Monday, 5 September 2016

बस के पिछले विंडो सीट वाली लड़की

उसको देखकर हमेशा ये लगता रहा था कि - काश! कभी वो उन बस की खिड़कियों से एक बार मेरा नाम पुकार दे, कभी उस शर्मिंदगी से परे होकर कोई चुम्बन मेरी तरफ़ उछाल दे या कभी अपनी नज़रें झुका के कोई ख़त मेरी तरफ़ गिरा दे। मैं अक्सर बेसबब उसके इंतज़ार में रहता था, उस बस के इंतज़ार में, उस खिड़की को मैं बार-बार देखना चाहता था.. जितनी बार भी वो वहाँ नज़र आएँ मैं भी वहाँ मौजूद होना चाहता था।
मुहब्बत इतनी आसान नहीं थी फ़िर भी उसका हो जाना भर सबकुछ आसान कर देता है। मेरी मुहब्बत भी कुछ ऐसी ही ढीठ तरीके की तरह थी। मैं बार-बार उसे देखता था और वो हर बार अपनी जुल्फ़ों को सुलझाती रहती थी, कभी-कभार उन जुल्फों से थक-हारकर वो उन्हें अपने कानों के पीछे ले जाकर छोड़ आती, जैसे किसी बेफ़िक्री से उसे राहत मिल गई हो। मैं शर्मीला नहीं था लेकिन डरपोक ज़रुर था, मैं उससे कई दफ़ा इश्क़-ए-इज़हार करना चाहता था मग़र उसको खो देने के डर से मैं कुछ कह नहीं पाया। ना तो तब ही हिम्मत थी और ना ही अब हुई है, हर दफ़ा ऐसे हज़ारों ख़त उसके नाम पर लिखता हूँ, लेकिन आज तक कभी भेज नहीं पाया हूँ। उससे मुहब्बत है ये बता नहीं पाया हूँ। वो फ़िर भी चली गई, मेरे इतने सजग होने के बावजूद भी, मेरे डर का उसपर कोई असर नहीं हुआ या शायद उसे जाना ही था, मैं मुहब्बत का इज़हार करता तो भी और नहीं किया तो भी। वो एक हसीन ख़्वाब है जो चले जाने के बाद भी हर रोज़ याद आ जाती है, वो बस वाली लड़की अग़र अब कहीं मिली तो साफ़-साफ़ कह दूँगा - मैं तुम्हें ताउम्र सड़क के किनारे से देख सकता हूँ, बस अब कभी मुझे ऐसे अकेला छोड़कर मत जाना।

नितेश वर्मा 

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