदलाव मुझसे कुछ ऐसे जुड़ा रहा की चाहकर भी मैं उससे पीछा नहीं छुड़ा पाया।
बात ग्यारहवीं क्लास से शुरु हुई थी, शुरु क्या हुई थी.. बस नजरों का हेर-फेर हो जाया करता था। कभी फुरसत से मैं उसे देख लेता था तो वो कभी जल्दबाजी में मुझे। मूसलसल लोगों में यह चर्चा का विषय बना रहा था, लेकिन जुर्रत किसी की ऐसी होती नहीं थी कि नाम उछाला जाए। भय बच्चे को बाँध के रखती है। एक वाकअया याद आ रहा है इसपर- जाड़े का मौसम था, स्कूल सुबह 9 बजे से शाम के 4 बजे तक होती थी। स्कूल पुराने ज़माने की थी, बच्चे बहुत मुश्किल से खुदको स्कूल से जोड़कर रख पाते थे। उस वक्त एक मास्टर साहब हुआ करते थे, प्रधान थे तो थोड़ी ठाठ रहतीं थी उनकी। हमलोग भी बड़े निर्लज हुआ करते थे, वो जब मूड में आए हमलोगों को कूट देते थे और हम कूटा के खिंखिया देते। ये बात हमें चुभंती नहीं थी जब तक हमें प्यार का बुखार नहीं चढ़ा था। जब सबके हिस्से में प्यार मुकर्रर-मुकम्मल हुआ तो बात शान तक आ गई। अब मैं कुछ ज्यादा ही मरखांह हो गया था, रामधारी सिंह दिनकर की कविता "कृष्ण की चेतावनी" का हर वक़्त पूरे क्लास में घूम-घूम के पाठ किया करता था। एक दिन क्लास को फिर जमघट बनाकर कृष्ण का भेष धरा गया, उसी रटी-रटाई कविता के साथ और फिर मास्टर साहब आकर पीछे से लतिया दिये, खूब जब कुटाई हो गयी तो मैंने बहसबाजी शुरु की और मुझे प्रधान के हवाले कर दिया गया। शिकायत ये की गयी कि लड़का पूरे क्लास में घूम-घूम कर अश्लीलता फैलाया जा रहा था, लड़कियों को जीना भी दूभर हो गया है, उनकी तरफ से आए दिन मुझे लेकर शिकायत आती रहती है। भरपूर कुटाई हुई और घर भेज दिया गया, दर्द को छिपाने के लिये मैंने ठंड का बहाना बनाया जो कि बहोत ही असरदार रहा। हालत सुधरी तो स्कूल पहुंचा, पूरा माहौल बदला हुआ था लड़कियाँ क्लास के एक ओर बैठने लगीं थीं और लड़के मन मसोसकर दूसरी तरफ। अब लड़कियों से बात करने की मनाही भी थी, प्यार का सीन तो बहुत ओंछी हरकत माने जाना लगा। स्कूल को लगा अब बच्चे भी सुधर गये है और वो एक प्रगतिशील समाज के बच्चों का उत्पादन करने लगे है। बच्चों को अब नम्बर्स के हिसाब से क्लास में बिठाया जाने लगा और तेज हो रहे बच्चों के साथ लडकियों को महफूजियत से उनके क्लास में बिठाया जाने लगा। स्कूल बिजनेस और उन्नत छात्रों के उत्पादन का एक अद्भुत नमूना बनकर सामने आने लगा, हर साल ऐडमीशन भेडियों की तरह होने लगी। हालत ये हो गयी थी कि बच्चे कैसे भी पढ़ें पढ़ेंगे तो इसी स्कूल में।
अब स्कूल आज बहुत आगे निकल चुका है, कल एक दोस्त ने बताया- भाई! 60000/ में ऐडमीशन दिलाकर आया हूँ, बेटी ने टेस्ट क्लीयर किया था। तेरे वाले ही स्कूल में, जिसमें तू कभी पढ़ता था।
- अच्छा! कोंगरेट्स हर। मिलता हूँ, फिर कभी तुझसे।
- अच्छा, बाय।
- बाय।
- हुम्मम! स्कूल।

नितेश वर्मा 

जलील होना पड़ता है।

जिन्दगी मूसलसल गुजरती रहती है, उसकी अपनी ही एक सिद्धमान गति है.. जो ना कभी किसी बुरे वक़्त में जल्दी गुजरती है और ना ही किसी अच्छे वक़्त में ठहरती हैं। जिन्दगी हर रोज़ कुछ ना कुछ सीखाती रहतीं है, बताती रहती है.. और हर दफ़े कोई ना कोई इम्तिहान लेती रहती है। और आदतन या नसीबयित कुछ भी कह लीजिए मैं हर दफे फेल हो जाता हूँ। जैसे फेल होना ऐसा हो गया है- जैसे साँसें लेना, पानी पीना, भोजन करना.. अगर जब तक फेल ना हो जाऊँ तब तक कुछ अच्छा फील नहीं होता।
जलील होना तो जैसे बचपन से ही जुड़ा रहा। बचपन में.. मैं दुबला-पतला हुआ करता था बिलकुल अभी की तरह.. बस उस वक्त इतनी सोच-समझ नहीं हुआ करती थी। उस वक्त बड़ी जोशों-खरोसों के साथ कुश्ती प्रतियोगिता होती थी, मेरे दादा भी मुझको प्रतियोगिता जीतते हुए देखना चाहते थे। सिलसिला जारी हुआ.. मेरी ट्रेनिंग शुरू हुई.. पहलवानों को बुलाया गया, फिर मुझे युद्ध-कौशल सिखलाया गया और प्रतियोगिता में ज़बरन जुगाड लगाकर सम्मिलित कराया.. और फिर जाकर मैं फेल हो गया। उस वक़्त दादा ने बहोत ज़लील किया, ह्रदय जैसे द्रवित हो उठा। मगर बच्चा था, क्या करता मन मसोसकर रह गया। परिवार के लोगों ने तय किया चलो पहलवानी नहीं कर पाया तो क्या, घर का वारिस है - खूब पढ़ाई करेगा और अव्वल दर्जें का आफिसर बनेगा। फिर क्या था, एक अच्छे प्रतिष्ठित स्कूल में नामांकन कराया गया.. घर पर ट्यूशन के लिये उसी स्कूल के मास्टर को पढ़ाने के लिये बुलवाया गया, कुल मिलाकर बहुत खर्चे किये गए। मास्टर साहब की ज्यादा ही खातिरदारी की गई जब तक मैंने बोर्ड का इक्ज़ाम नहीं दिया था.. बोर्ड के इक्ज़ाम से पहले तक मैं स्कूल का हीरो था फिर बोर्ड के इक्ज़ाम में आकर फेल कर गया वो क्या है ना उस वक़्त मास्टर साहब ने सेट किये हुए क्योंश्चन 10 दफे सोल्व नहीं करवाये थे। अब फिर इस दफे फिर से जलील होना पड़ा। बात धीरे-धीरे लोगों तक पहुंचती उससे पहले जैसे-तैसे कर कराकर कम्पार्ट का इक्ज़ाम दिलवाकर बाहर इंजीनियरिंग के लिए भेज दिया गया। खौफ अब सीने में बना रहने लगा.. पढ़ाई-लिखाई होने लगी.. परिवार वालों को अब यकीन बस लगभग होने ही लगा था कि लड़का सुधर गया है, कि तब तक जाकर इश्क़ ने मुझे मुस्कुराते हुए गले लगा लिया। मुहब्बत हुआ तो चर्चें भी होने लगी और बात उड़ते-उड़ते मेरे घर के छत से भी एक दिन गुजर गयीं। बड़ी लानत हुई थी खुद पर उस दिन.. एक बार और जिल्लत उठानी पड़ेगी। अगले ही दिन घर बुलाया गया, मेरी हाजिरी हुई.. लास्ट इयर और घरवालों का तकाजा, लड़की ज्यादा अहमियत रखती है तो परिवार छोड़ दो और अगर परिवार तो वो लड़की छोड़ दो। बहुत मुश्किल से गुजर रहा था, दिल को समझा-बुझा के, रो-गा के परिवार के साइड में फैसला सुना दिया। फिर इश्क़ के इम्तिहान में फैल हो गया और फिर जलील होने उस लड़की के पास चला गया। इंजीनियरिंग पास करी तब-तक उस लड़की के प्यार में पागल हो-होकर शायरीयां करने लगा, कविता-कहानी लिखने लगा। लोगों को पसंद आने लगा तो फिर रोज़ लिखने लगा। कुछ दिनों बाद घर पहुँचा कुछ हित-रिश्तेदार भी घर पहुँचें थे, नौकरीपेशा नहीं होने पर जलील होना पड़ा, फिर एक दफा और फेल। अब कुछ लोग कहने लगे कि बेटा हाथ से निकल गया है, नाम डूबा दिया है इसने। बस आपको तो अब यहीं दिन देखना रह गया था कि बाप अफ़सर और बेटा झोला लटकाए दिन-भर प्रकाशकों के पास दौड़ रहे है। एक बार फिर फेल हुआ था, लेकिन इस बार जलील कोई और हुआ था। मेरी कामयाबी, मेरी नाकामयाबी, मेरे करतूत, मेरी आदतें कैसे मेरे अपनों को भी जलील और गौरवान्वित बनाता है, उस दिन जाकर आभास हुआ था।
आदतें बदलीं तो जैसे दिन भी बदलने लगे, कोशिश की तो नौकरीपेशा भी हो गया, जिम्मेदार होता हुआ देखकर परिवार के लोगों ने शादी भी करा दी। अब फेल होने से डर लगने लगा लेकिन किसी को एक दफा भी मैंने जाहिर नहीं किया की मैं हर रोज़ फेल होता हूँ और हर रोज जलील होता हूँ अपनी नजरों में। अब लोग मेरी हर रोज़ की कामयाबी पर जश्न मनाते है तो मैं भी उनके जश्न में जीभर के झूम लेता हूँ। खुद का जीना भी क्या जीना होता हैं, मैं तो दूसरों के खुशियों के लिये जीता हूँ। मेरी आँखों में कभी झांककर देखोगे तो तुम्हें एक समुंदर मिलेगा और उन लहरों के बीच अधमरे से पड़े हुए कुछ बेहद ही खूबसूरत नावें। अब ज्यादा लिखूंगा तो फिर मतलबी हो जाऊंगा और फिर फेल.. और फिर इस दफे आपकी नजरों में जलील।

नितेश वर्मा 

हिन्दुस्तान-पाकिस्तान

बात बहुत अरसे पुरानी नहीं है, बस इतना समझ लीजिए की उस वक़्त देश अंग्रेजों का गुलाम नहीं हुआ करता था। कहीं भी कोई भीषण हाहाकारी नहीं मची थीं, बस छुट-पुट लोग कभी-कभी अपनी बातें मनवाने को जुलूस निकाल लिया करते, कोई फ़तवे जारी हो जाते मगर उग्रता देश से बाहर जा चुकी थीं। और सत्तेधारियों का ये मानना था की लोग अब उनका बहिष्कार कर रहें है, वो कुछ ज्यादा ही आज़ाद ख़्याली हो गए है। आए दिन लोगों को कमी महसूस होने लगती वो पुलिस प्रशासन से लड़ बैठते, अब कुछ लोगों को लगने लगा था कि विद्रोह भड़कने वाला है, इन्हें वक़्त रहते ना संभाला गया तो देश में फिर से कोई गड़बड़ी मच जायेगी। देश में खलबली का एक मुख्य कारण हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का विभाजन भी माने जाने लगा था। हैदराबाद के मुसलमान इससे काफी नाराज थे, मगर सद्र-ए-सियासत का हुक्म था, सो उसे निभाया गया। कुछ मुसलमान  हिन्दुस्तान में रह गए तो कुछ पाकिस्तान चले गये। हालांकि इसमें सफ़र किसी ने तय नहीं किया, कुछ लोग तो बहुत दिनों तक यह समझ नहीं पाएँ की वो पाकिस्तान कब पहुंच गए। हालांकि जैसे-तैसे मामला जाकर हल हुआ, जब तक लोग मुतमइन हुए देश की हालत सुधर चुकी थी।
अब समस्या इससे कुछ लोगों को होने लगी की मुसलमान प्रधान देश के बाद भी क्यूं मुस्लमानों का एक आधा हिस्सा हिन्दुस्तान में ठहर गया।कुछ दिनों तक मामला सियासी निगरानी में रहा फिर उसे जनहित करार कर दिया गया। सियासतदानों के यह मान लेने के बाद कुछ ना-नुकूर करके लोगों ने भी इसे मान लिया।
कुछ चाहने वाले जो किसी ना किसी चाहत में जी रहे थे, मुल्क आज़ाद होने के बाद उनके याद में तड़प-तड़प कर मर गये। किसी को देश की मिट्टी नसीब नहीं हुई तो कोई जेहनी तौर से बीमार होकर मर गया। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान विभाजन कुछ लोगों के लिये वरदान साबित हुआ तो कइयों को लेकर डूब गया, फिर भी लोग जनवादी रूप लेकर मौन रहे। अब सारी बातें शासन-प्रशासन तय करने लगी। लोगों को लगा जैसे अब सब ठीक होने लगा है। आज़ादी के कुछ बरसों के बाद हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की बनीं नहीं, आए दिन ये मामला सामने आने लगा कि वो अपना हक़ चाहते है, बात कश्मीर से चलकर हैदराबाद तक पहुंच गई। बात जब और बढी तो दूसरे मुल्कों ने तक़ाजा किया, बड़े मुल्कों ने हुक्म फरमाया - दोनों देशों को एक सुचारु रूप से विभाजित किया गया, तारें बिछाई गयीं उसके उपर डाइनामाइट लगाया गया, सैनिकों को रखवाली पर बिठाया गया। सब मिला-जुलाकर लगभग इतना खर्च हुआ जितने में एक और मुल्क अपनी हालत सुधार सकता था।
जब-तक मुल्क इन मुश्किलातों से फ़ारिख़ हुआ, देश की आम जनता भाषा, जात, लोकतंत्र जैसी अनेक मुद्आए लेकर रैलियां निकालने लगीं, धरने पर लोग बैठने लगें। आए दिन देश के आम लोगों ने हिन्दुस्तान मुर्दाबाद और पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाने शुरु कर दिये। शुरुआत में दोनों मुल्कों ने सोचा ये अगली मुल्क की कोई शातिराना चाल है। सैनिकों की भर्ती की जाने लगी, जब लगा कि हाल अपने इख़्तियार में नहीं है तो ज़बरन लोगों को घर से उठाकर सैनिक बनाया जाने लगा। मुल्क अंदर ही अंदर कातिलाना हुक्म फरमाए जा रहा था और लोग उफ़्फ भी ना कर पा रहे थे। जब कुछ दिनों बाद मामला दुरूस्त हुआ तो सियासतदानों को यह पुख्ता सबूत मिल गया कि यह हाल पड़ोसी मुल्क की साज़िश के अनुरूप था। माँग करने वाले लोग अब बार्डर पर तैनात रहने लगे, जब कभी फुरसत मिलता चिट्ठियाँ लिख लिया करते। महीने में एक बार डाकिया आता और आकर हाल सुना जाता।
धीरे-धीरे जब माहौल बदलने लगा लोग अपने ज़िन्दगी में मसरूफ़ होने लगे। कइयों ने तो करोड़ों-अरबों में पैसे जमा कर लिये, धीरे-धीरे जब औक़ात बढी लोग विदेशों में जाने लगे। कुछेक को विदेश भाने लगी तो कइयों को लताड़ कर निकाल दिया गया। धीरे-धीरे सियासी निगरानी और इंतेजामात कम किया जाने लगा। फौजियों की आए दिन नृशंस हत्याएँ होने लगी, मुल्क परचम पर लहरा रहा था तो ध्यान गया नहीं। लोगों ने भी अंदेख़ा कर दिया। लोग अपने घर से परेशान रहने लगे थे, मुल्क का पता किसी को नहीं चला। कभी हिन्दुस्तान पाकिस्तान की कमियां गिनाता तो कभी पाकिस्तान हिन्दुस्तान को जीं भर कर कोसता। दोनों मुल्क के लोग इस बात से इतने चिढे हुए थे कि, जब भी कोई ऐसी रिपोर्ट आती वो फिर कोई दूसरा चैनल ट्यून कर देते। कुछ लोगों का कहना था कि कभी फिर हिन्दुस्तान और पाकिस्तान पूरा हिन्दुस्तान हो जायेगा तो कुछ कहते थे अगर पूरा पाकिस्तान हो जाये तो क्या बहस है। हर रोज़ बस इसी बात पर मार-काट चल रही थी, अगर पूरा हिन्दुस्तान पाकिस्तान हो गया तो पूरे हिन्दू कहाँ जायेंगे।

नितेश वर्मा 

हर्फ़-ए-इश्क़

बात तब की है जब हम करीबन 14 या 15 के रहे होंगे। उस समय मैं काफ़ी हद तक मासूम और युवा दिखने लगा था और वो भी मुझसे कुछ उम्र में बड़ी दिखने लगी थी। तब उनके पिताजी ने एक दिन एतराज़ जता दिया की वो मुझसे मिलने ना आया करें और ना ही किसी हमउम्र के बच्चों के साथ बाहर निकलकर खेला करें। बात तो पहले कम ही समझ में आयी थी, फिर धीरे-धीरे लगा जैसे बात सही ही है। उस वक़्त ना तो ज्यादा पढाई-लिखाई होती और ना ही बढ़ती उम्र में लड़कियों को घर से बाहर घूमने की आजादी और जो लड़कियाँ बेबाक हो जाती उन्हें या तो समाज से निकाला कर दिया जाता या फिर उनका जनाजा उठा दिया जाता। शादी से पहले या शौहर के बदले किसी और से इश्क़ करना लगभग एक गुनाह के बराबर था और कभी-कभी ये गुनाह उनके अर्थी पर जाकर खत्म होती थी। ज़ाहिल जमाना हुआ करता था, फिर भी लोग इश्क़ किया करते थे। इश्क़ करने के लिये ताक़त की नहीं हिम्मत की जरूरत होती थी। जमाना एक तरफ खून की होली खेलता तो दूसरी तरफ़ दो जिस्म बरसात के इंतजार में टकटकी लगाए काली घटाओं को देखा करतीं। ख़ैर, मुतालबा एकबेएक बंद नहीं हुआ.. कई थप्पड़ रसीदें गए, गुंडागर्दी की गई, सरेआम जिल्लत उठानी पड़ी, बात तब जाकर खत्म हुई जब जान बंदूक की एक गोली पर जाकर टिक गयीं। समझौता हुआ, माना-मनाया गया। अक्ल के पंडों को दूर-दूर से मामला हल करने को बुलाया गया। कुछ वक़्त लगे, फिर यह तय हुआ गर्म खून है, मुतालबा तो ऐसे बंद नहीं होगा.. लड़की की शादी करा दी जाए.. दूर रहेगा.. कुछ दिनों में संभल जाएगा.. और वो भी बच्चों के हो जाने के बाद अपनी जिंदगी में मसरूफ़ हो जाएगी.. प्यार भी धीरे-धीरे जाकर दोनों भूला देंगे। तो बात चलकर यह तय हुआ कि मुहब्बत में अब मुझे रिहाई देनी होगी। लोगों का कहना था मुहब्बत रिहाई भी माँगती है मगर एक आशिक़ से माँगती है ऐसी दलीलें पहली दफ़ा सुन रहा था या उसे करने की कोशिश में लगा था। उम्र समय के साथ ढलती गई वो अब 20 की होने लगी थी और मैं अब भी उसकी गली से हर सुबह-शाम गुजर जाया करता, किसे पता है जो इश्क़ में रिहाई देता है वो ताउम्र खुद तकलीफ़ में जीता रहता है और सब सोचते है आखिर उसका गया ही क्या है।

आखिर बहुत सी कोशिशों के बाद उन लोगों की भी दुआ कुबूल कर ली गयीं। उसका निकाह पढाया जा चुका है, रूख़सती भी अगले इतवार को तय किया गया है। मुहब्बत हार गयी हालात और परिवार के आगे, एक बार फिर मुहब्बत ने एक हाथ को छोड़कर दूसरा हाथ थाम लिया। हांलाकि ये मुझे पता है की वो मुझे छोड़कर गयीं है.. मगर मेरी मुहब्बत उसकी आँखों में आज भी उतनी ही जवाँ है जितनी 6 बरस पहले हुआ करता थीं.. और शायद अगले सालों दर साल ये ऐसा ही रहेगा। हमने मुतालबा बंद किया है मुहब्बत करना नहीं, एक दूसरे के सीने में हम धड़कते रहेंगे चाहे हमारी जिस्म किसी को भी सौंप दी जाए। यही आखिरी कसम थी हमारी जो हमने साथ में एक-दूसरे के हाथों को थाम के किये थे। अब इन बातों को गुजरें लगभग 23 साल हो गए है, आज वो मिली भी थी, मगर शायद पहचान नहीं पायी, आँखों पर अब चश्मा लग गया है.. दिखता नहीं.. या मुझे देखना नहीं चाहती। या किसी की कहीं बात आज सच साबित हो रही हो, समय की दूरी ने मुहब्बत को भी मिटा दिया, समझ नहीं आता मगर वो कहते हैं ना, सच जल्दी समझ भी नहीं आता। ख़ैर बाक़ी सब ठीक है, अभी जिंदा भी हूँ और धड़कने भी बखूबी धड़क रही है। शायद कुछ है जो बाक़ी रह गया हम दोनों के दरम्यान, शायद।

नितेश वर्मा

शिकायतें

ना ही फेसबुक पर ज्यादा फ्रेंड़स हैं और ना ही इस मुख्तसर सी जिन्दगी में। गर्ल-फ्रेंड बनाने की हालांकि बहोत सी कोशिशें की मगर अब तक नाकाम ही रहा हूँ। फुरसत के वक़्त जब भी चलकर करीब आते है एक बोरियत और उबाऊ जेहन को घेर लेती है, किसी नामालूम से पते पर जैसे घंटों कोई चलती ट्रेन आकर ठहर जाती है.. बिलकुल वैसी वाली ही फिलिंग मंडराती रहतीं है.. कोई काली सी घटा बनकर जो ना तो बरसती ही है और ना ही छटती है।
तो जब भी फुरसत में होता हूँ कोई किताब लेकर बैठ जाता हूँ। कभी साहिर, कभी गुलज़ार तो कभी दिनकर, कभी निराला। ज्यादा पढता नहीं ज्यादा सीखने की कोशिश करता हूँ, मगर अकसर नाकाम होता हूं।
ऐसा बहोत बार हुआ है जब मैंने देखा है मिर्ज़ा गालिब, मीर तक़ी मीर, फ़राज़, फ़ैज, राहत इंदौरी, जावेद अख्तर और भी बहोत सारे नामचीन शायरों के शे'र को अपने नाम से लोगों को प्रकाशित करते हुए। मैं इसपर अपनी कोई टिप्पणी नहीं रखता हूँ कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए या फिर वो ऐसा करके बहोत गलत कर रहे हैं। लेकिन अगर वो उनकी शे'र को उनके नाम से पोस्ट करे तो ज्यादा बेहतर होगा। लिखने-सीखने का सिलसिला जारी रहेगा और साहित्यिक मान भी बढेगा।
अग़र आप बुरा लिखते है तो इसमें कोई बुरा नहीं, कोई भी इंसान मुकम्मल नहीं होता। सब में कोई ना कोई, कुछ ना कुछ कमी रहती ही है। मगर आप खुद को बेहतर दिखाने के लिए किसी दूसरे का कलाम अपने नाम से प्रकाशित करते है तो यह चोरी के लांछन वाले हिस्से में चला जाता है। मैं तो यह कहता हूँ, हर कलाम की प्रशंसा होनी चाहिये लेकिन कोई भी कलाम चोरी की नहीं।
उर्दू अदब के थोड़े से जानकार, जो उर्दू जुबान ना तो लिख सकते है और ना ही ढंग से बोल सकते है। शहरयार बनकर अकसर घूमा फिरते है। अब ऐसा है जैसे वो ग़ालिब की तख्ते-ए-दार पर बैठे है और वो जो कुछ भी पाद देंगे वो हवा में गालिब-ए-दीवान बनकर लिख जायेगी। ये वहीं लोग है जिन्हें अकसर दूसरों से प्रतिस्पर्धा रही है, अपनी नाकामयाबी वो दूसरे को ओछे बताकर छिपा लेते है। ये चोर बिलकुल नहीं होते, लेकिन ये पैर में फंसे उस रस्सी की तरह होते है जो तो चलने की आजादी तो देता है मगर एक दायरे में, जो दायरा उन्हें उचित लगता है। बदलते वक्त का स्वरूप उन्हें ना बदले मगर जमाना किसी 100/50 के रूक जाने से नहीं रूकने वाला। अगर आप पीछे मुड़कर देखने लगे तो यह संभव नहीं की ये जमाना भी पीछे मुड़कर देखने लगें। जब तक वक़्त था साहिर, शैलेंद्र, मजरूह इत्यादि लिखा करते थे लेकिन आज गुलज़ार, ज़ावेद, इरशाद लिखते है। आज के वक़्त के हिसाब से वहीं लिखा जा रहा है जो आज बोला जा रहा है। अगर आप शुद्ध हिन्दी भाषी या उर्दू के जानकार है तो आज के ऐसे लिखने वाले भी कई हैं। बस जरूरत यह है की आप अपने आलीशान बंगले से निकलकर दो-चार किताबें खरीद लाये उन किताबों की भीड़ में इनकी भी कोई किताब पड़ी होगी धूल खाते हुए, उन्हें आहिस्ते उठाइए वो इतनी तल्ख हो चुकी है कि अब कोई बोझ सहन नहीं कर सकती, फिर उस पर पड़ी धूल को साफ करके पढिए, आपको आपका साहिर, शैलेंद्र, मजरूह, शहरयार, प्रदीप और भी नजाने कौन-कौन मिल जाएगा। हाल आज ऐसा की कविता कवि को नहीं पाल सकती एक कवि को अपनी कविताएं पालनी है, और पेट पालने के आगे सब मजबूर होते है साहिब।
अगर आज शायद लिखा जायें "जब तूने गेंसू बिखराए बादल आए झूम-झूम के" तो यह उतना ना सुना जाये जितना "आज रात का सीन बना लें"। कसक किसी बात की नहीं है वक़्त बदले है.. तो हालात भी, साथ-साथ ख्वाहिशों भी.. सोच भी। अगर फिर भी किसी को मुश्किल है तो वो जरूर आए मुम्बई,बालीवुड.. यहाँ सबको मौका मिला है, आप बेहतरीन है आपको और भी जल्दी मिल जाएगा। आए और अपनी प्रतिभा को सारे जमाने को दिखायें, सब से उन्हें पसंद करवाये। डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, म्यूज़िक डायरेक्टर, एक्टर और भी नाजाने किस-किस को समझायें
की आपने जो लिखा है वो बहोत बेहतरीन है, यह गाना आते ही शहर में आग की तरह फैल जाएगा। और अगर यह भी नहीं कर पाए तो फिर तकिया-कलाम उठाइये, एक-आध घंटे इन गीतकारों को गरियाइये फिर कंबल तान के सो जाइये, देर से उठियेगा तो बॅास भी गरियाऐगा आपको, बोनस के साथ।
बात बस इतनी है कि जो समय की मांग है, बस उसे ही पूरा किया जा रहा है। और कुछ गाने जो शायद म्यूजिक स्लो कर दे तो आपको आपके जमाने में लेके चला जाए -
# कितने दफ़े दिल ने कहा, दिल की सुनी कितने दफे।
# अगर तुम साथ हो।
# कतरा-कतरा मैं गिरूं
# मैं तुझे बतलाता नहीं, पर अंधेरे से ड़रता हूँ मैं माँ।
# दीवानी मस्तानी हो गई।
# जी ले जरा।
# अभी मुझमें बाक़ी थोड़ी सी है ज़िंदगी।
# जब तक है जान।
# हमारी अधूरी कहानी।

नितेश वर्मा 

31 दिसम्बर 2015

इस साल से उतनी ही मुहब्बत है जितनी इस साल के जल्दी-जल्दी बीत जाने से शिकायत। कुछ ख्याल अभी जेहन से उतरकर लबों पर ठहरें ही थे कि यह सितगमर अलविदा कहकर जाने को उतारूँ हो गया। ख़ैर ख्याली पुलाव है, पकती रहेगी और पक कर खैराती भी बटेगी। जो अपना हो नहीं पाया, जो खुद में ठहर नहीं पाया, जो हर वक़्त नज़रों में चुभता रहा, जो मुझे समझ नहीं पाया, जो मुझे समझ नहीं आया, सब एक जलती टीस बनकर मुझमें बरकरार रहेगी, जाने कब तलक! पता नहीं। 2015 खुशनुमा भी रही तो कहीं बदनुमा भी रही। सफ़र बेहतरीन रहा कुछ से दुश्मनी हुई तो बहोतों से दोस्ती, किसी की यादों में रात गुजारी तो किसी की आँखों में किताब बनकर ठहर गये, जानलेवा सरप्राईज भी मिलीं, कहीं दौड़ते-भागते साँसें भी ठहर गयी। सब कुछ हुआ फिर भी बाकी बहुत कुछ रह गया इस उम्मीद में 2016 भी जीना है किसी उम्मीद में।
अब जो कसक उठी है तो तुमपर ही आकर ठहरेगी एक बार फिर से कोशिश होगी तुम्हें खुद में चुरा लेने की आखिर ये 31 दिसम्बर की रात कुछ हसीन हो तो यह दिल जाकर 2015 से मुतमईन हो। बस इंतजार है तुम्हारा, और रहेगा जाने कब तलक, पता नहीं। 2015 के बीत जाने से, 2016 के आने से यकीनन बदलेगा ये जिस्म मगर रूह वहीं रहेगी तुमसे एक हो जाने की जिद में। मिलन की आस में हाय! ये दिसम्बर भी गुजर गयीं प्यास में।

ये 31 दिसम्बर की रात आज फिर गुजर जायेगी
कहते है कि 2016 आके खुशियों से भर जायेगी।

नितेश वर्मा और 2016