उसे नहीं पता था इस तरह चलकर वो आख़िर कहाँ तक पहुंचेगी.. और कहीं पहुंचेगी भी या नहीं, उसे कुछ पता नहीं था मग़र अब वो रुकना नहीं चाहती थी। वो नहीं चाहती थी कि उसे फ़िर कोई उसी दलदल में घसीट कर ले जाएं जिससे अभी-अभी किसी तरह से वो जान बचाकर भाग आयी है। वो अब नहीं चाहती थी कि वो कभी पीछे मुड़कर देखें और वैसे भी पीछे मुड़कर देखने पर अक़सर रुसवाईयाँ ही हाथ आती है, और कुछ नहीं।
रात हो चुकी थी और रात में ऐसे लड़की का सड़क पर अकेले होना मुनासिब नहीं, चाहें वो किसी भी परिस्थिति में हो उससे भी ज्यादा हालात से मारे कुछ लोग अपनी तलब और इच्छा को लेकर उससे अपना काम निकलवाना जानते हैं। वो भले से उम्र में अभी सोलवहाँ सावन नहीं देख पायी थी, मग़र उसे इन सभी चीज़ों का इल्म अब तक हो चुका था। वो अब ज्यादा भाग नहीं सकती थी, पेट के आग ने उसे वही सड़क किनारे एक कोने पर बिठा दिया। पहले तो रुककर बहुत हाँफ़ना चाहती थी, फ़िर रोना चाहती थी, फ़िर उस दरवाज़े पर बाहर से ताला लगवाना चाहती थी जो उसने अक़सर सुबह में अंदर से लगते हुए देखा था। मग़र अभी कुछ भी उसके मुताबिक़ नहीं था, इसलिए वो फिर उठकर चलने लगी। थोड़ी दूर चलने पर पता चला ये दिल्ली शहर है और दिल्ली में आजकल लोग काफ़ी संवेदनशील होने लगे हैं। मदद की गुंजाइश थी और उसने गुहार भी लगा दी - कोई मेरी मदद करो।
मदद तो नहीं अलबत्ता एक राहगीर उसकी तरफ़ चला आया।
क्या मदद चाहिए आपको?
मुझे बहुत भूख लगी है, कुछ खाने को मिल जाएं तो आपकी बहुत कृपा होगी।
ये दिल्ली है, यहाँ मुफ़्त में कुछ नहीं मिलता। अग़र मैं तुम्हें खाना दूं तो तुम मुझे क्या दोगी?
उसने कुछ नहीं कहा, बस ख़ामोश रही। अक़सर ख़ामोशी ही कई बार कई सवालों का हल होता है, ख़ामोशी से ही कोई राह निकल आती है। मग़र उसकी ख़ामोशी ने कुछ असर नहीं किया।
फ़िर से वही सवाल - उम्म्म! तुम बदले में क्या दोगी मुझे।
उसने कुछ नहीं कहा और फ़िर ख़ुदको सँभालकर भागने लगी, कुछ दूर तक उस राहगीर ने उसका पीछा किया फ़िर जब देखा कि वो किसी चुनावी पार्टी के कस्बे में पहुँच गई है तो वो लौट गया।
वो रुककर हाँफ़ने लगी, कुछ देर बाद नज़र उठाकर देखा तो एक नौजवान लड़का उसके सामने खड़ा था। उसने उसे देखा और उसके हाथ से बोतल छीनकर पीने लगी, जब प्यास बुझ गईं तो फ़िर बोतल उस लड़के के मुँह पर मारा और भागने लगी, लड़के ने उसका पीछा नहीं किया बोतल उठाई और फ़िर वो अपनी पार्टी की तरफ़ लौट गया।
कुछ देर और भागते-भागते वो एक कार से जाकर टकरा गईं और बेहोश हो गई। होश जब आयी तो उसने ख़ुद को एक खंडहर में पाया, कपड़े सही-सलामत थे। पहले पूरा बदन साफ़ किया फ़िर कपड़े उठाकर पहने और ख़ुद को सँभालती पुलिस चौकी पहुंच गई। थानेदार साहब नहीं थे, इंतज़ार करना पड़ा। ख़ैर और कोई काम भी नहीं था तो उसने इंतज़ार किया। सुबह से शाम हो गई थानेदार साहब नहीं आएँ। रात के क़रीबन 10 बजे मुलाक़ात हुई। थानेदार ने बात सुनी और दो-चार गाली देकर उसे थाने से बाहर करवा दिया। वो रोती हुई फ़िर बाहर आ गई।
सुबह से रात तक पूरा दिन बिताने के बाद जब वो बाहर आयी तो लगभग चौंक सी गई। समाचार में ख़बर आ रही थी कि एक सामाजिक संस्था ने कुछ लड़कियों को उस दलदल से बचा निकाला है, जहाँ ज़बरन उन्हें देह व्यापार करना पड़ता था, उन्हें यातनाएं दी जाती थी। इन संस्थाओं का उद्देश्य ही स्त्री-रक्षा है, स्त्रियों के सम्मान में ही देश का सम्मान है।
यह सब सुनकर वो अपना होश खो बैठीं और सड़क किनारे पड़े पत्थर को उठाकर टीवी पर मारने लगी। लोगों ने भी भरपूर ज़वाब दिया और उसे अधमरा कर दिया, बाद में किसी बुजुर्ग ने सुझाया बेचारी पाग़ल है, छोड़ दो उसे। उसे अच्छे-बुरे का फ़र्क़ नहीं है इसलिए ऐसा कर रही है। लोगों ने भी यह कहानी सुनकर कुछ रहम दिखाई और तरस खाकर उसे छोड़ दिया।
वो उठकर अब बैठ चुकी थी, उसे अब समझ आ चुका था वो पहले कमरे में कैद थी जहाँ हर रोज़ ज़िस्म बेचने पर पेट पल जाया करती थी और अब इस पुरुष-प्रधान समाज में कैद है जहाँ हर रोज़ ख़ुदको बेचकर भी वो एक न्याय नहीं ले सकती। वो हताश हो चली थी, सामने से बच्चे उसे पगली-पगली बुला रहे थे, कुछ इज्जतदार लड़कियां उसके मुँह पर ईटें फ़ेंककर उसका बहिष्कार कर रही थी, तो कुछ बड़े-बुजुर्ग उसपर थूकते और आगे बढ़ जाते।
अब वो लौट जाना चाहती थी जहाँ से वो ख़ुद को बचाकर यहाँ ग़लती से ले आईं थी, एक उम्मीद से कि कमसेकम कुछ लोग यहाँ होंगे जो उसके दर्द को अपना समझकर उसके लिए कुछ करेंगे, मगर वो ग़लत थी। और गलतियों का समाधान अकसर लौट जाना ही होता है, ये उसे पता था। अब वो उठकर फ़िर से उसी जहन्नुम में जाने को तैयार हो गई थी। इस कोलाहल को देखकर थानेदार की गाड़ी वहाँ नज़र भर को रुकी। मामलात जानने के बाद पूछा -कौन है वो?
ज़वाब आया- पगलिया है साहब!
उसने मुड़कर पीछे भी नहीं देखा और ख़ुद को किसी तरह घसीटते सड़क पर भागी जा रही थी किसी और जहन्नुम में जाने को मग़र इस जहन्नुम से दूर.. बहुत दूर।
बच्चे अभी भी पगलिया-पगलिया चिल्ला रहे थे, थानेदार साहब की गाड़ी ने सायरन दिया और फिर तेज़ी से निकल गई। सुबह के थके कुछ लोग उस पगलिया के पीछे हो लिए।
नितेश वर्मा
रात हो चुकी थी और रात में ऐसे लड़की का सड़क पर अकेले होना मुनासिब नहीं, चाहें वो किसी भी परिस्थिति में हो उससे भी ज्यादा हालात से मारे कुछ लोग अपनी तलब और इच्छा को लेकर उससे अपना काम निकलवाना जानते हैं। वो भले से उम्र में अभी सोलवहाँ सावन नहीं देख पायी थी, मग़र उसे इन सभी चीज़ों का इल्म अब तक हो चुका था। वो अब ज्यादा भाग नहीं सकती थी, पेट के आग ने उसे वही सड़क किनारे एक कोने पर बिठा दिया। पहले तो रुककर बहुत हाँफ़ना चाहती थी, फ़िर रोना चाहती थी, फ़िर उस दरवाज़े पर बाहर से ताला लगवाना चाहती थी जो उसने अक़सर सुबह में अंदर से लगते हुए देखा था। मग़र अभी कुछ भी उसके मुताबिक़ नहीं था, इसलिए वो फिर उठकर चलने लगी। थोड़ी दूर चलने पर पता चला ये दिल्ली शहर है और दिल्ली में आजकल लोग काफ़ी संवेदनशील होने लगे हैं। मदद की गुंजाइश थी और उसने गुहार भी लगा दी - कोई मेरी मदद करो।
मदद तो नहीं अलबत्ता एक राहगीर उसकी तरफ़ चला आया।
क्या मदद चाहिए आपको?
मुझे बहुत भूख लगी है, कुछ खाने को मिल जाएं तो आपकी बहुत कृपा होगी।
ये दिल्ली है, यहाँ मुफ़्त में कुछ नहीं मिलता। अग़र मैं तुम्हें खाना दूं तो तुम मुझे क्या दोगी?
उसने कुछ नहीं कहा, बस ख़ामोश रही। अक़सर ख़ामोशी ही कई बार कई सवालों का हल होता है, ख़ामोशी से ही कोई राह निकल आती है। मग़र उसकी ख़ामोशी ने कुछ असर नहीं किया।
फ़िर से वही सवाल - उम्म्म! तुम बदले में क्या दोगी मुझे।
उसने कुछ नहीं कहा और फ़िर ख़ुदको सँभालकर भागने लगी, कुछ दूर तक उस राहगीर ने उसका पीछा किया फ़िर जब देखा कि वो किसी चुनावी पार्टी के कस्बे में पहुँच गई है तो वो लौट गया।
वो रुककर हाँफ़ने लगी, कुछ देर बाद नज़र उठाकर देखा तो एक नौजवान लड़का उसके सामने खड़ा था। उसने उसे देखा और उसके हाथ से बोतल छीनकर पीने लगी, जब प्यास बुझ गईं तो फ़िर बोतल उस लड़के के मुँह पर मारा और भागने लगी, लड़के ने उसका पीछा नहीं किया बोतल उठाई और फ़िर वो अपनी पार्टी की तरफ़ लौट गया।
कुछ देर और भागते-भागते वो एक कार से जाकर टकरा गईं और बेहोश हो गई। होश जब आयी तो उसने ख़ुद को एक खंडहर में पाया, कपड़े सही-सलामत थे। पहले पूरा बदन साफ़ किया फ़िर कपड़े उठाकर पहने और ख़ुद को सँभालती पुलिस चौकी पहुंच गई। थानेदार साहब नहीं थे, इंतज़ार करना पड़ा। ख़ैर और कोई काम भी नहीं था तो उसने इंतज़ार किया। सुबह से शाम हो गई थानेदार साहब नहीं आएँ। रात के क़रीबन 10 बजे मुलाक़ात हुई। थानेदार ने बात सुनी और दो-चार गाली देकर उसे थाने से बाहर करवा दिया। वो रोती हुई फ़िर बाहर आ गई।
सुबह से रात तक पूरा दिन बिताने के बाद जब वो बाहर आयी तो लगभग चौंक सी गई। समाचार में ख़बर आ रही थी कि एक सामाजिक संस्था ने कुछ लड़कियों को उस दलदल से बचा निकाला है, जहाँ ज़बरन उन्हें देह व्यापार करना पड़ता था, उन्हें यातनाएं दी जाती थी। इन संस्थाओं का उद्देश्य ही स्त्री-रक्षा है, स्त्रियों के सम्मान में ही देश का सम्मान है।
यह सब सुनकर वो अपना होश खो बैठीं और सड़क किनारे पड़े पत्थर को उठाकर टीवी पर मारने लगी। लोगों ने भी भरपूर ज़वाब दिया और उसे अधमरा कर दिया, बाद में किसी बुजुर्ग ने सुझाया बेचारी पाग़ल है, छोड़ दो उसे। उसे अच्छे-बुरे का फ़र्क़ नहीं है इसलिए ऐसा कर रही है। लोगों ने भी यह कहानी सुनकर कुछ रहम दिखाई और तरस खाकर उसे छोड़ दिया।
वो उठकर अब बैठ चुकी थी, उसे अब समझ आ चुका था वो पहले कमरे में कैद थी जहाँ हर रोज़ ज़िस्म बेचने पर पेट पल जाया करती थी और अब इस पुरुष-प्रधान समाज में कैद है जहाँ हर रोज़ ख़ुदको बेचकर भी वो एक न्याय नहीं ले सकती। वो हताश हो चली थी, सामने से बच्चे उसे पगली-पगली बुला रहे थे, कुछ इज्जतदार लड़कियां उसके मुँह पर ईटें फ़ेंककर उसका बहिष्कार कर रही थी, तो कुछ बड़े-बुजुर्ग उसपर थूकते और आगे बढ़ जाते।
अब वो लौट जाना चाहती थी जहाँ से वो ख़ुद को बचाकर यहाँ ग़लती से ले आईं थी, एक उम्मीद से कि कमसेकम कुछ लोग यहाँ होंगे जो उसके दर्द को अपना समझकर उसके लिए कुछ करेंगे, मगर वो ग़लत थी। और गलतियों का समाधान अकसर लौट जाना ही होता है, ये उसे पता था। अब वो उठकर फ़िर से उसी जहन्नुम में जाने को तैयार हो गई थी। इस कोलाहल को देखकर थानेदार की गाड़ी वहाँ नज़र भर को रुकी। मामलात जानने के बाद पूछा -कौन है वो?
ज़वाब आया- पगलिया है साहब!
उसने मुड़कर पीछे भी नहीं देखा और ख़ुद को किसी तरह घसीटते सड़क पर भागी जा रही थी किसी और जहन्नुम में जाने को मग़र इस जहन्नुम से दूर.. बहुत दूर।
बच्चे अभी भी पगलिया-पगलिया चिल्ला रहे थे, थानेदार साहब की गाड़ी ने सायरन दिया और फिर तेज़ी से निकल गई। सुबह के थके कुछ लोग उस पगलिया के पीछे हो लिए।
नितेश वर्मा
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