Sunday, 26 July 2015

मम्मी-पापा [Mummy-Papa]

ये मम्मी-पापा इतनें लडते क्यूं हैं?
जब पापा लोग को नयी मम्मी पंसद आ जाती हैं ना, तो वो मम्मी लोग से झग़डा करनें लगते हैं, उन्हें मारनें-पीटनें लगते हैं।
तो फिर मम्मी लोग क्या करती हैं?
मम्मी!
हाँ, मम्मी।
वो.. वो तो बस रोती हैं।
वो क्यूं रोती हैं, जब हमें हमारी गलती पर मारती हैं.. तो वो पापा लोग को भी तो उनकी गलती पे मार सकती हैं।
नहीं रे! ऐसा नहीं होता। ऐसा होता तो वो पापा लोग के घर क्यूं आती। उन्हें बहोत कुछ सहना होता हैं, तभी तो वो पापा लोग के घर आती हैं।
जाओ, मैं नहीं मानता, सब बकवास हैं।
नहीं रें! सच में। मैनें देखा हैं.. अपनें घर में.. रात के अंधेरें में.. बस माँ ही रोती हैं।
अच्छा।
हाँ।


नितेश वर्मा

पेपर और इमोश्न [Paper And Emotions]

भाई कल रात कहाँ था?
यार दोस्त के रूम पे था।
क्यूं, वहाँ क्या कुछ स्पेशल था, क्या?
नहीं भाई, पेपर था आज मेरा, तो वहाँ पढनें के लिये चला गया था, और कुछ नहीं था।
भाई पढ तो तू यहाँ भी सकता था।
हाँ पढ सकता था, लेकिन तुम लोगों का सोच के चला गया, एक तो रात भर गेम खेलोगें और खामाखाह की बातें बांधोंगे। तुम्हें ही परेशानी होती अगर पूरी रात लाईट जला के पढता तो।
अरे। ऐसा कुछ नहीं हैं, अब तू इमोश्नल हो रहा है।
भाई होता हैं ऐसा सबके साथ अगर तुम्हारी बैक आयें और तुम्हारें दोस्त पास हो जायें, तो ऐसा फील होता हैं।
हाँ यार! ये तो बात हैं। अभी मुझे वही हो रहा हैं।

नितेश वर्मा

माँ और मैं

कभी खुद से भी टाइम निकाल लिया करो, बेफिजूल का सब लिखते रहते हो। इतना गर किसी और पर ध्यान दिया होता तो आज कुछ लायक होते, कहीं अच्छे पैसे मिल रहे होते। और कुछ का नहीं तो कम से कम मेरा तो सोचा होता, अब तुम छोटे नहीं रह गये जो तुम्हें सारी बातें सिखाई जाये। सब पूछते हैं, मैं क्या बोलूं। तुम्हारे साथ के आज सारे पता ना कहाँ तक पहुँच गए और तुम.. तुम्हारा तो कभी होश ही ठीक नहीं होता। तुम कल से एक काम करो ये लिखना-विखना छोड़कर आगे बढ़ने के बारे में सोचो, कुछ करो। और ये सेभ भी टाइम से किया करो, कुछ तो इंसानों के गुण सीखो और मुझे ये तुम्हारे बड़े बाल थोड़े भी पसंद नहीं कल इसे भी सही करवा लेना।अब मुझे देख क्या रहे हो, जो लिख रहे थे लिखो, एक दिन भर इतना काम रहता है और उपर से तुम।

मैं : माँ.. बस माँ बस, हो गया ना।

नितेश वर्मा

इंसान और भगवान

उसकी कदमें उसका साथ नहीं दे रही थीं फिर भी वो लगातार भागें जा रही थी, वो खुद को शायद बचा लेना चाहती थीं मग़र अंधेरी काली रातों में ना तो वो कुछ देख पा रही थी और ना ही कहीं रूक के दो पल सँभलना चाहती थी। बारिश ऐसी हो रही थी मानों किसी बेसब्र नदी का बाँध टूट पड़ा हो, आँधी उसके कदमों को जैसे आगे बढ़ने से इस तरह रोक रही थी के वो चाहती थी की वो आज इस नाज़ुक पल को समझे और अपने हठ को छोड़ दे।

मगर शैला ने विभय को जो आज तक माना था, उसे भगवान बना के पूजा था, वो सब बेवजह था। कोई प्यार नहीं था सब एक झूठ सा लग रहा था। वो बस भाग के खुद को खुद से रिहा कर लेना चाहती थीं, वो थक गयी थी लेकिन वो रूकना नहीं चाहती थी, वो दौड़ें जा रही थी लगातार, बेमंजिल। उसको आज अपनी माँ की फिर वही बात याद आ गयी थी कि बेटा एक अच्छा इंसान भी इंसान ही होता हैं, भगवान नहीं।

नितेश वर्मा

बड़े घर

और इसमें मेरा हिस्सा भी है भाई, मैं बस अपना हिस्सा चाहता हूँ और कुछ नहीं। आज मुझे जरूरत आन पड़ी है, कल किसी दूसरे को भी आ सकती है। और मैं नहीं चाहता की मैं अपने हिस्से के लिये अपनों के साथ कोट-कचहरी करूँ।
रहमान के आँखों से आँसू इस तरह निकल पड़े, जैसे किसी सोये हुए ज्वालामुखी से एकदम लावा निकलता है। रहमान के दो बेटों में से एक, आजम जो शहर में रहमान के कारोबार को देखता था उसे तबाह कर आज उसी के सामने अपने घर को बेच के हिस्सा करने की बात कर रहा है। दरअसल आजम बुरी लतों का शिकार है, उसके इसी बर्ताव से तंग आकर रहमान ने उसे अपना कारोबार देखने के लिये शहर में भेज दिया था। मगर किसे पता था कि वो सुधरने की जगह सब कुछ बर्बाद कर देगा।
आज इस बड़े घर की हालत ऐसी है कि सँभाले नहीं सँभलतीं हैं। रहमान का छोटा बेटा साहिर रहमान के साथ ही रहता है और उसके साथ ही कुछ छोटे-छोटे कामों को करके गुजारा करता है, बात पहले जैसी नहीं है फिर भी जिन्दगी गुजर-बसर, खुश रहने के लिये काफी है। मगर ये घर भी अब नहीं रहेगा तो फिर, ये सोच-सोच के रहमान हताश हो जाता।
जैसे-तैसे करकें रहमान ने कुछ पैसे बाज़ार से उधार करकें आजम को दे दिया। और कहा कमज़र्फ आ इस पेपर पे साइन कर की अब तेरा इस घर में कोई हिस्सा नहीं है, तूने अपने बाप से अपने हिस्से को बेच कर एक रकम वसूल किया है। आज रहमान खुद के बनाये घर को फिर से एक भुगतान करकें खरीद रहा था।
आजम की लापरवाही अब रहमान, उसके छोटे बेटे साहिर और उसकी बहू इरम को भुगतनी हैं। बाज़ार से लिया कर्जा इतना ज्यादा है कि वह यहाँ की कमाई से नहीं उतारा जा सकता, इसी बात को समझकर साहिर शहर कमाने को चला जाता है। इरम और अपने बड़े घर की इज्जत को जिंदा रखने के लिये रहमान अपने काम को यही रखकर देखते हैं। रहमान सबको यही बताता है कि दोनों भाई शहर कमाने गये हैं, कारोबार बढ़ा रहे हैं। इधर साहूकारों का तकाजा हैं। इरम अपने पढे-लिखें होने के कारण उनकी कुछ मदद करना चाहती हैं, लेकिन रहमान का कहना है बड़े घर की औरतें ऐसा सोचती भी नहीं। इरम को आज तकलीफ होती हैं, ऐसा क्यूं होता हैं कि सिर्फ लड़के ही जिम्मेदार हुआ करते हैं, उन्हें इसका हक क्यूं ये सामाज देता है।
साहिर के भेजे पैसों से कर्ज़ का तो भुगतान हो जाता है मगर घर के भी तो खर्च होते हैं, जो बड़े घर मे बैठें रहतीं है उनकी भी तो जरूरतें होती हैं। अब इरम अपने लोगों को इस हालत में नहीं देख सकती और वैसे भी पर्दा चेहरे पे कब तक रहता है।
इरम आज अपने घर की इज्जत बुनने को निकलीं हैं, वो आज एक स्कूल में बच्चों को पढाने गयी है और रहमान ने उसे आज रोका भी नहीं क्योंकि वो जान गया है इज्जत काम करने से बनता है, वो औरत और मर्द में फर्क नहीं करता।

नितेश वर्मा

इशशशश

तुम्हें प्यार हो गया है, अब बनो मत।
अरे जाओ, मुझे और प्यार और वो भी तुमसे। इतने बुरे दिन नहीं आयें ना मेरे और ना इस शहर के।
कुछ भी कह लो, बारिशें तो यही बताती है, जब भी आती हैं साथ तुम्हारा ही ख्याल ले आती है।
ये क्या बकवास है, बारिश और मेरा कनेक्शन तो दूर-दूर का भी नहीं है। ये ना तुम्हारी फिर से कोई फजूल सा ख्याल का ख्वाब हैं।
इशशशश! कितनी फिल्मी बातें किया करते हों, जाँ लेने का इरादा है क्या।
फिल्मी नहीं है, मैंने खुद लिखा है।
अरे, तो बेवकूफ कभी मेरे लिये कुछ क्यूं नहीं लिखते।
तुम्हारे लिये, हाहाहाहा। मतलब मैं तुम्हारे लिये कुछ लिखूँ, क्या लिखूंगा मैं तुम्हारे लिये के तुम एक चुड़ैल हो जो नागिन बनके मेरे गले से हमेशा लिपटी रहती हो। अरे, मेरी दीवानी शक्लों-सूरत पे शायरी होती है, बदहाली और जबरदस्ती से बस गाली ही निकलती है।
हाय। तो फिर ऐसा ही लिखा करो ना, तुमसे अपने बारे में सुनना कितना अच्छा लगता है।
अब तुम जाओ जो करने आयी हो करो और मुझे बख्श दो, प्लीज।
चलो, अभी तो मैं जल्दी में हूँ इसलिए जा रही हूँ कल फिर आऊंगी।
हाँ-हाँ। ठीक है, पर अभी के लिये मेरा पीछा छोड़ो।

नितेश वर्मा

पंछी

बेटा कहाँ रह गयी तू, ओफोह! अभी तक तू तैयार भी नहीं हुई। बेटा लडके वालें तुझे देखने आते ही होंगे। जल्दी कर मेरा प्यारा बच्चा। 45 वर्षीय कमला देवी ने अपनी बेटी पंछी को मोबाइल में सर खपाते हुएं देखकर कहा।
और ये तेरा 24 घंटो इस मोबाइल में क्या गुम रहता हैं जो तू ढूँढती फिरती हैं।

पंछी मोबाइल से एक नज़र हटाते हुएं कमला देवी से कहती हैं माँ मैनें आपको कितनी बार मना किया हैं कि मैं अभी शादी नहीं कर सकती, अभी मुझे बहोत कुछ करना हैं, मुझे भी नाम कमाना हैं मुझे भी अपनें पैरों पे खडा होना हैं, मुझे अभी ये शादी-वादी नहीं करना, आप पापा से बोल के उन्हें मना क्यूं नहीं कर देती।
कमला देवी : बेटा यूं कब तक तुम अपने आप से भागती रहोगी। यूं कब तक उस एक गलती से खुद को और अपनें घरवालों को दुख देती रहोगी। बेटा हो जाता हैं ऐसा ज़िन्दगी में, कभी-कभी कुछ चीजें अपनी हदों से दूर की होती हैं, कुछ चीजों पे हमारा बस नहीं होता, तभी तो हम किस्मत के भरोसें से कुछ वक्त जी लिया करते हैं। बेटा अब देर मत करो चलो जल्दी तैयार हो जाओ, मुझे अभी इतनी फुरसत नहीं की मैं तुम्हें फिर से वही बात समझानें बैठ जाऊँ जो मुझे समझाना कभी अच्छा नहीं लगता।

पंछी : ओके, ममा। तुम चलो मैं आती हूँ। तुमनें उनलोगों को मेरे बारें में बताया हैं ना।

कमला देवी : हाँ बेटा उन्हें इस बात से कोई ऐतराज नहीं। वो तुम्हारें अतीत से नहीं तुम्हारें वर्तमान से तुम्हें स्वीकार करेंगे।

पंछी : ठीक हैं माँ, जैसा तुम्हें अच्छा लगे।

पंछी 27 वर्षीय एक मध्यम वर्गीय परिवार से हैं, लेकिन उसे इसका कभी अफसोस ना हुआ था कि वो मध्यम वर्ग से हैं जब तक उसके ससुराल वालों नें उसे यह कह कर ना दुत्कारा था कि हमें देनें के लिये अब तुम्हारें बाप के पास कुछ हैं ही नहीं तो हम तुम्हें अपनें पास मुफ्त की रोटिया तोडनें के लिये क्यूं रखें रहें, इकलौती हो जा के कुछ ले आओ या फिर अपनें बाप के पास ही पडी रहो। बहोतों नाज और प्यार से पली-बढी पंछी ने कभी ये सपनें भी नहीं सोचा था के उसे भी कभी वैसी ही सामाज़ का सामाना करना पडेगा जो वो कभी किताबो और कहानी या फिर अपनें दादा-दादी से सुना करती थीं। पंछी अपनें नाम के जैसी थीं, बिल्कुल बेबाक, खुली ख्यालों की, आसमां को मुठ्ठी में करनें वाली, बिन पता, बिन मंज़िल सफर करनें वाली। पंछी कभी-कभार अपनें ससुराल में ये बैठ के रोतें हुएं सोचा करती थीं, शायद उसे इतनें प्यार से पलनें का कोई अधिकार नहीं था, उसे भी सामाज़ी बातों में घुट-घुट के जीना था, कमसे कम आदत तो लगी रहती, किसी की बातों का कोई बुरा नहीं लगता। काश! मैं भी पापा के लाड –प्यार से कभी परे होके माँ की ये बात सुन लेती.. की बेटियाँ भी अगर पढ-लिख के अच्छी रोजगार की मालिक हो तो उसे भी घर में एक अच्छा औदा मिलता हैं, उसके भी बातों के कोई मायनें होते हैं। पंछी की छ्न-छन करती पायलें भी तो पंछी को कभी एक डाल पे बैठनें नहीं देती थीं। कभी यहाँ तो कभी वहाँ, क्या वो आज भी उसे किये को फिर से भोग रही हैं, ज़िन्दगी की तस्वीरें बदल गयी हैं लेकिन ज़िंदगी तो अभ्भी भी वही ठहरी हैं।

पंछी, ओ पंछी बेटा जल्दी कर वो लोग आ गये हैं, बेटा इस बार थोडा ढंग से बात करना और ज्यादा बोलनें की कोई जरूरत नहीं हैं। तेरे पापा को जो अच्छा लगेगा वो उन्हें देंगे, और बेटा ये शादियाँ भी तो दहेजों पे ही होती हैं, मैं भी तुम्हारी माँ हूँ मगर मुझे भी तुम्हारें पापा के घर आनें के लिये दहेज देना पडा था। बेटा ये तो रिवाज़ हैं, यही नियम हैं और नियम तो हम तोड नहीं सकतें ना, परंपराएं बेटा बंद नहीं होती, बस दब जाती हैं या दबा दी जाती हैं। कमला देवी ये बात पंछी को इसलिये बता देना चाहती थीं कि वो चाहती थीं कि बेटा लडकियाँ ही थोडा दब के रह जाएं तो क्या होगा।

पंछी तो थीं खुली ख्यालातों की मगर जब इंसान अंदर से टूट जाता हैं तो सब समझदारी, सारी सीखें सब चीजें धरी की धरी रह जाती हैं। पंछी अब अपनी माँ को समझनें लगी थीं। वो ये नहीं चाहती थीं कि जिस पापा की वो गुड-बुक्स में गुड गर्ल थीं वो किताबी पन्नें ये कहके मोड दिये जाये कि वो अब किसी काम के नहीं। मगर पंछी तो ये भी कभी नहीं चाहती थीं की वो अपनें पापा के शरीर पे फिर कभी कोइ बोझ बने, अगर उसके ससुराल वालें उससे किसी चीज की डिमांड करते हैं तो वो उन चीजों को पूरा करें। इसलिये वो पढ-लिख के कुछ बनना चहती थीं, किसी कालेज में दाखिला नहीं ले सकी, हालांकि ऐसा नहीं हैं की उसनें कोशिशें नहीं की। उसनें जितनें बार भी घर से बाहर कदम निकालें लोगों की बातें उसे फिर उसी चूल्हें की आँच में धकेल देती। घर नहीं सँभाल पायी तो अब दुनिया सँभालनें निकली हैं, नौकरी करेगी। मगर पंछी चाह के भी ये किसी को समझा नहीं सकी ये दुनिया कितनी आसान हैं जो सिर्फ बातें बोल के उसे रोनें को छोड देती हैं, उसे उसके हाल का छोड देती है, मगर घर दो लोगों के मिलन से बनता हैं, विवादें जन्म लेती हैं लोगों में अलगाव होता हैं तो घर प्रेम छोड के दुनियादारी में बदल जाती हैं, लोगों के मायनें बदल जाते हैं, उनके रूप बदल जाते हैं। यहीं कारण हैं पंछी ने डिस्टेंस-लर्निंग कोर्स ज्वाइन करा था, जिन्दगी के खराब होनें से अच्छा हैं की वो आँखें खराब हो जायें जो उसके लिये कभी खराब दिन ले के आनें वाली थीं। मगर ये बात उसके अलावा और कौन समझ सकता था, माँ मना करती रहती थीं, दलीलें देते फिरती थीं, बेटा लडकियों का गहना तो उनका रूप हुआ करता हैं। मगर जिंदगी ने पंछी को जो कुछ भी सिखाया था वो सब इसके विपरीत था। मगर इंसान तो परिस्थितियों से ही तो सीखा करता हैं सोच के पंछी अपनें आप को स्वीकर लेती।

कुछ देर में लडके वालें भी पंछी को देखने आ गये। बात पहले ही सब हो गयी थीं। फिर उसके अपनों ने बिना उससे पूछें उसके खुशहाल भविष्य की बात कहीं कर ली थीं या यों कहें की खरीदनें की फिर से एक नाकाम कोशिश कर ली थीं, पंछी ये समझती थी, लेकिन कभी वो ये भी सोचती थीं की जब उसके पापा उसके माँ से इतना प्यार करतें हैं उन्हे इतना खुश रखते हैं तो उन्हें पैसे से तौल के क्यूं ले आये थे कभी। उस वक्त माँ के माँ-बाप पे क्या बीतती होगीं, जब कहीं पापा लोग के भी डिमांड हाई हुआ करते होंगे, जब हर रोज कोइ नयी चीज पसंद आ जाती होंगी। पंछी बहोत सोचती पर कोई जवाब नहीं तालाश कर पाती, वो खुद से तो कभी इन हालातों से हार कर अपनें कमरें में खुद को बंद करके रोनें लगती थी। क्या हैं आखिर ये ज़िन्दगी और दुनियादारी पंछी अभी तक कुछ समझ नहीं पायी थीं।

फिर से वही लडको वालों की एक लम्बी लिस्ट। पंछी आज खुद को और अपनें बाप को इतना मजबूर और इतना हारा महसूस कर रही थीं कि उसके पापा आज उसके लिये रिश्तें खरीद रहें हैं, भले से उस खरीद में उनकी घर जायें उनकी जमीन बिक जायें वो खुद कर्जें-कर्जें में डूब जायें। पंछी ये सोचती आज वो लोग कहाँ गये जो लडके और लडकियों की बराबरी की बात किया करते हैं और जो ये लडका देखनें भी उसे आया था वो भी तो एक पढा-लिखा और किसी ऊँचे औदे का लगता था, फिर उसकी मत कहाँ गयी, उसकी सारी शिक्षा कहाँ गुम हो गयी, क्या किताबी महारत दुनियादारी पे आके खत्म हो जाती हैं।

फिर भी पंछी चुप रही.. सौदा हुआ, कुछ खरीदा तो कुछ बेचा गया। आदमियों को एक हद तक गिरतें देखा गया, सब पढे-लिखें मगर सारें के सारें मतलबी। खैर सौदा भी खत्म हुआ अब लडकी को देखनें की बारी। जो लडका दहेज की बात पर एक बार भी ना बोल पाया वो लडकी को कभी हाइट मैच करके देखता तो कभी उसके आँखों पे लगे चश्में का कारण पूछनें बैठ जाता। दलीलें खत्म हुई, पंछी फिर से पंसद कर ली गयी थीं। सब खुश थें खास कर घरवालें। अब एक ऐसे घर पंछी को जाना था जहाँ उसके लिये उसके माँ-बाप नें उसे ये कहकर भेजा था, बेटा वो अब तेरा घर हैं, उसी घर अब तुझको जाना हैं, बेटा यहीं रिवाज हैं लडकियों को दहलीज बदलना होता हैं, उन्हें लडकों के पास जाना होता हैं। सब बराबर हैं लेकिन हक आज भी लडकियों को अधूरा ही मिलता हैं। उन्हें सारें सुख दिये जाऐंगे या उनका वादा किया जाऐगा लेकिन वो सुख कोई और अपनी मर्ज़ी से जब चाहें जैसे चाहें करेगा, उन्हें उनका ही मोहताज बनकर ता-उम्र जीना पडता हैं। अब शायद पंछी पंछी नहीं रहीं अब तो वो बडी हो गयी हैं, उसकी पायल अब बेडियाँ हो गयी हैं वो सिर्फ दहलीज के अंदर ही आवाजें कर सकती हैं। पंछी की पढ-लिख के कमानें की ख्वाहिश से फिर लडके वालों के ऐतराज के कारण वो फिर अपनी ज़िंदगी से परेशां हो गयी, माँ-पापा भी लडके वालों की इस बात को मना नहीं कर पाये थें। यहीं उसके माँ-बाप नें उसके लिये सामाज़ बनाया था, मान के पंछी नें खुद को इस जहाँ से रिहा कर दिया। यही पंछी की कहानी थीं, पंछी कब तक पिंज़रें में रहती, उसके हक में मर जाना ही था। पंछी की सवालें आज भी दफ्न हैं, किसी के घर में तो ऐसे ही किसी के किताबो-पन्नों में।


नितेश वर्मा

बेजान रिश्ते

शायद अब मुझे उससे मिल ही लेना चाहिएं। बे-वजह के रिश्तें को जितनी जल्दी किनारें कर दो उतना ही खुद के लिये सही होता हैं। इस दुनियाँ में वहीं तुम्हारा एक अपना हैं जो तुम्हारें लिये नहीं बल्कि तुममें जीयें। तुम्हारी जरूरतें उसकी आदत हो, तुम्हारी खुशी उसकी हो, वो तुममें जीयें और तुममें ही रहें। स्वरा ये सब कुछ अभी सोच ही रही थीं तब-तक पीछें से आकर एक बच्चें नें शिकायती लहज़ें में कहा : मैम! ये ना मेरी काँपी फाड दिया हैं।
स्वरा [ कुछ देर उन दोनों बच्चों को देखतें हुए ] : अए! हम्म्म। क्यूं तुमनें ऐसा क्यूं किया चलो सारी बोलो उसे।
दूसरा बच्चा : मैम मैनें तो पहलें ही सारी बोल दिया था, पर ये मान ही नहीं रहा, ज़िद पे बैठा हैं।
स्वरा : ज़िद। हाँ शायद उसकी भी तो ये ज़िद ही थीं कि वो विभय को तलाक देना चाहती थीं, उसे अब कोई समझौता मंज़ूर नहीं था, और हो भी क्यूं विभय नें तो कभी उसके लिये कोई वक्त नहीं निकाला था। जब भी कोई बात करो तो बात-बात पे हाथ उठा देता था, आखिर किसे जाकर कहती। परेशां होकर ही उसनें ये निर्णय लिया था कि अब वह विभय का साथ छोड देगी।
लेकिन उसके दिमाग में अपनी माँ की कहीं बात हर-वक्त घूमा करती : बेटा। रिश्तें तो बस रिश्तें होतें हैं उन्हें निभाना या छोडना तो इंसानों पे निर्भर करता हैं। बेटा कोई इंसान बुरा नहीं होता, बुरें तो बस हालात हुआ करतें हैं। अग़र उस बुरें से वक्त में जो तुम्हारें साथ हैं वो ही तुम्हारा अपना हैं।
लेकिन माँ की आँखों से देखी ज़िन्दगी जैसे उसे कुछ और ही लगा करती थीं, वो सोचती आखिर माँ को क्या पता के बाहर देश के लोग कैसे हुआ करते हैं। यहाँ अपनों और परायों में फर्क करना उतना ही मुश्किल हुआ करता हैं जितना किसी नयें बाजार में जुआ खेलना। सारें खिलाडी नयें होतें हैं और शिकार खुद का होता हैं। स्वरा ये सब कुछ सोच समझ के ही विभय का साथ छोडनें का निश्चित निर्णय कर चुकी थीं।
मैम हम जाएं? स्वरा इस बात को सुनके चौंक सी गयी और उनकी तरफ देखकर बोली : कहाँ?
मैम छुट्टी हो गयी अब हम घर जाऐंगे, इसका काम मैं फिर लिख दूगां घर जाकर, शायद वो मान जाएं।
स्वरा उन दोनों बच्चों को जातें हुएं देखनें लगी और फिर अतीत के पन्नों में डूबनें लगी। क्या ऐसा नहीं हो सकता की फिर से वही लम्हा आ जाएं, विभय मुझे फिर से समझनें लगे, मेरा ख्याल करनें लगे। नहीं-नहीं स्वरा तू ये क्या सोच रही हैं, ऐसा नहीं हो सकता। उससे आज मिल के बात करनी ही होगी। स्वरा ये सोच के उठी और फिर टेक्सी स्टेंड की तरफ बढ गयी।
भैया, न्यू विहार चलोगें?
आईये मैडम बिल्कुल चलेंगे। न्यू विहार में कहाँ?
स्वरा : कहीं भी उतार देना भैया।
ड्राइवर : मतलब, नहीं समझा मैडम।
स्वरा : फस्ट क्रास पे ही ड्राप कर देना।
ड्राइवर: तो ऐसा कहिए ना, मैडम।
फिर टेक्सी अपनी स्पीड में चल पडी।
आखिर स्वरा को तो अब पता ही नहीं की विभय रहता भी कहाँ हैं, उसनें उसकी आफिस से उसका ये नया ऐड्रस लिया था। वो चाहती तो वो तलाक के पेपर्स अपनें ऐडवोकेट के हाथ भी भिंजवा सकती थीं, मगर वो कहतें हैं ना शक एक बार दिल में घर कर ले तो वो तब-तक दिल से नहीं मिटती जब-तक वो किसी परिणाम को ना आ जाएं। हाँ, बेशक उसे शक था की विभय किसी और लडकी में इंट्रेस्टेड होनें लगा था, और वजह साफ थीं अगर ऐसा ना होता तो वो उससे इतनी दूरी बना के क्यूं रहनें लगता। स्वरा नें उससे इस बात को लेके न-जानें कितनी बार बहस की थीं और आखिर में विभय का हाथ उठ जाता और वो खामोश हो जाती। यहीं नियम हैं, लडकियाँ सहम जाती हैं, इज्जत की परवाह कर जाती हैं, किसी दूसरें के खातिर खुद को कहीं समेट लेती हैं, तो ये नियम गलत हैं जिसमें सिर्फ मजबूरियाँ, हालातें सब एक स्त्री के हाथ को बाँध दे, उसकी हकों को, उसकी आवाजों को कहीं छुपा दे। ऐसे नियम से तो बेनियम का होना अच्छा हैं कम से कम कोई स्वांग तो नहीं रचना होगा। ऐसे नियम जला क्यूं नहीं दिये जातें कभी-कभी सोच के स्वरा खुद में खुद को समेट लेती। यही सामाज़ हैं यहीं विडंबना।
मैडम आ गया न्यू विहार।
स्वरा : कितना हुआ?
ड्राइवर : 200 ₹ ।
स्वरा नें पैसे दिये और पर्स से विभय का ऐड्रेस निकाल कर कालोनी के घरों पे लगे नेम-प्लेट को पढनें लगी।
A-26
Vibhay Vashisthya
General Manager Of Seva-Sadan

स्वरा नें डोर बेल बजाई। लेकिन किसी के कोई जवाब ना देनें पे कुछ कान लगा के सुनने की कोशिश करनें लगी। तभी दरवाजा अचानक खुलता हैं और वो विभय के बाहों में गिर जाती हैं, वही एहसास, वही स्पर्श, वही ख्याल सब कुछ तो उसे पहलें सा कितना अच्छा लग रहा था। ऐसे लग रहा था मानों उसकी पूरी थकान अब जाकर दूर हुई हैं। उसकी शिकायतें जैसे अब उससे खैर माँगनें लगी है। फिर अचानक कुछ ख्याल सा करके वो संभल गयी और फिर नारमोल होतें हुएं बोली : विभय मुझे तुमसे इस पेपर पे साइन चाहिए।
विभय : हाँ-हाँ, कर दूंगा। पर कितनी दिन बाद आयी हो, बैठों तो सही, ये बताओ क्या लोगी?
स्वरा : नहीं, कुछ नहीं। तुम बस साइन कर दो, मुझे अब और भी बहोत से काम होते है। मैं जल्दी में हूँ।
विभय : तुम जाना चाहती हो?
विभय की इस बात को सुनकर वो चौंक गयी, क्या आखिर सचमुच वो उसे छोडकर जाना चाहती थीं। तो ऐसा क्यूं था कि वो हर- वक्त अभी भी उसके ख्यालों में जिंदा रहना चाहती थीं। ऐसा तो नहीं होना था वो आज की पढी-लिखी कामकाज़ी महिला थीं। लेकिन वो कहते है ना प्यार कभी मरता नहीं, रिश्तों के कभी खून नहीं होते, लेकिन ये सब तो बस कहनें-समझनें की बातें हैं, सब झूठ हैं झूठ, एक सफेद झूठ।
विभय : किस सोच में हो, अग़र तुम जाना चाहती तो बताओ मैं भी बाहर चलता हूँ तुम्हारें साथ, तुम्हें छोड दूँगा।
स्वरा : नहीं, इसकी कोई जरूरत नहीं, तुम बस मुझे इस बोझ से रिहा करो।
कहतें हुएं स्वरा नें विभय के तरफ पेन बढाया और फिर एकदम से ठिठक गयी। विभय के नाक से खून गिर रही थीं।
स्वरा एकदम से अपनें पल्लूं को लेकर विभय के नाक को साफ करनें लगी, उसके सर को अपनें गोद में ले लिया और वही फर्श पे नीचें बैठ गयी।
विभय बस एकदम से उसे देखे जा रहा था जैसे मानों उसे एक पल में ही जन्नत नसीब हो गयी हो। कितना सुकून था स्वरा की बाहों में उसे, अब तो उसे मौत का कोई खौफ भी नहीं था, विभय की आँखों से अब आँसू मोतियों की तरह गिर रहें थें और वो धीरें-धीरें बेहोशी में खोनें लगा था। स्वरा की वो बेचैंन सी आवाज बस उसके कानों में जा पा रही थीं, जो वो जोर-जोर से हर दूसरें पल अपनें साँस लेने के साथ ले लेती, मानों जैसे उसे ये लग रहा था अगर एक पल भी वो ये नाम लेने से चूकी तो वो अपनी ज़िन्दगी से भी चूक जाऐगी।
स्वरा ने जल्दी से मोबाईल उठाया और डाक्टर को फोन करनें लगी।
डाक्टर : सही किया आपनें यहाँ आकर। कुछ दिन ही मगर अब सुकून से तो गुजार लेंगे। मैनें पहलें ही कहा था यार! भाभी जी को सब कुछ बता दे। मग़र दलीलें साहब के तो ऐसे होतें हें पूछों मत और आपसे बेहतर ये कौन जान सकता हैं आप तो खुद इनकी शायरी से कभी मुहब्बत किया करती थीं।
स्वरा जैसे सारी बातों को अनसुना करके एकदम से खामोश होकर बैठ गयी, जैसे उसे अब किसी बात की कोई परवाह नहीं थीं। वो डाक्टर की तरफ मुडकर बोली : आखिर बात क्या हैं?
डाक्टर : मतलब, विभय नें आपको अभी तक कुछ नहीं बताया। ओह माय गाड!
स्वरा : क्या हुआ हैं इन्हें? आवाज इतनी भारी जैसे किसी तूफानी बारिश होनें से पहलें वहाँ की घटाएं किया करती हैं। गला पूरा सूखा-सूखा सा, आँखें इतनी भींगी जैसे कोई समुनदर हो।
डाक्टर स्वरा की हालत को देखकर परेशां, आज वो ये बात अपनी कसम तोड के कह लेना चाहता था जो कभी उसनें अपनें सबसे बेहतरीन दोस्त से की थीं। आज वो उन सभी हालातों से पर्दा हटा देना चाहता था जो अनचाहें में उनकी ज़िन्दगी में हो गया था।
डाक्टर ने स्वरा की तरफ देखकर कहा : सुन पाओगी?
स्वरा : बिन सुने तो ऐसे भी मर जाऊँगी।
डाक्टर : ना कहो, ऐसी बात। विभय तो इसी बात से डरता था।
स्वरा : अब बस भी करो, अब सब्र का बाँध मुझमें टूट गया हैं, इससे पहले में बिखर जाऊँ और फिर खुद को समेट ना पाऊँ, तुम दया करके मुझे वो सब बता दो जिसको मैं जाननें का हक रखती हूँ, प्लीज़।
डाक्टर : विभय को हाइयपोथेलेमस हैमरटोमा [ Hypothalamus hamartoma ] हैं, एण्ड ही इज ओन हीज़ लास्ट स्टेज़। आइ एम सारी, भाभी फार ऐवरी-थींग। आई वास... .. ..
मग़र स्वरा अब उसकी आवाजों से दूर होना चाहती थीं, उसे अपनी कानों पे यकीन नहीं हो रहा था, वो उन आवाजों से खुद को कही दूर कर लेना चाहती थीं, वो अपनी आँखों से बहती आँसूओं को तो ना रोक पायी थीं मग़र उसनें अपनें अंदर ही अपनी आवाज को दबा दिया था। वो आज खुल के रो लेना चाहती थीं, मगर उसे जिस काँधे की जरूरत थीं, आज वो इस हाल में भी नहीं की उसकी आँखों की आँसूओं को देख सकें। स्वरा अब खुद ही खुद में शर्म से गढनें लगी। कितनी गलत खुद को साबित कर लिया था उसनें। बात ये थीं, विभय ये नहीं चाहता था की उसके साथ स्वरा की भी ज़िन्दगी कही रूक जाएं। वो खुद को उसकी यादों में ना मारें। आज स्वरा को अपनें सारें किये पे पछतावा हो रहा था।
मग़र कहतें हैं ना जब इंसान अच्छें होतें हैं, उनके साथ भी सब अच्छा होता हैं। हाँ, यकीनन कुछ वक्त लग जाता हैं, मगर वक्त अपनें साथ वो इंसान लेकर आता हैं जो उसके सभी घाव को मरहम से भर देता हैं। यही दस्तूर है। अब तक विभय का हाथ स्वरा के कंधे पे आ गए थें, उसनें स्वरा को अपनी तरफ किया, उसके जुल्फें सवारनें लगा तो कभी उसकी आँखों से गिर रहें उन कतरें को उसकी नर्म गालों से हटानें लगा। दोनों एक-दूसरें को देखनें लगे, दोनों एक दूसरें के आलिंगन में आ गए। डाक्टर उन्हें एक साथ देखकर मुस्कुरा रहा था। स्वरा की आँखों में देखकर उसनें फिर वही शे’र गुनगुना दिया जो पहली बार उसनें सिर्फ और सिर्फ उसके लिये लिखा था।

के आ जाओ अब शर्मांना बहोत हुआ
मेरे दिल को यूं भरमाना बहोत हुआ।

तुम्हारें खातिर अभ्भी ये लिक्खा मैनें
सीनें लग जाओ जमाना बहोत हुआ।

नितेश वर्मा

एक कहानी : बड़े घर

और इसमें मेरा हिस्सा भी है भाई, मैं बस अपना हिस्सा चाहता हूँ और कुछ नहीं। आज मुझे जरूरत आन पड़ी है, कल किसी दूसरे को भी आ सकती है। और मैं नहीं चाहता की मैं अपने हिस्से के लिये अपनों के साथ कोट-कचहरी करूँ।
रहमान के आँखों से आँसू इस तरह निकल पड़े, जैसे किसी सोये हुए ज्वालामुखी से एकदम लावा निकलता है। रहमान के दो बेटों में से एक, आजम जो शहर में रहमान के कारोबार को देखता था उसे तबाह कर आज उसी के सामने अपने घर को बेच के हिस्सा करने की बात कर रहा है। दरअसल आजम बुरी लतों का शिकार है, उसके इसी बर्ताव से तंग आकर रहमान ने उसे अपना कारोबार देखने के लिये शहर में भेज दिया था। मगर किसे पता था कि वो सुधरने की जगह सबकुछ बर्बाद कर देगा।
आज इस बड़े घर की हालत ऐसी है कि सँभाले नहीं सँभलती हैं। रहमान का छोटा बेटा साहिर रहमान के साथ ही रहता है और उसके साथ ही कुछ छोटे-छोटे कामों को करके गुजारा करता है, बात पहले जैसी नहीं है फिर भी जिन्दगी गुजर-बसर, खुश रहने के लिये काफी है। मगर ये घर भी अब नहीं रहेगा तो फिर, ये सोच-सोच के रहमान हाताश हो जाता।
जैसे-तैसे करकें रहमान ने कुछ पैसे बाज़ार से उधार करकें आजम को दे दिया। और कहा कमजर्फ आ इस पेपर पे साइन कर की अब तेरा इस घर में कोई हिस्सा नहीं है, तूने अपने बाप से अपने हिस्से को बेच कर एक रकम वसूल किया है। आज रहमान खुद के बनाये घर को फिर से एक भुगतान करकें खरीद रहा था।
आजम की लापरवाही अब रहमान, उसके छोटे बेटे साहिर और उसकी बहूँ इरम को भुगतनी हैं। बाज़ार से लिया कर्जा इतना ज्यादा है कि वह यहाँ की कमाई से नहीं उतारा जा सकता, इसी बात को समझकर साहिर शहर कमाने को चला जाता है। इरम और अपने बड़े घर की इज्जत को जिंदा रखने के लिये रहमान अपने काम को यही रखकर देखते हैं। रहमान सबको यही बताता है कि दोनों भाई शहर कमाने गये हैं, कारोबार बढ़ा रहे हैं। इधर साहूकारों का तकाजा हैं। इरम अपने पढे-लिखें होने के कारण उनकी कुछ करना चाहती हैं, लेकिन रहमान का कहना है बड़े घर की औरतें ऐसा सोचती भी नहीं। इरम को आज तकलीफ होती हैं, ऐसा क्यूं होता हैं कि सिर्फ लडके ही जिम्मेदार हुआ करते हैं, उन्हें इसका हक क्यूं ये सामाज देता है।
साहिर के भेजे पैसों से कर्ज़ का तो भुगतान हो जाता है मगर घर के भी तो खर्च होते हैं, जो बड़े घर मे बैठें रहतीं है उनकी भी तो जरूरतें होती हैं। अब इरम अपने लोगों को इस हालत में नहीं देख सकती और वैसे भी पर्दा चेहरे पे कब तक रहता है।
इरम आज अपने घर की इज्जत बुनने को निकलीं हैं, वो आज एक स्कूल में बच्चों को पढाने गयी है और रहमान ने उसे आज रोका भी नहीं क्योंकि वो जान गया है इज्जत काम करने से बनता है, वो औरत और मर्द में फर्क नहीं करता।

नितेश वर्मा

सुहासी: एक जुबां

सुहासी से अभय की दोस्ती ऐसी थीं की बात कभी भी गर्ल-फ्रेंड वाली बन सकती थीं और गर्ल-फ्रेंड के बाद शादी की।
सुहासी अपनें नाम की जैसी हर पल मुस्कुरानें वाली। जिंदगी को खुशियों से जीनें वाली। अभय के पूछनें पे खिलखिला ये बतानें वाली की सुहासीं का अर्थ ही हैं जिसकी हंसी सुन्दर हो और मेरी हैं तो मेरे पापा ने मेरा नाम सुहासी रखा हैं।
अभय भी अपनें नाम के जैसा बिना किसी भय के जीनें वाला। किसी भी बातों का कोई भय नहीं, जो सच हैं उसको समझ के, उसको मान के जीनें वाला।
नियती को कुछ और मंज़ूर होता हैं, एक रोज़ शापिंग से आतें वक्त कुछ गुंडे-बदमाश अभय और सुहासीं से छीना-झपटी करते हैं फिर अभय को लहू-लूहान करकें सुहासीं का बलात्कार कर देते हैं। समय जैसे बदल जाता हैं, वो प्यार, वो शादी के किस्सें किताबी लगनें लगते है। सामाज़ सुहासीं को जिम्मेवार ठहराता हैं।
अभय के माँ-बाप ऐसी पीडित लडकी को अपनें घर की बहू बनानें को तैयार नहीं हैं, जिससे कभी उनका बेटा या अब भी प्यार करता हो। ऐसा करके वो अपनें कुल-खानदान को बदनाम नहीं करना चाहतें हैं। जबकि सब ये जानते हुएं भी कि उस वक्त अभय भी सुहासीं के साथ था, वो उसे उस वक्त ना बचा सका और अभी भी वो कुछ कर नहीं पा रहा या करना नहीं चाहता।
सुहासीं का हाल बुरा हैं, वो अपनें उस अभय को याद करके कभी आँसू बहाती जो सिर्फ और सिर्फ कभी उसका हुआ करता था तो कभी हुएं अपनें पे उस ज़ुर्म को सोचकर अंदर तक टूट जाती। उससे उसकी हंसी छीन गयी थीं, उसका नाम उससे ले लिया गया था, उसकी इज्जत लूट लीं गयी थी। क्या अब वो मजबूर हो गयी थीं।
सुहासीं के माँ-बाप का हाल बिलकुल उसी माँ-बाप की तरह था जिनकी बेटी के साथ ये दुर्व्यहार हुआ हो। फिर भी हिम्मत जुटा के अपनें बेटी को समेटनें की एक कोशिश करते हैं। सुहासीं अपनें माँ-बाप को अपनी हालत के कारण इतनी परेशान देखकर फिर से जिंदगी जीनें की कोशिश करती हैं, वो बाहर निकल फिर कुछ नये सिरे से जीनें की चाह रखती हैं।
बाहर निकल सुहासीं खुद पे शर्मिंदा हैं। अखबारें कभी कुछ तो कभी कुछ कहती हैं, मिडिया उससे तरह-तरह की सवालें करती हैं, लोग उसे देख आपस में फुसफुसानें लगते हैं, उससे दूरी बनानें लगते हैं, अपनें बच्चें को आंटियाँ और मायें आँचल में छुपानें लगती हैं। ऐसा देख जैसे उसे लगता हैं के ये रस्तें की बेजान दीवारें भी उससे कुछ पूछ रही हैं, कुछ छुपा रही है। सुहासीं ऐसे सामाज को देखकर खुद ग्लानि से भर जाती हैं।
एक पार्टी फंक्शन में फिर अभय से मुलाकात होती हैं, जो ना के बराबर होती हैं। सुहासीं अभय को जानती हैं, भले से वो कुछ भी कर रहा हो या उससे कुछ कराया जा रहा हो वो सुहासीं को इस हालत में नहीं देख सकता। सुहासीं उससे खुद को भूला देनें को कहती हैं। उसे अभय की कोई हमदर्दी की जरूरत नहीं, वो नहीं चाहती की अभय उससे शादी कर उसपे कोई दया दिखाएं, कोई उपकार करें या धौंस जमाएं।
महफिल के लोग उसे देख फिर से वही एक बात दुहरातें हैं, हाँ इसी का रेप हुआ था। पता ना कैसे जी रही हैं अब-तक और कोई होता तो शर्म के मारें मर गया होता। देखनें में तो भली ही लगे हैं, पता ना अंदर क्या हैं। अब पता ना कैसे रेप हो गया, गलतियाँ तो भाई आजकल लडकियों में भी होता हैं। जितनी लोग उतनी बातें, जितनी रंग उतनें जुबां रंगीन।
महफिल की खामोशी टूटती हैं, अभय फिर से जिंदा होता हैं। वो खुद को वहाँ ज़िम्मेवार ठहराता हैं। गलती किसकी रहती हैं, गलती कौन करता हैं, गलती क्यूं हुईं इन सब को दरकिनार कर वो उन बदमाशों की अपराध को बताता हैं। सामाज को उनकी गलतियाँ बताता हैं, उसी सामाज की एक लडकी को उसी सामाज से ठुकराया हुआ दिखाता हैं। उस लडकी की आत्मीयता को दिखाता हैं।
सुहासीं को फिर से उसका प्यार अभय मिल जाता हैं। वो लोगों को एक नयी नज़र से खुद को दिखता हुआ देखकर खुश हैं। एक उम्मीद की किरण जगती हैं, उसे कुछ बदलता हुआ दिखता हैं, एक शुरूआत सा, मग़र वो इससे भी खुश हैं, सुहासीं की हंसी फिर से वापस आ जाती हैं।
सोच : एक लडकी का बलात्कार एक बलात्कारी सिर्फ एक बार करता हैं, फिर ये जमाना हर-बार उसका बलात्कार करता हैं। उस बलात्कारी और फिर इस पूजें जानें वालें सामाज़ में कौन समझदार हैं, दोनों फिर एक ही रंग के लगनें लगते हैं। सज़ा देना कानून का काम हैं, मग़र उस पीडित लडकी का साथ देना हमारा काम हैं, इस सामाज़ का काम हैं। अपनें कर्तव्य को समझें और जिम्मेदार बनें ना की जिम्मेवार।

A girl is raped by a rapist at once, then after this cruel society will rape her at every second of her life.
Nitesh Verma