आपने देखा है उसे..?
उसे किसे.. और ये तुम हर वक़्त का मुझसे सवालें ना बुझाया करो, जो भी कहना है साफ़-साफ़ कहो।
अरे अम्मी! मैं और किसकी बात करूँगी और कौन है यहाँ.. ज़ारा को देखा है मैंने, वो नजाने कबसे छत को घूरे जा रही है.. और कुछ हल्के-हल्के गुनगुना भी रही है। मुझे तो कुछ गड़बड़ लगता है, आप चलकर देखिये।
मैं नहीं जा रही, उसके अब्बू आयेंगे तो वो उससे बात करेंगे अब वो मेरे वश से बाहर की बात है।
हें! ये क्या कह रहीं है आप? पता है आपको लड़कियाँ जब इस उम्र में आकर घंटों छत को देखा करें तो उसका मतलब क्या होता है?
क्या, मतलब होता है?
ये की उसके दिमाग में कुछ चल रहा है.. या तो मुहब्बत को लेकर या कोई ज़िन्न उसके शरीर में मौजूद हो गया हो।
लाहौल-बिलाक़ुव्वत ये कैसी बात कर रही हो.. ऐसे भी कोई अपनी बहन के बारे में बोलता है.. चलो दिखाओ मुझे कहाँ है वो..
आइये.. चलिये मेरे साथ जल्दी! उसे वहीं छोड़ दीजिए, अब जान थोड़े ही ना लेंगी जो चाकू लेकर चल रहीं है।
शशशश्शश! धीरे से - वो देखिये छत को देखकर कैसे गुनगुना रही है और अब तो जुल्फों को भी उंगलियों से लपेटे जा रही है, हाय-तौबा! अब आप कुछ जाकर उसे बोलेंगी। आप जाकर उसे देखिये मैं तब-तक मौलवी साहब को बुलाकर लाती हूँ
सुनो
हाँ! अब क्या है?
अपने अब्बू को भी फ़ोन कर देना मुझे तो ख़ुदा कसम बहुत डर लग रहा है। नजाने मेरी बच्ची को क्या हो गया।
ठीक है, पहले मौलवी साहब को बुला लूं।
अम्मी क़मरे में जाती है तो सुनती है ज़ारा कोई ग़ज़ल गुनगुनाएँ जा रही है -
तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था
वो क़त्ल कर के हर किसी से पूछते हैं
ये काम किस ने किया है ये काम किस का था
अम्मी ज़ारा के पास जाकर बोलती है -ज़ारा।
लेकिन ज़ारा ने कोई ज़वाब नहीं दिया और ख़ुद में मशगूल रहते हुए ग़ज़ल का अगला शे'र गुनगुनाने लगी -
वफ़ा करेंगे ,निबाहेंगे, बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था
रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा
मुक़ीम कौन हुआ है मुक़ाम किस का था
ज़ारा को इस हालत में देखकर लगभग अम्मी झल्ला गईं और जोर से चीख़ते हुए कहा -ज़ारा तुम्हें थोड़ा भी होश नहीं ये क्या कर रही हो?
ज़ारा ये सुनकर हड़बड़ा गई और तेज़ी से सोफे से उठकर बैठ गई और बड़ी मासूमियत से पूछा - क्या हुआ अम्मी?
ये सवाल तो मुझे तुमसे पूछना चाहिए था कि ये तुम सुबह से दीवार और छतों को क्यूं घूरे जा रही हो? क्या हो गया है तुम्हें? मुझे लगता है कि तुम्हारे दिमाग में अब तक उसका ख़्याल है या कुछ और?
ये कैसी बात कर रही है आप? मैंने ही उस दो कौड़ी के लड़के को मना किया था अब मैं ही उसे सोचकर मरती फ़िरूँगी.. आपसे ये किसने कह दिया। और तो और आपको कुछ पता भी है- मैंने सुना है कुछ दिनों पहले वो किसी और लड़की पर मुँह मार रहा था वो तो मैंने ठीक ही किया की उससे निक़ाह को मना कर दिया।
शर्म करो ज़ारा ये ख़्वातिनों के मुँह होते है क्या इस तरह हमारे घर की लडकियाँ बात करती है
उसे जो करना हो करें, तुम तो एक समझदार की तरह रहो।
हुम्मम।
अम्मी.. अम्मी.. मौलवी साहब आ गए?
मौलवी साहब? अभी! अभी क्यूं आएँ है? - ज़ारा ने चौंककर पूछा।
वो मैंने ही बुलाया था, मुझे कोई काम था।- अम्मी ने कहा।
पर आप कह रही थी अम्मी.. की.. मगर अम्मी ने सफ़िया को अनसुना कर दिया।
सफ़िया ज़ारा के क़मरे में ही रूक गईं।
अब तुम्हें क्या है ऐसे क्या घूर रही हो? -ज़ारा ने अपने बालों को बनाते हुए कहा।
कुछ नहीं बस यूं ही कहकर वो ज़ारा के पलंग पर लेट गई।
ज़ारा ने फ़िर अपनी छोड़ी हुई ग़ज़ल को वहीं से उठाया और दुबारा गुनगुनाने लगी-
न पूछ-ताछ थी किसी की वहाँ न आवभगत
तुम्हारी बज़्म में कल एहतमाम किस का था
हमारे ख़त के तो पुर्जे किए पढ़ा भी नहीं
सुना जो तुम ने बा-दिल वो पयाम किस का था
इन्हीं सिफ़ात से होता है आदमी मशहूर
जो लुत्फ़ आप ही करते तो नाम किस का था
सफ़िया ने ज़ारा को टोकते हुए कहा - तुम्हें पता है ज़ारा? वो आजकल क्या करने लगा है?
ज़ारा- कौन वो आवारा?
सफ़िया- अब वो ऐसा भी नहीं है। मैंने देखा है उसे हाय कितना प्यारा है।
ज़ारा- हाँ-हाँ, बको! आज क्या देख लिया तुमने उसमें।
सफ़िया- सुना है वो नौकरी करने लगा है और अब उसके घरवालों ने भी उसकी निक़ाह करने को सोचा है।
ज़ारा- तो तुम इतना क्यूं उछल रही हो? बोलो तो अब्बू से कहलवाकर तुम्हारा रिश्ता उसके घर भेज दे?
सफ़िया- हाय! ज़ारा तुम कितनी अच्छी हो। क्या तुम सचमुच में अब्बू से इसके बारे में बात करोगी?
ज़ारा- पछताओगी सफ़िया। तमाम उम्र ख़ुदको कोसती रहोगी.. उस फटीचर के पास कुछ भी नहीं.. और तो और मैंने सुना है कि कुछ दिनों पहले वो किसी और पे मुँह मार रहा था.. दोग़ला कहीं का.. पहले तो मुझसे इतनी मुहब्बत की बात कही.. वायदे किए.. और मैं जरा सा क्या मुकर गईं उसने तो अपना रंग ही बदल लिया।
सफ़िया- मुझे कुछ पता नहीं, तुम ये बताओ तुम अब्बू से मेरे लिये उसके घर रिश्ता भिजवाओगी, ना?
ज़ारा- तुम पाग़ल हो गई हो सफ़िया। क्या तुम उस लड़के से निक़ाह करोगी जिसे मैंने ठुकरा दिया हो और तुम क्या और भी कोई लड़की उससे निक़ाह क्यूं करेगी जिसे मैंने ठुकरा दिया हो। अभी तो निक़ाह कर लेंगी बाद में तमाम ज़िन्दगी रोती फिरेंगी।
सफ़िया- तुम मुझसे जलती हो ज़ारा! अग़र वो तुम्हारे लिए अच्छा नहीं तो इसका ये मतलब हरगिज़ नहीं की वो किसी के लिए अच्छा नहीं। तुम बात नहीं करोगी तो मत करो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता मैं ख़ुद अब्बू से इसके बारे में बात करूँगी।
ज़ारा- हाय अल्लाह! ये मैं क्या सुन रही हूँ। चलो मेरे क़मरे से निकलो तुम अभी।
सफ़िया- क्या हो गया है तुम्हें?
ज़ारा- चलो निकलो.. जल्दी करो और आइंदा कभी मेरे क़मरे की तरफ़ रूख़ मत करना समझी तुम?
सफ़िया- तुम होश में नहीं हो ज़ारा, कुछ सोच-समझकर बोला करो मैं तुम्हारी कोई मुलाज़िम नहीं जो जब चाहा.. जैसे जी आया इस्तेमाल कर लिया। बस बहन हूँ इसलिए चुप रह जाती हूँ, वर्ना ऐसे मुझे भी सुनाने आता है।
ज़ारा- तो जाओ ना उसे सुनाओ, जिसका मुहब्बत ये इतना सर चढ़कर बोल रहा है.. मेरे पास ये ग़म लेकर क्यूं आईं हो? मैं तुम्हारी कोई ग़मख़्वार नहीं जो तुम्हारे बोझ को हल्का कर दूंगी।
सफ़िया- हाँ तो जा रही हूँ उसी को सुनाने। ओह! देखो उसका फ़ोन भी आ गया तुम मेरे लिए बहुत लक्की हो, बाय।
ज़ारा- सफ़िया फ़ोन दो! मुझे उसका फ़ोन करना थोड़ा भी पसंद नहीं। लाओ दे दो.. ख़ामोशी से।
सफ़िया- मैं नहीं दे रही और ये फ़ोन उसने मेरे लिए किया है समझी तुम। कहकर सोफ़िया कमरे से बाहर निकल गई और ज़ारा के अधूरे ग़ज़ल को दुहराने लगी-
तमाम बज़्म जिसे सुन के रह गई मुश्ताक़
कहो, वो तज़्किरा-ए-नातमाम किसका था
गुज़र गया वो ज़माना कहें तो किस से कहें
ख़याल मेरे दिल को सुबह-ओ-शाम किस का था
सफ़िया के इस बर्ताव से ज़ारा झल्ला उठीं और सामने रखा गुलदान उठाकर सफ़िया के दरवाज़े पर दे मारा पूरे क़मरे में शीशे के टुकड़े बिखर गए। सफ़िया हैरान हो गई और ज़ारा फिर से अपनी ग़ज़ल के शुरुआती शे'र को दुहराते हुए अपने क़मरे में चली गयी -
तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था
वो क़त्ल कर के हर किसी से पूछते हैं
ये काम किस ने किया है ये काम किस का था।
नितेश वर्मा
उसे किसे.. और ये तुम हर वक़्त का मुझसे सवालें ना बुझाया करो, जो भी कहना है साफ़-साफ़ कहो।
अरे अम्मी! मैं और किसकी बात करूँगी और कौन है यहाँ.. ज़ारा को देखा है मैंने, वो नजाने कबसे छत को घूरे जा रही है.. और कुछ हल्के-हल्के गुनगुना भी रही है। मुझे तो कुछ गड़बड़ लगता है, आप चलकर देखिये।
मैं नहीं जा रही, उसके अब्बू आयेंगे तो वो उससे बात करेंगे अब वो मेरे वश से बाहर की बात है।
हें! ये क्या कह रहीं है आप? पता है आपको लड़कियाँ जब इस उम्र में आकर घंटों छत को देखा करें तो उसका मतलब क्या होता है?
क्या, मतलब होता है?
ये की उसके दिमाग में कुछ चल रहा है.. या तो मुहब्बत को लेकर या कोई ज़िन्न उसके शरीर में मौजूद हो गया हो।
लाहौल-बिलाक़ुव्वत ये कैसी बात कर रही हो.. ऐसे भी कोई अपनी बहन के बारे में बोलता है.. चलो दिखाओ मुझे कहाँ है वो..
आइये.. चलिये मेरे साथ जल्दी! उसे वहीं छोड़ दीजिए, अब जान थोड़े ही ना लेंगी जो चाकू लेकर चल रहीं है।
शशशश्शश! धीरे से - वो देखिये छत को देखकर कैसे गुनगुना रही है और अब तो जुल्फों को भी उंगलियों से लपेटे जा रही है, हाय-तौबा! अब आप कुछ जाकर उसे बोलेंगी। आप जाकर उसे देखिये मैं तब-तक मौलवी साहब को बुलाकर लाती हूँ
सुनो
हाँ! अब क्या है?
अपने अब्बू को भी फ़ोन कर देना मुझे तो ख़ुदा कसम बहुत डर लग रहा है। नजाने मेरी बच्ची को क्या हो गया।
ठीक है, पहले मौलवी साहब को बुला लूं।
अम्मी क़मरे में जाती है तो सुनती है ज़ारा कोई ग़ज़ल गुनगुनाएँ जा रही है -
तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था
वो क़त्ल कर के हर किसी से पूछते हैं
ये काम किस ने किया है ये काम किस का था
अम्मी ज़ारा के पास जाकर बोलती है -ज़ारा।
लेकिन ज़ारा ने कोई ज़वाब नहीं दिया और ख़ुद में मशगूल रहते हुए ग़ज़ल का अगला शे'र गुनगुनाने लगी -
वफ़ा करेंगे ,निबाहेंगे, बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था
रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा
मुक़ीम कौन हुआ है मुक़ाम किस का था
ज़ारा को इस हालत में देखकर लगभग अम्मी झल्ला गईं और जोर से चीख़ते हुए कहा -ज़ारा तुम्हें थोड़ा भी होश नहीं ये क्या कर रही हो?
ज़ारा ये सुनकर हड़बड़ा गई और तेज़ी से सोफे से उठकर बैठ गई और बड़ी मासूमियत से पूछा - क्या हुआ अम्मी?
ये सवाल तो मुझे तुमसे पूछना चाहिए था कि ये तुम सुबह से दीवार और छतों को क्यूं घूरे जा रही हो? क्या हो गया है तुम्हें? मुझे लगता है कि तुम्हारे दिमाग में अब तक उसका ख़्याल है या कुछ और?
ये कैसी बात कर रही है आप? मैंने ही उस दो कौड़ी के लड़के को मना किया था अब मैं ही उसे सोचकर मरती फ़िरूँगी.. आपसे ये किसने कह दिया। और तो और आपको कुछ पता भी है- मैंने सुना है कुछ दिनों पहले वो किसी और लड़की पर मुँह मार रहा था वो तो मैंने ठीक ही किया की उससे निक़ाह को मना कर दिया।
शर्म करो ज़ारा ये ख़्वातिनों के मुँह होते है क्या इस तरह हमारे घर की लडकियाँ बात करती है
उसे जो करना हो करें, तुम तो एक समझदार की तरह रहो।
हुम्मम।
अम्मी.. अम्मी.. मौलवी साहब आ गए?
मौलवी साहब? अभी! अभी क्यूं आएँ है? - ज़ारा ने चौंककर पूछा।
वो मैंने ही बुलाया था, मुझे कोई काम था।- अम्मी ने कहा।
पर आप कह रही थी अम्मी.. की.. मगर अम्मी ने सफ़िया को अनसुना कर दिया।
सफ़िया ज़ारा के क़मरे में ही रूक गईं।
अब तुम्हें क्या है ऐसे क्या घूर रही हो? -ज़ारा ने अपने बालों को बनाते हुए कहा।
कुछ नहीं बस यूं ही कहकर वो ज़ारा के पलंग पर लेट गई।
ज़ारा ने फ़िर अपनी छोड़ी हुई ग़ज़ल को वहीं से उठाया और दुबारा गुनगुनाने लगी-
न पूछ-ताछ थी किसी की वहाँ न आवभगत
तुम्हारी बज़्म में कल एहतमाम किस का था
हमारे ख़त के तो पुर्जे किए पढ़ा भी नहीं
सुना जो तुम ने बा-दिल वो पयाम किस का था
इन्हीं सिफ़ात से होता है आदमी मशहूर
जो लुत्फ़ आप ही करते तो नाम किस का था
सफ़िया ने ज़ारा को टोकते हुए कहा - तुम्हें पता है ज़ारा? वो आजकल क्या करने लगा है?
ज़ारा- कौन वो आवारा?
सफ़िया- अब वो ऐसा भी नहीं है। मैंने देखा है उसे हाय कितना प्यारा है।
ज़ारा- हाँ-हाँ, बको! आज क्या देख लिया तुमने उसमें।
सफ़िया- सुना है वो नौकरी करने लगा है और अब उसके घरवालों ने भी उसकी निक़ाह करने को सोचा है।
ज़ारा- तो तुम इतना क्यूं उछल रही हो? बोलो तो अब्बू से कहलवाकर तुम्हारा रिश्ता उसके घर भेज दे?
सफ़िया- हाय! ज़ारा तुम कितनी अच्छी हो। क्या तुम सचमुच में अब्बू से इसके बारे में बात करोगी?
ज़ारा- पछताओगी सफ़िया। तमाम उम्र ख़ुदको कोसती रहोगी.. उस फटीचर के पास कुछ भी नहीं.. और तो और मैंने सुना है कि कुछ दिनों पहले वो किसी और पे मुँह मार रहा था.. दोग़ला कहीं का.. पहले तो मुझसे इतनी मुहब्बत की बात कही.. वायदे किए.. और मैं जरा सा क्या मुकर गईं उसने तो अपना रंग ही बदल लिया।
सफ़िया- मुझे कुछ पता नहीं, तुम ये बताओ तुम अब्बू से मेरे लिये उसके घर रिश्ता भिजवाओगी, ना?
ज़ारा- तुम पाग़ल हो गई हो सफ़िया। क्या तुम उस लड़के से निक़ाह करोगी जिसे मैंने ठुकरा दिया हो और तुम क्या और भी कोई लड़की उससे निक़ाह क्यूं करेगी जिसे मैंने ठुकरा दिया हो। अभी तो निक़ाह कर लेंगी बाद में तमाम ज़िन्दगी रोती फिरेंगी।
सफ़िया- तुम मुझसे जलती हो ज़ारा! अग़र वो तुम्हारे लिए अच्छा नहीं तो इसका ये मतलब हरगिज़ नहीं की वो किसी के लिए अच्छा नहीं। तुम बात नहीं करोगी तो मत करो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता मैं ख़ुद अब्बू से इसके बारे में बात करूँगी।
ज़ारा- हाय अल्लाह! ये मैं क्या सुन रही हूँ। चलो मेरे क़मरे से निकलो तुम अभी।
सफ़िया- क्या हो गया है तुम्हें?
ज़ारा- चलो निकलो.. जल्दी करो और आइंदा कभी मेरे क़मरे की तरफ़ रूख़ मत करना समझी तुम?
सफ़िया- तुम होश में नहीं हो ज़ारा, कुछ सोच-समझकर बोला करो मैं तुम्हारी कोई मुलाज़िम नहीं जो जब चाहा.. जैसे जी आया इस्तेमाल कर लिया। बस बहन हूँ इसलिए चुप रह जाती हूँ, वर्ना ऐसे मुझे भी सुनाने आता है।
ज़ारा- तो जाओ ना उसे सुनाओ, जिसका मुहब्बत ये इतना सर चढ़कर बोल रहा है.. मेरे पास ये ग़म लेकर क्यूं आईं हो? मैं तुम्हारी कोई ग़मख़्वार नहीं जो तुम्हारे बोझ को हल्का कर दूंगी।
सफ़िया- हाँ तो जा रही हूँ उसी को सुनाने। ओह! देखो उसका फ़ोन भी आ गया तुम मेरे लिए बहुत लक्की हो, बाय।
ज़ारा- सफ़िया फ़ोन दो! मुझे उसका फ़ोन करना थोड़ा भी पसंद नहीं। लाओ दे दो.. ख़ामोशी से।
सफ़िया- मैं नहीं दे रही और ये फ़ोन उसने मेरे लिए किया है समझी तुम। कहकर सोफ़िया कमरे से बाहर निकल गई और ज़ारा के अधूरे ग़ज़ल को दुहराने लगी-
तमाम बज़्म जिसे सुन के रह गई मुश्ताक़
कहो, वो तज़्किरा-ए-नातमाम किसका था
गुज़र गया वो ज़माना कहें तो किस से कहें
ख़याल मेरे दिल को सुबह-ओ-शाम किस का था
सफ़िया के इस बर्ताव से ज़ारा झल्ला उठीं और सामने रखा गुलदान उठाकर सफ़िया के दरवाज़े पर दे मारा पूरे क़मरे में शीशे के टुकड़े बिखर गए। सफ़िया हैरान हो गई और ज़ारा फिर से अपनी ग़ज़ल के शुरुआती शे'र को दुहराते हुए अपने क़मरे में चली गयी -
तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था
वो क़त्ल कर के हर किसी से पूछते हैं
ये काम किस ने किया है ये काम किस का था।
नितेश वर्मा
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