बड़े ख़ामोश रहते हो.. ऐसे कैसे कटेगा सफ़र?
-नहीं तो।
अच्छा! फ़िर मुझे ये बताओ कि तुम्हारी कोई गर्ल-फ्रेंड है?
-नहीं।
अरे! इस उम्र में तो सबकी गर्ल-फ्रेंड होती है, तुम्हारी कैसे नहीं है? अब है.. तो बता भी दो फिर मुझसे क्या शर्माना।
-होती तो जरूर बताता तुम्हें।
चलो, नहीं है तो फिर बना लो?
-नहीं रहने दो। ये कोई चीज़ नहीं.. जो नहीं हैं और जब जरूरत हुई तो बना ली। कुछ चीजें एहसास में ही रहे तो अच्छा है। मुहब्बत कोई पा लेने का नाम नहीं, मुहब्बत में होकर उससे गुजरते रहो बस यहीं काफ़ी है।
बातें तो बहुत कमाल की किया करते हो, कोई भी सुने तो दीवाना बन बैठे।
-हुम्म्म्म। बस यहीं रोक दो, यहाँ से बहुत क़रीब है मेरा मक़ान।
यहाँ?
-हाँ, यहीं किनारे।
लेकिन यहाँ ना तो कोई बस्ती है और ना ही कोई शहर नज़र आता है?
-हाँ, लेकिन इस रेगिस्तान के ठीक पीछे से एक नदी गुजरती है और उसके बाद मिलता है हमें अपने गाँव जाने का रास्ता। अग़र शहर के चक्कर लगाकर जाएं तो पूरी दिन लग जायेगी और फिर वहाँ से उस पार जाने के लिए कोई नाव भी नहीं मिलेगी, तुम यहीं रोक दो।
लेकिन तुम चाहो तो आज मेरे साथ मेरे घर पर रूक सकते हो।
-नहीं आज नहीं.. लेकिन फिर कभी जरूर।
बाय!
-ख़ुदा हाफ़िज।
ओके।
गाड़ी से उतरने के बाद वली सीधा रेगिस्तान के बीचोंबीच से होकर उसे पार करने लगा और उसे इस तरह रेगिस्तान में निर्भीक चलता हुआ देखकर.. माहम ने तबतक अपनी गाड़ी आगे नहीं बढ़ाईं जब तक वो उसकी आँखों से ओझल ना हो गया।
शाम अब कुछ ही देर में ढ़लने वाली थी.. माहम को अचानक कुछ ख़याल हुआ और उसने गाड़ी आगे बढ़ा दी।
थोड़ी देर बाद.. अज़ान की आवाज़ ने लगभग पूरे रेगिस्तान को घेर लिया। वली अब नदी किनारे आ चुका था। कुछ लोग दौड़ते हुए वली की तरफ़ आएँ.. उनके हाथों में बंदूक थी। वली उनकी तरफ़ बढ़ता चला गया और जाकर पूछा - हाँ, बताओ क्या बात है?
कुछ नहीं वली साहब!
इतनी शाम हो चुकी थी और आप अभी तक नहीं आये थे, इसलिए हम सब घबरा गए थे। अभी हम आपको ढूंढने के लिए निकलने ही वाले थे..
-ख़बरदार! जो तुमलोगों ने अपने दिमाग़ का थोड़ा भी इस्तेमाल किया। तुम लोगों को पता नहीं.. माहम हमारे लिए कितनी जरूरी है और वो जब तुम लोगों ऐसे लिबास में मेरे साथ देखेगी तो फ़िर सब किये-धरे पर पानी फिर जायेगा। अब मुँह लटकाकर क्या सोच रहे हों जाओ मेरे वुजू का इंतज़ाम करो।
जी छोटे मालिक अभी करते हैं।
-और दानियाल साहब आप रूकिये। कोई ख़बर मिलीं?
नहीं। मग़र हमने सब लड़को को काम पर लगा दिया है, ज़ल्द ही ख़बर मिल जायेगी। मैं ये सोच रहा था.. अग़र आप बुरा ना माने तो..
-हाँ-हाँ, बताइये। आप हमारे ख़ानदानी सलाहकार है.. आपको इतना हिचकना नहीं चाहिए और हम बस आपको अपने परिवार का हिस्सा कहते नहीं बल्कि मानते भी है।
जी, मैं वो सोच रहा था कि.. अगर आप कहें तो क्या हम कमीशनर से इसके बारे में बात करे?
-नहीं-नहीं दानियाल साहब! फिलहाल इसे ख़ुद से देखिये। मामला आगे बढ़ा तो बहुत नुकसान हो सकता है हमारा।
जी, बहुत बढ़िया जैसा आपका हुक़्म।
छोटे मालिक नमाज़ करने का सब इंतज़ाम हो चुका है।
-हुम्म्म्म। ठीक है! तुम चलो.. मैं आता हूँ।
दानियाल साहब! आप कल बड़े दरबार होकर आइये.. देखिये मेरी फ़िक्र मत कीजिए मैं यहाँ पर ठीक हूँ। आप जाकर वहाँ से एक-बार पता लगाइये। शायद कुछ हाथ लग जाए। अब इज़ाजत दीजिए।
जी! मैं कलके जाने का इंतज़ाम करता हूँ। और 2/3 दिन में लौटकर आने की भी पूरी कोशिश करूँगा।
अगली सुबह.. रेगिस्तान के सामने
सड़क किनारे..
वली नाम बताया था ना तुमने?
-हाँ।
तो तुम कल ख़ैरियत से पहुँच गये थे अपने गाँव?
-हाँ। तुम्हारा बहुत शुक्रिया। वर्ना इस अंज़ाने से शहर में कौन हम गांव के लोगों की मदद करता है?
वो तो है। मैं कुछ ज्यादा ही नेक़दिल इंसान हूँ।
तो आज फिर नौकरी ढूंढने आये हो?
-हाँ! उसी कोशिश में हूँ।
हुम्म्म्म। अपने डाक्यूमेंट्स दिखाओ, शायद मैं कुछ मदद कर सकूँ।
-वो तो.. मैं नहीं लाया।
लो जी! ज़नाब नौकरी ढूंढने निकले है और साथ में कोई डाक्यूमेंट्स भी नहीं।
अच्छा! ये बताओ पढ़ाई कहाँ तक की है तुमने?
-ज्यादा नहीं। मास्टर्स किया है एकाउंटेंसी में।
हुम्म्म्म। मिल जायेगी तुम्हें फिर कल नौकरी। अपने डाक्यूमेन्ट्स साथ लेते आना।
-ठीक है।
अरे! बस ठीक है। मैंने कल तुम्हारे नौकरी लगने की बात की है और तुम बस ठीक है कहकर बच निकलना चाहते हो। मेरे साथ चुपचाप गाड़ी में बैठो। तुम्हें तो पार्टी देनी पड़ेगी।
अब इतना घबराओ मत.. आ जाओ.. मुझे पता है तुम्हारे पास पैसे नहीं है। इसलिए आज जो भी ख़र्च होगा वो मैं दे दूंगी जब तुम्हें अपनी पग़ार मिल जाये तो मुझे वापस कर देना। अब चलो जल्दी।
और बताओ क्या करते हो तुम ये नौकरी ढूंढने के अलावा?
-कुछ नहीं। थोड़ा -बहुत म्यूज़िक का शौक है और कभी-कभार सर्दियों की रात में अपनी डायरी में कुछ लिख लेता हूँ।
ओहो! तो ज़नाब शायर है। फिर सुनाओ कुछ?
-हुम्म..
इन इबादतों में तेरा जिक्र क्या
ये अब्र क्या है ये हवा क्या
मुहब्बत की गुस्ताख़ किताब
ये हर्फ़ क्या है ये मिज़ाज क्या
कोई जलती चिंगारी थी मुझमें
बारिश के बाद हुआ हश्र क्या
दामन जिसका छूटता ही नहीं
वो ना मिला तो फिर गिला क्या
सहमीं सी निगाहों का कुसूर है
वर्ना ये दर्द क्या है ये दवा क्या
इन इबादतों में तेरा जिक्र क्या
ये अब्र क्या है ये हवा क्या।
वाव्व! टू गुड़। इट्स योर?
-पुरानी सी है।
अच्छी है लेकिन। चलो आ गया, अब उतरो।
-ये कहाँ ले आई हो तुम?
मुझे पता है। अब कुछ और ना पूछो मुझसे और चुपचाप चलो। अभी तो पूरी दिन गुजारनी है.. और तुम्हारा ये सवाल-जवाब अभी से ही शुरु हो गया।
शाम का वक़्त.. ढ़लता हुआ सूरज..
रेगिस्तान के किनारे रूकी हुई माहम की गाड़ी।
आज चाहो तो तुम चल सकते हो मेरे साथ मेरे घर।
-और डॅाक्यूमेंट्स?
हाँ-हाँ! मैं तो भूल ही गई थी.. इन सब चक्करों के बीच।
वली एक बात बताऊँ? तुम्हें देर तो नहीं हो रही है ना?
-नहीं..नहीं.. बताओ।
वली! मेरे दादा अबुल हामिद है। शायद ऐसा हो सकता है कि तुमने इनका नाम अख़बारों या न्यूज़ चैनलों में सुना हो। वे एक बड़े से रियासत के मालिक है और मैं उनकी इकलौती पोती हूँ। अब्बू के इंतक़ाल के बाद मेरे दादा ही मेरे लिए सबकुछ रहे हैं और नाजाने अब ऐसा क्यूं लग रहा है कि मैं तुम्हें चाहने लगी हूँ। देखो ये तुम्हारे लिए अज़ीब हो सकता है.. कि एक दिन पहले मिले शख़्स से बिना जाने-पहचाने कोई कैसे मुहब्बत कर सकता है। मग़र मेरी मानो तो यही सच है। मैं ज्यादा इंतज़ार भी नहीं कर सकती थी.. कि इस मुहब्बत को कुछ दिनों तक समझूं और जब एहसास हक़ीकत में बदले तो फिर बयां करूँ। कुछ दिनों बाद मेरी मँगनी होने वाली है और शायद मैं इन सबसे दूर निकलने के लिए तुम्हारे मुहब्बत में क़ैद हो गई हूँ। मुझे वो कल शाम तुम्हारा.. यूं इस रेगिस्तानी टीले को पार करके अपने गाँव जाना.. ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई मेरी ही सफ़र कर रहा हो और मैं धीरे-धीरे इस जुल्म के दुनिया से कहीं दूर चली जा रही हूँ.. दूर.. बहुत दूर।
-माहम! मैं ये सब जानता हूँ.. और मुझे ये भी पता है कि जिससे तुम्हारी मँगनी तय हुई है वो तुम्हारे ख़ाले का लड़का है। उससे तुम्हें सख़्त नफ़रत है। उसने अपने चेहरे पर एक मुखौटा लगाकर तुम्हारे दादा को इसके लिए राज़ी करवाया है।
इतने हैरान होने की कोई जरूरत नहीं है। मैं भी तुमसे प्यार करता हूँ और मैं तुमसे कुछ छिपाऊँगा भी नहीं। माहम! मैं वली हूँ.. वही वली जिससे तक़रीबन 17 साल पहले तुम्हारी मँगनी हुई थी। तब तुम्हारे दादा ने मेरे दादा के साथ मिलकर बड़े हवेली के पीछे हमारी मँगनी करवाईं थी।
तुम झूठ बोल रहे हो! तुम वो वली नहीं हो सकते। ख़ुदा की कसम.. एक बार बोल दो तुम वो वली नहीं हो.. बस एक बार बोल दो।
-माहम! मैं बस तुम्हारे ख़ातिर यहाँ आया हूँ। मेरे दादा तुम्हें बस एक बार अपनी आँखों से देखना चाहते है। प्लीज मेरे साथ एक बार चलो।
चले जाओ मेरी नज़रो से दूर.. तुम क़ातिल हो। तुम लोगों ने मेरे अब्बू को मार डाला.. मेरी अम्मी 12 सालों से सदमे में जीये रही हैं और तुम्हें अभी भी अपने दादा की फ़िक्र सताये जा रही है। चले जाओ!
वली जाने लगता है।
माहम फिर दौड़कर उसके कॅालर को पकड़कर कहती है- तुम लौट के ही क्यूं आयें, मेरी ज़िन्दगी में। और उसके सीने पर बेतहाशा होकर हाथों से मारने लगती है। फ़िर धीरे-धीरे वो ढ़ीली होकर उसके पैरों के पास आ जाती है।
वली उसको उठाने के लिए जैसे ही नीचे झुकता है.. एक गोली उसके सर के ऊपर से गुजर जाती है.. फ़िर एक के बाद एक.. सैकड़ों गोलियाँ। चारों तरफ़ से गोलियों और गाड़ियों की आवाज़ पूरे रेगिस्तान में गूंजने लगती हैं। माहम सहम कर फिर से वली की बाहों में छिप जाती है। वली माहम को बाहों में थामें एक गाड़ी की तरफ़ दौड़ता है। वली के गाड़ी तक पहुंचने पर उसे अपने शरीर में शून्यता का आभास होता है। माहम उसकी बाहों से छूट जाती है। रेगिस्तान ख़ून की रंग में डूब गया होता है। धीरे-धीरे गोलियों की आवाज़ भी ख़त्म होती जाती हैं। कुछ लोग कराह रहे होते हैं.. फिर एक ख़ामोशी घिर जाती है पूरे रेगिस्तान में। दिन धुंधला के ग़हरी शाम की चादर ओढ़ लेती है।
वली को ज़मीन से औंधा लिपटा हुआ देखकर माहम तेज़ी से दौड़कर उसके पास जाती है.. और वली का सर अपने गोद में रख लेती है। वली के चारों तरफ़ खड़े उसके आदमी उसे उठाकर उसे अस्पताल ले जाने की बातें करने लगते है। हेलिकॉप्टर मंगाया जाता है.. मग़र वली सबको मना कर देता है और माहम के हाथों को कसकर भींच लेता है। सब वली को देखकर आँसू बहाने लगते हैं। माहम वली को इस हालत में देखकर अंदर ही अंदर बिलखने लगती है। वली उसकी तरफ़ नज़रे उठाकर एक कंपकपाती सी आवाज़ में कहता है- माहम! तुम्हें, तुम्हारे सारे सवालों के ज़वाब बड़े दरबार में मिल जायेंगे। तुम मुझसे लाख़ शिक़ायत रखो मग़र मैंने तुमसे हमेशा से मुहब्बत की है। मुझमें अब इतनी जान नहीं कि मैं सब बयां कर सकूँ। मैं तुम्हें अपनी एक अमानत देता हूँ। तुम इसे प्लीज मेरे घर के दहलीज़ तक बस लेकर चले जाना.. फ़िर जो तुम्हें ठीक लगें तुम वही करना।
वली दानियाल की तरफ़ देखता है। दानियाल एक सूटकेश माहम की तरफ़ बढ़ा देता है। वली अपनी आँखों की इज़ाजत से उसे लेने को कहता है, माहम बिना कुछ बोलें उसे चुपचाप थाम लेती है। वली एक सुकून की साँस भरता है और कहता है- ख़ुदा हाफ़िज़, माहम!
माहम रेगिस्तान के मौन में अनंत तक चीख़ उठती है.. वली...।
अगली सुबह माहम बड़े दरबार के दहलीज़ पर सालों बाद अपना पहला कदम रखती है। लोगों के लाख़ों बहिष्कार के बाद भी वली के दादा उसे सीने से लगा लेते है। वो उन्हें सूटकेश देकर जाने लगती है तभी उसे सालों पहले की कोई बात याद आती है। जब वो एक बार ऐसे ही यहाँ से जा रही थी तो वली ने पीछे से दौड़कर आकर कहा था- ख़ुदा हाफ़िज़।
अपनी आँखों में आँसू संभाले वो अचानक से पीछे मुड़कर चिल्लाई- ख़ुदा हाफ़िज़, वली!
फ़िर.. कुछ दिनों बाद से कहा जाता है कि माहम बड़े दरबार में ही रहने लगी थी। वो वली के कमरे में रहती और उससे हर वक़्त बातें किया करती। वो सबको चीख़-चीख़कर बताती की वो वली से अभी भी बातें किया करती है। वली भी चुपचाप नहीं सुनता है उसे.. वो भी झगड़ता रहता है उससे।
फ़िर और कुछ दिनों बाद.. बात-बात पर वो वली के दादा के पास जाकर उसकी शिकायत किया करती। कुछ लोगों का कहना था कि वो पाग़ल हो गई थी और वो सबसे बेहिचक कहा करती कि.. वो ये सब मुहब्बत में करती है या उससे ऐसा हो जाता है। अग़र ये पाग़लपन है तो ये पाग़लपन उसे हर शर्त पे मंज़ूर था। वो आज भी हर आने-जाने से ख़ुदा-हाफ़िज़ कहा करती है। इसी बहाने वो वली को और ख़ुद को इस दुनिया में कहीं ना कहीं ज़िंदा किये रखें हुए है।
बाक़ी कहानी कभी और.. किसी दिन.. फ़ुर्सत में। तबतक के लिए.. ख़ुदा-हाफ़िज़।
नितेश वर्मा
-नहीं तो।
अच्छा! फ़िर मुझे ये बताओ कि तुम्हारी कोई गर्ल-फ्रेंड है?
-नहीं।
अरे! इस उम्र में तो सबकी गर्ल-फ्रेंड होती है, तुम्हारी कैसे नहीं है? अब है.. तो बता भी दो फिर मुझसे क्या शर्माना।
-होती तो जरूर बताता तुम्हें।
चलो, नहीं है तो फिर बना लो?
-नहीं रहने दो। ये कोई चीज़ नहीं.. जो नहीं हैं और जब जरूरत हुई तो बना ली। कुछ चीजें एहसास में ही रहे तो अच्छा है। मुहब्बत कोई पा लेने का नाम नहीं, मुहब्बत में होकर उससे गुजरते रहो बस यहीं काफ़ी है।
बातें तो बहुत कमाल की किया करते हो, कोई भी सुने तो दीवाना बन बैठे।
-हुम्म्म्म। बस यहीं रोक दो, यहाँ से बहुत क़रीब है मेरा मक़ान।
यहाँ?
-हाँ, यहीं किनारे।
लेकिन यहाँ ना तो कोई बस्ती है और ना ही कोई शहर नज़र आता है?
-हाँ, लेकिन इस रेगिस्तान के ठीक पीछे से एक नदी गुजरती है और उसके बाद मिलता है हमें अपने गाँव जाने का रास्ता। अग़र शहर के चक्कर लगाकर जाएं तो पूरी दिन लग जायेगी और फिर वहाँ से उस पार जाने के लिए कोई नाव भी नहीं मिलेगी, तुम यहीं रोक दो।
लेकिन तुम चाहो तो आज मेरे साथ मेरे घर पर रूक सकते हो।
-नहीं आज नहीं.. लेकिन फिर कभी जरूर।
बाय!
-ख़ुदा हाफ़िज।
ओके।
गाड़ी से उतरने के बाद वली सीधा रेगिस्तान के बीचोंबीच से होकर उसे पार करने लगा और उसे इस तरह रेगिस्तान में निर्भीक चलता हुआ देखकर.. माहम ने तबतक अपनी गाड़ी आगे नहीं बढ़ाईं जब तक वो उसकी आँखों से ओझल ना हो गया।
शाम अब कुछ ही देर में ढ़लने वाली थी.. माहम को अचानक कुछ ख़याल हुआ और उसने गाड़ी आगे बढ़ा दी।
थोड़ी देर बाद.. अज़ान की आवाज़ ने लगभग पूरे रेगिस्तान को घेर लिया। वली अब नदी किनारे आ चुका था। कुछ लोग दौड़ते हुए वली की तरफ़ आएँ.. उनके हाथों में बंदूक थी। वली उनकी तरफ़ बढ़ता चला गया और जाकर पूछा - हाँ, बताओ क्या बात है?
कुछ नहीं वली साहब!
इतनी शाम हो चुकी थी और आप अभी तक नहीं आये थे, इसलिए हम सब घबरा गए थे। अभी हम आपको ढूंढने के लिए निकलने ही वाले थे..
-ख़बरदार! जो तुमलोगों ने अपने दिमाग़ का थोड़ा भी इस्तेमाल किया। तुम लोगों को पता नहीं.. माहम हमारे लिए कितनी जरूरी है और वो जब तुम लोगों ऐसे लिबास में मेरे साथ देखेगी तो फ़िर सब किये-धरे पर पानी फिर जायेगा। अब मुँह लटकाकर क्या सोच रहे हों जाओ मेरे वुजू का इंतज़ाम करो।
जी छोटे मालिक अभी करते हैं।
-और दानियाल साहब आप रूकिये। कोई ख़बर मिलीं?
नहीं। मग़र हमने सब लड़को को काम पर लगा दिया है, ज़ल्द ही ख़बर मिल जायेगी। मैं ये सोच रहा था.. अग़र आप बुरा ना माने तो..
-हाँ-हाँ, बताइये। आप हमारे ख़ानदानी सलाहकार है.. आपको इतना हिचकना नहीं चाहिए और हम बस आपको अपने परिवार का हिस्सा कहते नहीं बल्कि मानते भी है।
जी, मैं वो सोच रहा था कि.. अगर आप कहें तो क्या हम कमीशनर से इसके बारे में बात करे?
-नहीं-नहीं दानियाल साहब! फिलहाल इसे ख़ुद से देखिये। मामला आगे बढ़ा तो बहुत नुकसान हो सकता है हमारा।
जी, बहुत बढ़िया जैसा आपका हुक़्म।
छोटे मालिक नमाज़ करने का सब इंतज़ाम हो चुका है।
-हुम्म्म्म। ठीक है! तुम चलो.. मैं आता हूँ।
दानियाल साहब! आप कल बड़े दरबार होकर आइये.. देखिये मेरी फ़िक्र मत कीजिए मैं यहाँ पर ठीक हूँ। आप जाकर वहाँ से एक-बार पता लगाइये। शायद कुछ हाथ लग जाए। अब इज़ाजत दीजिए।
जी! मैं कलके जाने का इंतज़ाम करता हूँ। और 2/3 दिन में लौटकर आने की भी पूरी कोशिश करूँगा।
अगली सुबह.. रेगिस्तान के सामने
सड़क किनारे..
वली नाम बताया था ना तुमने?
-हाँ।
तो तुम कल ख़ैरियत से पहुँच गये थे अपने गाँव?
-हाँ। तुम्हारा बहुत शुक्रिया। वर्ना इस अंज़ाने से शहर में कौन हम गांव के लोगों की मदद करता है?
वो तो है। मैं कुछ ज्यादा ही नेक़दिल इंसान हूँ।
तो आज फिर नौकरी ढूंढने आये हो?
-हाँ! उसी कोशिश में हूँ।
हुम्म्म्म। अपने डाक्यूमेंट्स दिखाओ, शायद मैं कुछ मदद कर सकूँ।
-वो तो.. मैं नहीं लाया।
लो जी! ज़नाब नौकरी ढूंढने निकले है और साथ में कोई डाक्यूमेंट्स भी नहीं।
अच्छा! ये बताओ पढ़ाई कहाँ तक की है तुमने?
-ज्यादा नहीं। मास्टर्स किया है एकाउंटेंसी में।
हुम्म्म्म। मिल जायेगी तुम्हें फिर कल नौकरी। अपने डाक्यूमेन्ट्स साथ लेते आना।
-ठीक है।
अरे! बस ठीक है। मैंने कल तुम्हारे नौकरी लगने की बात की है और तुम बस ठीक है कहकर बच निकलना चाहते हो। मेरे साथ चुपचाप गाड़ी में बैठो। तुम्हें तो पार्टी देनी पड़ेगी।
अब इतना घबराओ मत.. आ जाओ.. मुझे पता है तुम्हारे पास पैसे नहीं है। इसलिए आज जो भी ख़र्च होगा वो मैं दे दूंगी जब तुम्हें अपनी पग़ार मिल जाये तो मुझे वापस कर देना। अब चलो जल्दी।
और बताओ क्या करते हो तुम ये नौकरी ढूंढने के अलावा?
-कुछ नहीं। थोड़ा -बहुत म्यूज़िक का शौक है और कभी-कभार सर्दियों की रात में अपनी डायरी में कुछ लिख लेता हूँ।
ओहो! तो ज़नाब शायर है। फिर सुनाओ कुछ?
-हुम्म..
इन इबादतों में तेरा जिक्र क्या
ये अब्र क्या है ये हवा क्या
मुहब्बत की गुस्ताख़ किताब
ये हर्फ़ क्या है ये मिज़ाज क्या
कोई जलती चिंगारी थी मुझमें
बारिश के बाद हुआ हश्र क्या
दामन जिसका छूटता ही नहीं
वो ना मिला तो फिर गिला क्या
सहमीं सी निगाहों का कुसूर है
वर्ना ये दर्द क्या है ये दवा क्या
इन इबादतों में तेरा जिक्र क्या
ये अब्र क्या है ये हवा क्या।
वाव्व! टू गुड़। इट्स योर?
-पुरानी सी है।
अच्छी है लेकिन। चलो आ गया, अब उतरो।
-ये कहाँ ले आई हो तुम?
मुझे पता है। अब कुछ और ना पूछो मुझसे और चुपचाप चलो। अभी तो पूरी दिन गुजारनी है.. और तुम्हारा ये सवाल-जवाब अभी से ही शुरु हो गया।
शाम का वक़्त.. ढ़लता हुआ सूरज..
रेगिस्तान के किनारे रूकी हुई माहम की गाड़ी।
आज चाहो तो तुम चल सकते हो मेरे साथ मेरे घर।
-और डॅाक्यूमेंट्स?
हाँ-हाँ! मैं तो भूल ही गई थी.. इन सब चक्करों के बीच।
वली एक बात बताऊँ? तुम्हें देर तो नहीं हो रही है ना?
-नहीं..नहीं.. बताओ।
वली! मेरे दादा अबुल हामिद है। शायद ऐसा हो सकता है कि तुमने इनका नाम अख़बारों या न्यूज़ चैनलों में सुना हो। वे एक बड़े से रियासत के मालिक है और मैं उनकी इकलौती पोती हूँ। अब्बू के इंतक़ाल के बाद मेरे दादा ही मेरे लिए सबकुछ रहे हैं और नाजाने अब ऐसा क्यूं लग रहा है कि मैं तुम्हें चाहने लगी हूँ। देखो ये तुम्हारे लिए अज़ीब हो सकता है.. कि एक दिन पहले मिले शख़्स से बिना जाने-पहचाने कोई कैसे मुहब्बत कर सकता है। मग़र मेरी मानो तो यही सच है। मैं ज्यादा इंतज़ार भी नहीं कर सकती थी.. कि इस मुहब्बत को कुछ दिनों तक समझूं और जब एहसास हक़ीकत में बदले तो फिर बयां करूँ। कुछ दिनों बाद मेरी मँगनी होने वाली है और शायद मैं इन सबसे दूर निकलने के लिए तुम्हारे मुहब्बत में क़ैद हो गई हूँ। मुझे वो कल शाम तुम्हारा.. यूं इस रेगिस्तानी टीले को पार करके अपने गाँव जाना.. ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई मेरी ही सफ़र कर रहा हो और मैं धीरे-धीरे इस जुल्म के दुनिया से कहीं दूर चली जा रही हूँ.. दूर.. बहुत दूर।
-माहम! मैं ये सब जानता हूँ.. और मुझे ये भी पता है कि जिससे तुम्हारी मँगनी तय हुई है वो तुम्हारे ख़ाले का लड़का है। उससे तुम्हें सख़्त नफ़रत है। उसने अपने चेहरे पर एक मुखौटा लगाकर तुम्हारे दादा को इसके लिए राज़ी करवाया है।
इतने हैरान होने की कोई जरूरत नहीं है। मैं भी तुमसे प्यार करता हूँ और मैं तुमसे कुछ छिपाऊँगा भी नहीं। माहम! मैं वली हूँ.. वही वली जिससे तक़रीबन 17 साल पहले तुम्हारी मँगनी हुई थी। तब तुम्हारे दादा ने मेरे दादा के साथ मिलकर बड़े हवेली के पीछे हमारी मँगनी करवाईं थी।
तुम झूठ बोल रहे हो! तुम वो वली नहीं हो सकते। ख़ुदा की कसम.. एक बार बोल दो तुम वो वली नहीं हो.. बस एक बार बोल दो।
-माहम! मैं बस तुम्हारे ख़ातिर यहाँ आया हूँ। मेरे दादा तुम्हें बस एक बार अपनी आँखों से देखना चाहते है। प्लीज मेरे साथ एक बार चलो।
चले जाओ मेरी नज़रो से दूर.. तुम क़ातिल हो। तुम लोगों ने मेरे अब्बू को मार डाला.. मेरी अम्मी 12 सालों से सदमे में जीये रही हैं और तुम्हें अभी भी अपने दादा की फ़िक्र सताये जा रही है। चले जाओ!
वली जाने लगता है।
माहम फिर दौड़कर उसके कॅालर को पकड़कर कहती है- तुम लौट के ही क्यूं आयें, मेरी ज़िन्दगी में। और उसके सीने पर बेतहाशा होकर हाथों से मारने लगती है। फ़िर धीरे-धीरे वो ढ़ीली होकर उसके पैरों के पास आ जाती है।
वली उसको उठाने के लिए जैसे ही नीचे झुकता है.. एक गोली उसके सर के ऊपर से गुजर जाती है.. फ़िर एक के बाद एक.. सैकड़ों गोलियाँ। चारों तरफ़ से गोलियों और गाड़ियों की आवाज़ पूरे रेगिस्तान में गूंजने लगती हैं। माहम सहम कर फिर से वली की बाहों में छिप जाती है। वली माहम को बाहों में थामें एक गाड़ी की तरफ़ दौड़ता है। वली के गाड़ी तक पहुंचने पर उसे अपने शरीर में शून्यता का आभास होता है। माहम उसकी बाहों से छूट जाती है। रेगिस्तान ख़ून की रंग में डूब गया होता है। धीरे-धीरे गोलियों की आवाज़ भी ख़त्म होती जाती हैं। कुछ लोग कराह रहे होते हैं.. फिर एक ख़ामोशी घिर जाती है पूरे रेगिस्तान में। दिन धुंधला के ग़हरी शाम की चादर ओढ़ लेती है।
वली को ज़मीन से औंधा लिपटा हुआ देखकर माहम तेज़ी से दौड़कर उसके पास जाती है.. और वली का सर अपने गोद में रख लेती है। वली के चारों तरफ़ खड़े उसके आदमी उसे उठाकर उसे अस्पताल ले जाने की बातें करने लगते है। हेलिकॉप्टर मंगाया जाता है.. मग़र वली सबको मना कर देता है और माहम के हाथों को कसकर भींच लेता है। सब वली को देखकर आँसू बहाने लगते हैं। माहम वली को इस हालत में देखकर अंदर ही अंदर बिलखने लगती है। वली उसकी तरफ़ नज़रे उठाकर एक कंपकपाती सी आवाज़ में कहता है- माहम! तुम्हें, तुम्हारे सारे सवालों के ज़वाब बड़े दरबार में मिल जायेंगे। तुम मुझसे लाख़ शिक़ायत रखो मग़र मैंने तुमसे हमेशा से मुहब्बत की है। मुझमें अब इतनी जान नहीं कि मैं सब बयां कर सकूँ। मैं तुम्हें अपनी एक अमानत देता हूँ। तुम इसे प्लीज मेरे घर के दहलीज़ तक बस लेकर चले जाना.. फ़िर जो तुम्हें ठीक लगें तुम वही करना।
वली दानियाल की तरफ़ देखता है। दानियाल एक सूटकेश माहम की तरफ़ बढ़ा देता है। वली अपनी आँखों की इज़ाजत से उसे लेने को कहता है, माहम बिना कुछ बोलें उसे चुपचाप थाम लेती है। वली एक सुकून की साँस भरता है और कहता है- ख़ुदा हाफ़िज़, माहम!
माहम रेगिस्तान के मौन में अनंत तक चीख़ उठती है.. वली...।
अगली सुबह माहम बड़े दरबार के दहलीज़ पर सालों बाद अपना पहला कदम रखती है। लोगों के लाख़ों बहिष्कार के बाद भी वली के दादा उसे सीने से लगा लेते है। वो उन्हें सूटकेश देकर जाने लगती है तभी उसे सालों पहले की कोई बात याद आती है। जब वो एक बार ऐसे ही यहाँ से जा रही थी तो वली ने पीछे से दौड़कर आकर कहा था- ख़ुदा हाफ़िज़।
अपनी आँखों में आँसू संभाले वो अचानक से पीछे मुड़कर चिल्लाई- ख़ुदा हाफ़िज़, वली!
फ़िर.. कुछ दिनों बाद से कहा जाता है कि माहम बड़े दरबार में ही रहने लगी थी। वो वली के कमरे में रहती और उससे हर वक़्त बातें किया करती। वो सबको चीख़-चीख़कर बताती की वो वली से अभी भी बातें किया करती है। वली भी चुपचाप नहीं सुनता है उसे.. वो भी झगड़ता रहता है उससे।
फ़िर और कुछ दिनों बाद.. बात-बात पर वो वली के दादा के पास जाकर उसकी शिकायत किया करती। कुछ लोगों का कहना था कि वो पाग़ल हो गई थी और वो सबसे बेहिचक कहा करती कि.. वो ये सब मुहब्बत में करती है या उससे ऐसा हो जाता है। अग़र ये पाग़लपन है तो ये पाग़लपन उसे हर शर्त पे मंज़ूर था। वो आज भी हर आने-जाने से ख़ुदा-हाफ़िज़ कहा करती है। इसी बहाने वो वली को और ख़ुद को इस दुनिया में कहीं ना कहीं ज़िंदा किये रखें हुए है।
बाक़ी कहानी कभी और.. किसी दिन.. फ़ुर्सत में। तबतक के लिए.. ख़ुदा-हाफ़िज़।
नितेश वर्मा