Monday 14 July 2014

..तस्वीरें बदलती ज़िन्दगी की.. [Tasverein Badalti Zindagi Ki]

मेरी चौथी सेमेस्टर बीत चुकी थीं और मैं अपने घर बेतिया आ चुका था । पूरें 2 महीनें की छुट्टी हुई थीं । मैं तो ये सोच के ही घर आया था चाहें कुछ भी हो जाएँ, चाहें जितनी भी गाली क्यूँ ना सुननी पडें मैं अपनी पूरी नींद पूरी करूँगां आखिर परीक्षा में अपनी आँखें रेंत-रेंत के  पूरी 1 दिन वाली लगन लगाई हैं । कुल सात रातें जागें हैं मैंनें, जगना भी था आखिर पूरें 6 महीनें जो ऐशं किए थें मैनें..

ट्रिंग ट्रिंग..

अचानक मेरे मोबाइल ने मेरे ध्यान को भ्रमित किया।
दी कालिंग!!
मैं : कैसी हो?
दी : ठीक! तुम घर आ गए?
मैं : हाँ.. और तुम कब आ रही हो?
दी : 1-2 घंटें में ट्रेन में ही हैं अभी
मैं : अकेले हो क्या?
दी : नहीं, और सब भी हैं एक तुम ही बी-टेक थोडें ही ना करतें हो पूरें दुनियां में उनके भी भाई करते हैं  [तनुक अंदाज में]
मैं : इट मिन्स तुम बस मुझसे मिलने के लिए आ रहीं हो [हंसते हुएँ]
दी : हींहींहींहींहीं [चिढातें हुएँ] हो गया तुम्हारा.. तुमको सोने से फुरसत मिलेगा तब ना कोइ तुमसे मिलेगा.. यू बीजी मैन..!
मैं : रहने दो माँ से बात करना है तो बोलो।
दी : क्या हुआ गुस्सा हो गये क्या?
मैं : नहीं बीजी, ओकेह देन बाय!
दी : हाँ हाँ बाय [चिढाते हुएँ]

कब आ रही हैं? लडकी ना हैं चिंता हो जाती हैं! [माँ ने एक ही साँस में अपनी सारी व्यथा सुना दी]
मैं : अरे! ट्रेन में हैं , आ जाऐगी 1 घंटे में, और साथ में उनके दोस्त भी तो हैं । और अभी टाइम ही क्या हुआ हैं 1:00 अपराहन! आ जाऐगी [ये कहते हुए मैंनें माँ को दिलासा दिलायां]
माँ मेरी बातें सुन के कुछ चुप हो गइ, और फिर अचानक : तुम खाना खाओगें या फिर निशा को आने दूँ ।
मैं : आने दो । निशा मेरी छोटी बहन जो आँठवीं में पढती हैं विद्यालय खुले होने के कारण विद्यालय गइ हुई हैं ।
मैं : माँ ! माँ..
माँ : हान्न! [माँ ने हाँमी भरी जबकी उनकी निगाहें टेलीविज़न के किसी सास-बहू वाली असमंजस परिस्थिति में पडी हुई थीं]
मैं : पापा कहां गए हैं?
माँ : हन्नअअ! तुम्हारें लिये ही गए हैं नदी किनारें वाला ज़मीन बेचने! [माँ ने टीभी से नज़र हटाकर और भावुक होकर]
मैं : आआएएएंएं ! मेरे लिये! अब मैंने क्या कर दिया [बुदबुदाते हुए, जिससे मेरे सर पे दो असमंजस की रेखाएँ भी पड गइ]
माँ : हाँ ! उनको अभी महीना मिले 5 महीनें हो गये हैं.. और अब अगस्त में ही सारें पैंसे मिलेंगें, तब-तक काँलेज़ वाले मानेंगें तुम्हारे । वैसे भी उसको बेचना ही था, क्या फायदा उस जमीन का 6 महीनें पानी से भरा रहता हैं और 6 महीनें तक सूखता रहता हैं । फिर अगस्त में पैसा मिल रहा हैं ना तो कचहरी के पास वाला जमीन ले लेंगें बाद में तुम्हारें खातिर भी वो बहोत सही रहेगा । क्यूँ?
माँ ने उस क्यूँ से पूरें खरीद-बिक्र का कारोबार मेरे सर मड दिया जैसे मैं चाहूँगाँ तभी वो हाँ होगा वर्ना उस ना लक्ष्मण रेखा को कौन काटेंगा ।
तुम क्या सोच रहे हो? अचानक पापा घर में घुसते ही बोलें ।
मैं : प्रणाम पापा! [मैंने पैर छू के प्रणाम किया]
पापा : खुश रहो! [आशीर्वाद देते हुए वो मेरे एक तरफ बैठ गए]
पापा : तुम कब आए?
मैं : अभी आधे घंटे पहले
आ हाँअअ अअ लिजिए! [माँ ने पानी का एक बडा ग्लास पापा को देते हुएँ कहा]
पापा : ठीक से दो पूरा भर देती हो एक बार में ही [पानी का ग्लास हाथ में लेते हुए नाराजगी में कहा]
पापा : तुमको कितना चाहिए अभी तत्काल? [पापा ने आधा ग्लास पानी पिकर ये पूछा]
मैं एक घनी सोच में!
माँ : हान! जितना चाहिए उतना बताओ। अब बताओगे तब ना कुछ इन्तेजाम होगा। [किवाड के सहारें खडी माँ ने मेरी घनी सोच को तोडते हुए कहा]
मैं : देख लिजिए आपको तो सब पता हैं ना.. आधा-आधा दे देंगें कालेज और हाँस्टल में आखिर रोकने से फायदा क्या हैं? जब आखिर में देना तो हैं ही..
पापा : वहीं ना पूछ रहें हैं कितना? [पापा ने मेरी बात को अर्थियां सा दिया]
मैं [बेशर्म होकर] : 35 कालेज ऐन्ड 30 हास्टल में मान लिजिए 70 हजार बूक्स भी तो लेना होगा ही ना!
पापा [माँ की तरफ देखते हुए] : हाँहांअअ ! अच्छा ठीक हैं । अभी रहना हैं ना 20 जुलाई तक?
मैं : हाँ ! टिकट 24 का हैं ।
भैया भइयां ! ओ तेरी निशा और दी भी साथ आ रही थी ! [मैंने अपनी निगाहें उपर करके देखा]
मैं : तुम तो बाद में आने वाली थीं? [मैंने दी से प्रश्नवादी होकर पूछा]
दी : सरप्राइज़ ! होप्स यू गोट दिस वर्ड्स । [दी ने मेरा मूड खराब करते हुए कहा]
हाँ हान ! भाई को सरप्राइज़ देते-देते माँ की कभी जान ही निकाल देना [माँ ने दी की और देखते हुए कहा]
दी मुस्कुरातें हुए माँ और पापा को प्रणाम करती हैं ।
प्रतिउत्तर में : खुश रहो! खुश रहो!

ऐ खाना खा लो तुम्म सब [माँ ने ऊँची आवाज़ में किचन की और जातें हुए कहा]
माँ [पीछे मुडकर पापा की ओर देखकर] : आप भी खा लिजिएँ ना थोडा सा ।
पापा : कितना खिलाओगी? और हम दूबारा कब खातें हैं ? [कहतें हुएं पापा पानी का ग्लास निशा की तरफ बढाते हैं]
माँ : अच्छा! मत खाइयें नहीं खातें हैं तो हम थोडा खा लेते है इन सबके साथ । [रसोइघर की तरफ जातें हुए माँ ने कहा]
निशा : ऐ माँ ! कितना खाओगी? सुबह में ही तो मेरे साथ 4 पराठें खाई थीं।
माँ [गुस्से में] : हां हाँ! तुम और बनाओ पडोसी हमेशा कहती रहती हैं कितनी पतली होती जा रहीं हैं? [माँ ने शायद अपने खाने के सफाई में ये सब कहा होगा]
मैं : चुप कर पगली । [निशा को मैंने डाँटते हुए कहा]
दी : हानन! खाओगी नहीं सच में कितनी पतली हो गइ हो? [दी ने बात को सँभालते हुए कहा]

हम सारें खाने की मेज़ पर और पापा बाजार जानें लगतें हैं..

माँ : पनीर भी लेते आइयेगा सिबू के लिए..
मैं [माँ की बातों को कांटते हुए] : ना ना ! रहने दीजिऐगा.. अब पनीर नहीं खाना । [हाँस्टल के पनीर को याद करते हुएं छीछी यार]
माँ : अंएएए ! क्या तुम भी मिट ही खाओगे क्या? [माँ ने उत्सुक होकर पूछा]
मैं [मुँह बिचकाते हुए] : ये मैनें कब कह दिया की मैंनें ये खाना शुरू कर दिया हैं? मेरा बस अब पनीर से मूड भर गया हैं।
माँ [तनुक स्वर में] : कभी मिट से मन भर जाता हैं तो कभी पनीर से । ऐ बाबू! क्या खाओगे?, तुम्हारें लिए कहाँ से खाना मँगायां जाए? [माँ ने अपना दुखडा सुनाते हुए कहा]
मैंने माँ की बातों का कोइ उत्तर नहीं दिया और जैसे-तैसे अपने थाली को पूरा करके अपने कमरे की ओर चल दिया । सिबू मेरा भी मोबाइल चार्ज़िंग में लगा देना डिस्चार्ज हैं [दी ने मुझें अंदर जाता हुआ देख के कहा]
मैं : हमम्म्म ! ठीक है ।
दी : टेबल पे रख्खी होगी ले लेना ।
मैं : चुप कर यार लगा दिया है! [मैंने बेरुखी में कहा]

नितेश नितेश बाहर आ।

मैं [कमरे के अंदर से ही] : आया भाई! 2 मिनट रूको !
मैने ये कहकर बाँलकोनी से बाहर देखा, कृष्णा और मयूर अपने साथ कुछ जाने-पहचाने और कुछ अंज़ाने चेहरों के साथ क्रिकेट का सामान लिए मेरे द्वार पे मेरे इन्तजार में खडे थे ।
मैंने बिना देर किए तेजी से नीचे उतरनें लगा ये सोच के कहीं ये आपस में बात करते-करते एक-दूसरें को गाली ना बक दे ।
मैं [नीचे उतर के] : हाँय गाइस!
मयूर : हाँय भाई! [ और मुझे देखकर कृष्णा ने अपने चेहरें पे एक बडी मुस्कान बिखेर दी और मेरे गले लग गया]
ओए हो गया तुम्हारा भरत मिलाप तो चले । [मयूर ने कंधे पे बैट उठाते हुए कहा]
मैं : हान हाँ बे! चल.. और भरत मिलाप ये क्या होता हैं, गँवार?
मयूर : जब प्रेमी-प्रेमिका मिलते हैं ना तब ये मिलाप होता हैं । [मयूर ने मेरा मज़ाक उडाते हुए कहा]
ये सुन सारें हँसने लगे और हम खेल के मैदान की ओर चल दिए।
तु कब आया भाई ? [मैंने कृष्णा के करीब जाके ये पूछा]
कृष्णा : भाई कल शाम ही आया।
मैं : भाई तेरी पढाई कैसी चल रही हैं ?
कृष्णा : मस्त भाई! इन्फेक्ट इस बार तेरा भाई यूनिर्वसिटी के टाँप टेन में होगा । [कृष्णा ने मुस्कुराते हुए कहा]
मैंने उसकी तरफ देखकर एक गहरी मुस्कान अपने चेहरें पे बिखेर दी ।
और तु क्या कर रहा है मयूर? [मैने मयूर के तरफ़ होके पूछा]

मयूर, हम्म्म्म्म! मयूर के पिता को गुजरें हुए तीन साल हो गए हैं वो अपने पिता के मरने के साथ ही अपने टी.एस. चार्ण्क्या जाने के सपनें को अपने अंदर ही जला दिया था.. जो अकले में कभी-कभी उसके चेहरें पे दिख भी जाती थीं। और करता भी क्या? एक भोली माँ और 12 वर्ष की एक छोटी बहन। माँ गाँव की होने की वजह से कम पढी-लिखी हुई थीं । छोटी उम्र में ही काफ़ी बडी चुनौतियों का सामना किया था उसनें। उसनें हिम्मत कभी नहीं छोडी ट्यूसन लगा के दो पैसे कमाता हैं और अपने घर को चलाता हैं और हां कभी-कभी रैलियों में भी जाता हैं। अपने जात-भाईयों में ज़्यादा पढा लिखा हुआ वही हैं और शायद बुलन्द हौसलों वाला भी।

मयूर : आआ हम्म्म्म्म ! भाई अभी मैंने गर्मी की छुट्टी की है ट्यूसन में, तो आजकल मैं बन्धू जी के साथ लगा हुआ हूँ । वो आज-कल उन दलितो और मुस्लमानों को उनकी ज़मीन और उनकी रोटी को दिलानें में लगे हुए हैं ।
मैं : सिर्फ़ दलितों और मुसलमानों को ही क्यूँ ? मेरा मतलब हैं सबको क्यूँ नहीं ? अच्छा छोडो गरीबों को ही उनका हक दिलाते ।
मयूर ; तु कहना क्या चाहता हैं ? [गंभीर होकर]

गाइस गाइस ! क्रिकेट खेले ग्राउण्ड आ गया । [कृष्णा ने बीच में ही ये बोल के मेरी बातों को तोड दिया , फिर भी मन मानकर मैं बैट को लेकर विकेट के तरफ़ चला गया]
कृष्णा : ओए! तेरा ये काँलेज़ नहीं हैं जो तु ही पहले बैटिंग करेगा , हम क्या करने आये हैं ।
मैं : चुप कर बे ! मयूर तु बाँल करा भाई! [मयूर जो एक तरफ़ बाँल लेके खडा था, मुझे सुनके रन-अप लेने के लिए पीछे होके चलने लगा]
मयूर ने एक लम्बी रन-अप लेते हुए एक तेज़ आउट-स्वींग डाली और मैने बैट को गेंद की दिशा में घुमा दिया और गेंद पलक झपकते ही खुली आसमान में मिलने को जाता हुआ दिखाई देने लगा । हमारी आँखें अब गेंद को देख पाने में असमर्थ थीं सूरज़ की किरणों का प्रकोप आजकल कुछ ज़्यादा ही हो गया था ।

अचानक एक तेज़ आवाज फ़्फ़्फ़्फ़्फ़ट्ताक ताअअड्डाक्क्क्क मानो जैसे बिजली फ़ट गयी हों हमारें कान के लालें पड गए ।
बाँल पंडित के घर में गया था और वो भी उनके घर के बाँलकोनी का शीशा तोडके..
सारें लडके तेज़ी से गिरते-पडते भागनें लगे क्यूंकि पकडे जाने पे पंडित गाली सुनाना आज़ शुरू करेगा और खत्म अगली रात को करेगा।
ओएएए तेरी ! तेरी तो आज़ अर्थी निकल गई बेटे ! सारी टेक्निकल डिग्री एक बार में ही मिल जाऐगी आज बहूहूहूहूहूहू [भागते हुए कृष्णा ने ये चिल्लाते हुए कहा]

मै एकदम खामोश , मयूर के साथ जैसे कोई पुतला खडा हो और खडे इन्सान के सहारें बस वो खडा हो।
मैंने सोचा कोइ गाली नहीं 1 मिनट से ज़्यादा समय हो गया गेंद को शीशें से लगे हुए , और ये शाला मयूर मेरे साथ अभी तक क्यूँ खडा है ? गेंद मैने मारी है, शीशें मैने तोडे हैं, फिर ये क्यूँ बुत बने रूका पडा है ? फिर झट से मैने अपना सर उठाया और और बस मैं बस देखता रह गया..

मैं : ओ तेरी क्या बात हैं ? [एक 19-20 वर्ष की लडकी जो उत्तरी-भारतीय पोशाक सलवार-सूट में खडी थीं चेहरे पे हजार परेशानियाँ लिए मेरे ही तरफ़ देखे जा रही थीं जैसे मै उसका कोइ बडा कुसूरवार होऊं । शाम की बहती ठंडी हवाओ के कारण उसकी जुल्फ़ें उसकी काबू में नहीं थीं और बहती हवाओ के बीच उसका अपने जुल्फ़ों से परेशान होना उसे और भी खुबसूरत बनाने में कामयाब हो रहा था।]

अचानक मेरी नज़रें उस लडकी से हट के मयूर के तरफ़ गई, अबे ये तो मेरी ही लगा देगा [मयूर भी उसी लडकी को पता ना कब से देखा जा रहा था।]
मैं : चल बे! पीछे हट शालें मेरे सपने को तोडने पे लगा है जो मैने अभी 2 मिनट पहले ही देखें हैं दोस्त कि खुशी बर्दास्त नहीं होती ना तुमलोगों से [कहते- कहते मैने गोग्ल्स लगाकर उसके कंधे का सहारा लेके एक लम्बी छ्लांग लगा के मयूर से दो कदम आगे होते हुए , बेटा बाप , बाप ही होता हैं]
और मै अपना सीना चौडा करतें हुए उपर की तरफ़ जहा वो लडकी खडी थीं, देखता हूँ ।

ओ शीट ! पंडित की पाप उसकी बेटी काली-कलूठी.. चेहरा हाथी के जैसा बिना ब्रेक गाली का पिटारा चाहें जो भी नाम दे दो सब सूट करता हैं कमीने पे , डायन हैं एक नम्बर की देख लो उसको तो पूरा का पूरा दिन खराब चला जाता है , कमीनी ने एक बार तो देखते-देखते ही विडियोगेम खराब कर दिया था।
घर में कोई नहीं हैं क्या ? आ रहीं हूँ आँटी से मिलने , वहीं पे सब पता चल जाऐगा [कमीनी ने फिर श्राप बका]
मैं : ओए साँरी ! साँरी अनु यार !
अनु : क्यूँ ? क्या हुआ ! बडा शेर बन रहा था , अब उछ्ल के आगे आ ना बन्दर कहींका।
मयूर [पीछें से मेरे कानों में बुदबुदाते हुए] : इन्सलट हो गयी यार लौण्डियां के सामने।
मैं : चुप कर शाले !
मयूर : हींहींहींहींहींहीं हाँहाँहाँन्न्न्नाआआआ !
मैंने मयूर को नज़र-अंदाज़ करते हुए चुपचाप बस अनु की ओर देखता रहा ये सोच के जाने अब आगे क्या होगा, क्या चल रहा है इस शैतान के खुराफ़ाती दिमाग में।

लेह्ह्ह !अनु ने गेंद को मेरी तरफ़ फ़ेंका, ये बोल रही हैं तो दे रही हूँ बस, अगर दूबारा आया ना तो [गुस्सें में आगे कुछ ना बोल पाई डायन कहींकी]
मैं गेंद को खुशी से लपकते हुए, और फिर उस लडकी की तरफ देख के मुस्कां के फ़िल्ड की तरफ भागने लगा जैसे मैंने कोइ वर्ल्ड-कप जीत लिया हो !
मैं : अबे किसकी गेंद है यार ले ले ! जान बची यार कसम से !
कृष्णा : ला दे मेरी हैं !
मैं : हरामी शालें ! [हल्कें गुस्से और मुस्कुराते हुए में]
पहलें नहीं बता सकता था , गदहें! आंह?
मैं : वैसे ठीक ही किया जो नहीं बताया , आज़ मेरे सपनों की क्वीन मिल गई । [कहते हुए मैने कृष्णा को गले लगा के थैंक्स कहा]
कृष्णा [आशचर्य से मेरी ओर देखके] : आअं क्या ? क़्वीन , पागल हो गया हैं क्या तु ?
मयूर [बात को तोडते हुए] : शालें ! तुने कभी बताया ही नहीं तु अनु को पसंद करता हैं, हम सारें कमीनें उसे चलते-फिरते यूं ही गाली देते रहते हैं, लानत हैं हमारें ज़ीने पर रिश्तों की भी कद्र नहीं हैं हमे।

मैं ये सुनते ही पास के लगे विकेट को उखाड कर मयूर और कृष्णा के पीछें दौडनें लगा रुको कमीनों बताता हूँ कौन हैं तुम्हारा बाप ?
दोनों दौडते हुए मैदान के तरफ़ जाके हाफ़्ते हुए , भाई भाइ आँल टाइम्स !
मैं [हाँफ़्ते हुए] : मेरा भी है ।
मयूर मुझे देखके मुस्कुराता हैं और दौड के आके मुझे गले लगा लेता हैं और कह्ते-कहते रोने लगता हैं भाई बहोत दिन हो गए थें खुद को ऐसे देखे हुए थैंक्स !कृष्णा भी पीछें से मेरे उपर चढते हुए और मयूर को देखकर..
..भाई बाप लोग को ना कभी थैंक्स नहीं कहते !

फिर हम एक-दूसरें से अलग होकर मयूर विकेट उठाने लगता हैं , मैं उसे अपने तरफ खींच कर ,
मैं : बता ना भाई कौन हैं वो ?
कृष्णा : कौन-कौन यार ?
मैं : तु चुप रह यार , तुझे कैसे पता चलेगा तु भी तो कल्ह ही आया हैं ना यहां ।
मयूर : वो उसकी फ़्रेंड है , कोमल नाम हैं उसका ।
कृष्णा : आअह्ह्ह ! कोमल कितना प्यारा नाम हैं ?
मैं [बनावटी गुस्से और थोडा मुस्कुराते हुए] : भाई तु भगवान के खातिर 2 मिनट के लिए चुप हो जा बस , प्लीज़ !
मयूर [मेरी और कृष्णा के बातों को नज़र-अंदाज करते हुए] : हानं यार एन्ड वो तेरे ही कास्ट की भी हैं ।
कृष्णा : तेरी तो निकल पडी , यार! [फिर से पर इस बार ना-जाने उसकी कहीं बात अच्छी लगी]

..और मैनें कृष्णा को देख के मुस्करां दिया । हमारी तरफ़ अभी भी जात-पात का बडा बोल-बाला हैं , शहर बहोत आगे निकल चुका हैं लेकिन ख्यालात अभी भी गड्ढें में गिरें पडे हुए हैं। खैर मुझे इससे क्या? मै कोइ समाज-सुधारक थोडे ही ना हूँ? ये सोच के हमेशा इनसे मैं अपनी नज़रें फेर लेता हूँ!
मयूर [मुझे सोचता हुआ देखके] : ज़्यादा मत सोच! विधायक की बेटी है ! कुछ ज़्यादा सोचा ना तो दिमाग ही निकाल लेंगे तेरी। बंधूजी बता रहे थे काफी मजबूत पार्टी है और काफी अध्दिमाग भी पता ना कब क्या कर बैठे ?
मैं [मुँह बनाते हुए] : ह्म्म्म्म्म्म !
मयूर : हाँ , तु कल से आयेगा हमारे साथ , कृष्णा भी आ रहा हैं । [मयूर ने दोस्ती दावं-पेंच मारते हुए कहा]
मैनें देखा ये सुन कर कृष्णा मुझे देखने लगा जैसे उसने मुझसे कोई सास-बहू ड्रामें वाला उम्मीद लगा के बैठा हो ।
मैं [कृष्णा से नज़रें हटाते हुए] : नहीं यार रहने दे , मेरा वहां क्या काम? , मैं तो टेक्निकल हैंण्ड हूँ ना और वैसे भी कृष्णा का वहां जाना सहीं भी हैं उसके प्रोफ़ेशन से ये मिलता हैं , आज़ ना तो कल उसे इसमें आना ही हैं , और शुरूआत अपनों के साथ हो जाए तो फिर बुरा भी क्या हैं ? मेरा भला वहां क्या काम ? कुछ काम हो तो चलूं ,ये कुछ लगता है सही ,वर्ना ऐसे ही बैठे रहने से क्या फायदा? [मैंने अपना शातिरपन दिखाते हुए कहा]

मयूर [उत्सुकता से] : काम हैं ! काम है , भाई तभी तो कह रहें है , तू टेक्निकल हैण्ड हैं तो जितनी टेक्निकल प्रोब्लमस होंगी.. वो सब तु देखेगा , इससे तुझे भी फायदा होगा तेरी जान-पहचान भी बढेगी और कुछ मान भी । आखिर तेरी पढाई किसी गरीब के काम आ जाए तो भला इसमें बुराई ही क्या हैं ? और तु हमारें बिना करेगा दिन-भर करेगा भी तो क्या करेगा ?

कृष्णा : और वहां काम करने के पैसे भी मिलेंगें , हर डील पे 100 रू और  सोल्यूशन करने पर 300 रू , कम हैं क्या ? [कृष्णा ने बात बनाते हुए कहा]
मैं [उत्सुक होकर] : क्या-क्या डील पे कितना बताया ? [मेरे बातों की लालच की चमक मेरी आँखों में साफ दिखाई दे रहीं थीं]
कृष्णा : 100 रू !
मैं [बच्चों की तरह होकर] : और सोल्यूशन पे ?
मयूर [मुस्कुराते हुए] : 300 यार !
मैं : हींहींहींहींहीं ! याह्ह्ह ओकेह ! अब बस तु टाइम बता आना कबसे होगा वहां मुझे ?
मयूर : 11 बजे कल सुबह कैसा रहेगा ?
मैं : हम्म्म्म ! बिलकुल ठीक ! सही टाइम हैं भाइ.. मैं आराम से आ जाऊँगाँ ।
बातों-बातों में मै अपने घर के पास आ गया था ।
कृष्णा : ओके ! बाँय भाई सी यू टूमौरो ।
मयूर [मुस्कुराते हुए] : बाँय।
मैं : गुड बाँय ! [कहते हुए घर के अन्दर चला गया]

यहीं मेरा बेटा हैं [घर के मेरे अन्दर आते ही पापा ने एक अंजान शक्स से मेरा परिचय कराया]
पापा : बेटा , ये रामजी हैं , यहीं हमारी ज़मीन बिकवा रहें हैं ।
मैं ये सुन के कुछ चुप सा हो गया और नज़रें अपनी नीचे करके कुछ सोचने लगा ।
पाप : तुम क्या सोच रहे हो ? जाओ अन्दर से कुछ नाश्ता ले आओ !
मैं [चुपचाप अन्दर आकर] : माँ जो कुछ हैं दो कोई आया हैं नाश्ते पे !
माँ : टेबल पे रख्खी हुई हैं , ले जाओ । [माँ ने परेशान होते हुए कहा,शायद वो किसी काम में कुछ ज़्यादा ही व्यस्थ थीं]
मैं नाश्ता ले के बाहर आया , जहां पापा और वो डिलर बैठे हुए थे । हां करीब 26-27 साल का होगा, वो कालें घने और छोटे बालों वाला और शरीर से स्वस्थय , और हाथ में एक सस्ता सा हैण्ड-सेट , जैसे देखने से लग जाएं वो काम क्या करता हो ।
मैं : हाँअअअ ! पापा ! [मैंने नाश्तें को एक तरफ़ रखते हुए कहा]
रामजी [गंवारियत से] : आपका काम सोचने का थोडे ही ना हैं , जब आप सोचेंगे तो पढेंगे क्या ?
पर एक छोटी सी कहानी उसने कहीं जो कुछ दिल को लग गई ।

रामजी : जानते हैं वर्मा जी ! एक लडका अपने बाप के साथ शहर पढने जा रहा था, तो पहले सावारी का साधन नहीं था तो लोग पैदल ही आया-जाया करते थें , और लाज़िम सी बात हैं पैदल चलने के कारण भूख लग ही जाती हैं तो उन्हें भी लग गई । तो बेटा से बाप कहता हैं : बेटा भूख लगी हैं !
 बेटा : हां बाबूजी ! ज़ोर की लगी हैं। [भूख के कारण आवाज़ भी कम ही निकल रही हैं]
बाप क्या कहता हैं बेटे से देखिए वर्मा जी।
पापा : हाँन्न्न-हाअअन्न्न ! [उत्सुक होते हुए]
बाप : बेटा , क्या खाया जाएं ?
बेटा : बाबूजी ! चिकन ही खा लेते हैं , ज़्यादा देर तक बना रहेगा और एनर्जी भी रहेगा और चिकन खाए भी कई दिन हो गए , हाँ वहीं सही होगा । [दोनों आपस में विचार-विर्मश करते हुए]
बाप : ठीक हैं ! आओ चलो चलते हैं , और दोनों एक दुकान के पास पहुँचकर ।
बाप : कैसे हैं चिकन भैया ?
दुकानदार : 10 रू भाई-साहब ! [मुस्कुराते हुए]
बाप बेटा की तरफ़ देखता और हाथ में रक्खें पैसें को देखता हैं जो अपनी ज़मीन को बेच कमाएँ थे । बेटे की पढाई के छाँटने के बाद 6 रू शेष बच रहें थें ।
बेटा ये देखकर : बाबूजी ! आगे चलिए ये कुछ ज़्यादा ही कांट रहा हैं।
दुकानदार : हाँ भैया ! तुम देख लो सारी जगह यहीं रेट ! [मुँह बनाते हुएं]
बाप-बेटा ये कहके आगे बढ जाते हैं , पर लाखों प्रयासों के बाद भी , लाख घुमनें के बाद भी कुछ हासिल नहीं होता , तो वो दोनों हार मानके सत्तू खरीद के खा लेते हैं।

पर पर वर्माजी [कहते हुए रामजी के चेहरें पर आचानक प्रसनता की लहर दौड जाती हैं]

मैनें देखा उन बहती शाम की हवाओं को भूल के , पापा उस कहानी के अंत में खुद को डूबोना चाहते हो । उस कहानी में खुद को देख रहें हो , उनकी आँखों में देखके ऐसा प्रतीत हो रहा था ।
रामजी : जब वहीं बाप-बेटा 10 साल बाद , जब वो अमीर हो जाते हैं तब 100 रू चिकन मिल रहा था और अपनी गाडी को जगह-जगह रोक को खा रहें थें । तो हम वहीं कह रहें थें , दुख-सुख ज़िन्दगी में ना आएं तो फिर क्या मज़ा ज़िन्दगी जीने का।
पापा : हाँ हाँ ! एकदम सही ।

रामजी : ठीक हैं , फिर वर्माजी हम कल आपको फ़ोन करते है ।
पापा : जी शुक्रियां !
रामजी चले जाते हैं और पापा घर के अन्दर ।

रात के आँठ बज रहे थें ।

मैनें मोबाईल उठाया और क्रिकेट खेलना शुरू कर दिया ।
दी : इतने दिन बाद आए हो और आते-आते मोबाइल में ही घुस गए । मेरी तैयारी चल रही थीं फिर भी तुमसे मिलने आइ हूँ ।
मैं [मोबाइल में गेम खेलते हुए] : हाँ तो फिर छोड क्यूँ दी ?
दी : ऐसा कुछ नहीं हैं , फिर जा ही रही हूँ सण्डे को , बस तुमसे मिलने आइ थीं ।
मैं [मोबाइल से नज़र हटाते हुए] : मिलने आइ हो तो फिर क्या ले के आइ हो ?
दी : अभी कोइ कमा थोडे ही ना रहें है ? [मुँह बनाते हुए]
मैं : चल ठीक हैं पका मत रहने दे अब बस  कर ,जाओ अब लाइट भी आ गई हैं ।
दी : तुमसे कुछ बात करने आइ थीं ,बट तुम तो कुछ ज़्यादा ही बीज़ी रहने लगे हो ! [कहते हुएं कमरे से बाहर चली गइ]
माँ : ऐ बाबू! मोबाइल में क्या ढूंढ रहे हो ? अब आँख भी खराब कर लोगे क्या ? अब..
माँ के भाषण से तंग आकर मैनें हेड-फ़ोन उठाया और कान में डाला , अब सब कुछ कन्ट्रोल में था।

2 घंटे बाद..

भैया भैया माँ बुला रही हैं खाने के लिए [निशा ने आवाज़ बाहर से ही लगाया]
मैं : आया ! [कहते हुए हेड-फ़ोन उतार के मै बाहर आया] तुम खा ली क्या ?
निशा : हाँ ! क्यूँ मेरे साथ ही खाते क्या ? तो पहले क्यूं नहीं बताएं ?
मैं : चुप कर यार ! [परेशां होता हुआ]
माँ : हां ! लो ! [माँ ने टेबल की एक तरफ़ से खाना मेरे तरफ़ बढाया]
मैं खाना लेते हुएं  ।
निशा : माँ , मुझे बस 2 पराठें देना ।
माँ [परेशान होते हुए] : रूको ! अभी तुम लोगों का तो अलग ही रहता हैं वो कुछ नहीं खाता , कुछ तुम नहीं खाती और वो कुछ नहीं खाती , हम तो बस परेशान ही रहने लगे है]
मैं : लेह्ह ! और बोल झूठ [मुंह बनाते हुएं]
मैंने खाना खाया और अपने कमरें की ओर चल दिया।

अगली सुबह :

नितेश नितेश ! हल्की-हल्की यें आवाज़ मेरे कानों में आ रहीं थीं ।
मैनें नींद में ही कहा : हाँ क्या है? [वो आवाज़ मेरी माँ की थीं जो मुझे करीब 15-20 मिनट से मुझे पुकार रही थीं।]
मैं चुपचाप आँखों को मलता हुआ आँगन में आ गया।
माँ [मुझे देखते हुएं] : कितना सोते रहते हो ?
मैं : क्यूं क्या हुआ अब ?
माँ : कुछ नहीं , जाओ फिर सो जाओ ।
मै : पापा कहां गए हैं ?
माँ : रामजी के पास , लो खा लो । [माँ ने खानें की थाली को मेरे ओर बढातें हुए कहा]
मैं : अभी ! [अचरज़ता से]
माँ : अभी बोल रहे हो ? 10:00 बज रहें हैं । सब अपने-अपने काम पर कब का निकल गए है । और हान कृष्णा और मयूर भी आएं थें ।
मैं [माँ की तरफ़ देखते हुए] : वो क्यूं आए थे ? अभी तो 11:00 बजने में पूरें 1 घंटे कम हैं । [कहते हुए सर खुजाने लगता हूँ]
माँ : पता ना क्या कह रहें थें ? कि बन्धूजी ने आज़ उन्हें पहले मैनें कुछ साफ से सुना नहीं था , मुझे तो खुद कितने काम रहते हैं। [माँ ने अपना दुखडा फिर से सुनाना शुरू किया , और माँ की सारी अधूरी बातों ने मुझे असमन्जस में डाल दिया और ऐसे में मेरी पूरी नींद एक बार में ही टूट गई]

मै : माँ ! मुझे उनके साथ जाना था । मैं नाश्ता करके निकलूंगा और हान शाम तक ही वापस आ पाऊँगा ।
माँ [गंभीर होते हुए] : पागल हो गए हो क्या ? कल से जो करना होगा वो करना अपनी मन का , आज़ तुम्हारें पापा तुमको कभी भी बुला सकते हैं ।
मैं [माँ की तरफ देखते हुए] : क्यूं ?
माँ : शायद ! वो आज़ पैसे मिल जाएं ज़मीन के कहीं.. बोल रहा था आधा आज़ और आधा 4 दिन बाद देगा ।
मैं : इतनी ज़ल्दी ? कल ही तो बात हुआ था , इतनी ज़ल्दी पैसें दे रहा हैं ? क्या बात हैं ?
माँ : सब मेरे किशन-कन्हैया का कमाल हैं । [माँ ने हाथ जोडते हुएं कहा]
मैं : हम्म्म्म्म्म्म ! ठीक है ।
मैनें फिर मयूर को फोन मिलाया : भाई साँरी यार ! आज़ नहीं आ पाऊँगां पापा का काम हैं , कल से पक्का भाई !
मयूर : चल ठीक है लेकिन कल से पक्का यार !
मैं [मुस्कुराते हुएं] : हान हाँ भाई ! 100 % श्योर !
मैंने अपना नाश्ता उठाया और अपने कमरे की ओर चल दिया..
..इंडिया वर्सेज़ वेस्ट-इंडिज़ का सेमीफाइनल देखने।

माँ ने पीछे से फिर आवाज़ लगाया : क्या कर रहो हो ?
मैं [हल्के गुस्सें में] : कोई काम हैं क्या ?
माँ [विनम्रता से] : इतना झिझक क्यूं रहे हो ?
मैं [हुई गलती को सुधारते हुए] : मैच देख रहा हूँ , माँ ! अब पापा जब फोन करेंगे तब ना जाऊँगां वहा ।
माँ : हाँ ठीक हैं ! याद से चले जाना , हम बाज़ार जा रहें हैं उधर से शाम तक ही आ पाऐंगे मेडिकल शाँप भी जाना हैं अभी दवा लेने । [कहते-कहते माँ ने बाहर से दरवाजें को बाहर से बंद किया]
मै :  ठीक हैं । [और मै फिर मैच में रम गया]

शाम के 4:00 बजे के करीब

अचानक नितेश नितेश..
..एक ज़ोर की आवाज़। [बाहर आके मैनें बाँलकोनी से देखा , कृष्णा और मयूर चार-पाँच आदमियों के साथ खडे थें]
मैं [अचरज़ता से] : हां।
कृष्णा [आशावादी होकर] : चलेगा कचहरी रोड.. विधायक जी वालें पार्टी ने दंगा करवा दिया हैं जात-पात का मतभेद कराकर , और पुलिस-प्रशाशन कुछ नहीं कर पा रहीं हैं , गरीब अपने हक के लिए लड रहे हैं लेकिन कमजोर पड रहे हैं , तू चलेगा हमारे साथ , शायद तु कुछ कर सके ।
मैं [बेर्शमों की तरह होकर] : भाई पापा का फोन आने वाला हैं ।
मयूर [नाराज़गी और थोडे गुस्से से] : अरे यार ! मैने कहा था ना वो नही आयेगा , तु हमेशा बेमतलब का ज़िद करता रहता हैं , देख कितना देर हो गया , पता ना वहां क्या होता होगा। [मयूर उसे तेज़ी से गुस्से में सुनाता हुआ चला जा रहा था और मेरी निगाहें उसे जाता हुआ बस देख रहा था]

तभी ये बी एस एनल सीक्स सचिन ने मीड-आँफ़ की ओर एक लम्बा 6 मारा था । मैं दंगे और अपने मित्रों को यूं ही परेशानियों में पडा छोडकर फिर से मैच देखने में रम गया।

आधे घंटे बाद..

ट्रिंग ट्रिंग.. ट्रिंग ट्रिंग !
मयूर काँलिग !
मैं [झुल्लातें हुए] : अब क्या हो गया , ओह्ह्ह तेरी ! चैंन से मैच भी नहीं देखने देते । [फोन उठाते ही मैने मयूर को ये सुना दिया]
मयूर ने जैसे मेरी बातों को अनसुना कर दिया हो और : यार ! तेरे पापा को दंगे में चोट लग गई हैं , हम उन्हें सिटी हाँस्पिटल लेके जा रहे है , तु ज़ल्दी आ वहां । [ये सुनते ही जैसे मुझे साँप सूंघ गया हो,वैसी वाली कुछ हालत हो गइ थीं]
फिर अचानक पता ना मेरे में वैसी शक्ति कहा से आ गई थीं , और मैं बस 15 मिनट में वहा अपने ब्राउन टी-शर्ट और ब्लू लोअर में सिटी हाँस्पिटल पहुँच गया था ।
हास्पिटल पहुँचकर जब मैं आँपरेशन थियेटर के पास पहुँचा मेरी आँखों से अपने-आप आँसू बहने लगे और मैं दीवार के सहारें खडे होके हाँफ्ते हुएं हिम्मत जुटा के अंदर झांक के देखता हूँ पापा को सर पे गहरी चोट लगी हुई थीं । कृष्णा ने पीछें से आके मुझे हिम्मत दी और मैं उसके गले से लिपटकर रोने लगा।

मयूर : भाई ! चिंता की कोई बात नहीं हैं मामूली चोट लगी हैं ठीक हो जाऐंगे तू बैठ..
..और कृष्णा तू चल । [मयूर कृष्णा की तरफ देखते हुए बोला]

मैं [कुछ गंभीर होकर] : आन्नह! क्या बोला ? क्या-क्या बोल रहा हैं , ये तुझे मामूली दिख रहा हैं । तु होश में तो हैं सर से खून बह रहा हैं । बाप हैं वो मेरा तू दोस्त हैं मेरा कोई समाज़-सुधारक नहीं.. जस्ट ग्रो-अप मैन । [मैंने अपना हाथ उसके सर से झंकझोर के कहा]
मयूर [मेरे हाथ को हटाते हुए] : तु पागल हो रहा हैं क्या.. वहां हज़ारों लोगों की ज़ान जा रही हैं ! तेरे जैसे हज़ार बेटे हैं अपने बाप का घर पे आने का इन्तज़ार कर रहें हैं । क्या सबको मैं ये जवाब दे दूंगाँ की मैं तेरी सहानूभुति के कारण रुक गया था और तेरे खुशी के खातिर मैने उनके बाप को मरने दिया था ।
भाई तू बस अभी ज़ज्बाती हो रहा हैं , अंकल को कुछ भी नहीं हुआ हैं सिर पे एक हल्की चोट लगी हैं , डाँक्टर अंदर पट्टी कर ही रही हैं बस 5 मिनट में सब पहले जैसे हो जाऐगा । मैं तेरा दुश्मन थोडे ही ना हूँ ।
कृष्णा [मुझे आश्वासन देते हुए] : हान्न भाई वो ठीक कह रहा हैं , अंकल पट्टी होने के बाद बिल्कुल ठीक हो जाऐंगे और तुम उन्हें घर पे ले जा सकते हो , हमने डाँक्टर से इस बारें में बात कर ली हैं , और कोइ बात होता तो हम क्या ये कहते?
मैं खामोशी में सर हिलाते हुए : ठीक हैं , एंड हां भाई ! थैंक्स यार !
कृष्णा ने जाते वक्त मुझे देखके मुस्कुरा दिया और मयूर जैसे वो किसी घनी सोच में पडा हो , अपना सर नीचे किए ही बाहर चला गया ।
डाँक्टर : नितेश नितेश !
मैं [अधीरता से] : हाँ हाँ ! जी बोलिए सब तो ठीक हैं ना ?
डाँक्टर : चिंता की कोई बात नहीं हैं सब ठीक हैं , बस ध्यान रहे वो अपने दिमाग पे ज़्यादा ज़ोर ना दे , और सब ठीक हैं।
मैं : ओके डाँक्टर , थैंक्स !
मैं अब पापा को लेके घर आ रहा था , दंगे की वज़ह से पूरा शहर बंद था , इसलिए हम पैदल ही चले आ रहे थें । अचानक पीछें से दंगे का एक झुण्ड तेजी में आ रहा था जिसका पहल विधायक का बेटा कर रहा था ।
विधायक का बेटा : ओए ! बुड्ढें को साइड में कर बे !
मैं पापा के साथ होने के कारण अपने गुस्से को पीकर सडक के एक साइड होने लगा । तभी पीछें से विधायक का बेटा मेरे पैर पे एक डंडा मारते हुए..
अबे इधर..!
..लेकिन उस डंडे के लगने कारण मैंने अपना संतुलन खो दिया और पापा अपने सर के बल नीचे गिर गए।
मैं [गुस्से से पीछे मुडते हुए] : ओए हरामी ! रूक शाले ! उसकी शर्ट पकड के उसके सर पे एक ज़ोर का बजा दिया और सडक खून से पल भर में ही भर गया, इसे देख सारे दंगे वाले तितर-बितर हो गए और मै कुछ हतप्रभ सा ! तभी पीछे से मयूर ने आके मुझे सँभाला और कृष्णा पापा को उठाने लगा पापा ठीक थें , वो पापा को घर लेके चला गया और मयूर मुझे समझाते-समझाते करीब घर 11:00 बजे लेकर पहुँचा।

घर पे आया तो देखा सब खुश थें मेरी दी की जाँब इनक्म-टैक्स डिपार्ट्मेन्ट में हो गइ थीं । दी मेरे तरफ दौडते हुए आके लो नितेश! और एक मिठाई मेरे मुँह में डाल दिया और डिब्बा मयूर को पकडा दिया ।
मैं चुपचाप मिठाई को मुँह से निकाल के हाथ में लेता हुआ लेके अपने कमरे में चला गया । मुझे अभी भी यकीं नहीं हो रहा था एक पल में इतना कुछ कैसे हो सकता हैं । किसी तरह मैंने खुद को सँभाला और सर को अपनें तकिएं में डाल के सो गया।

अगली सुबह..

आपके बेटे क नाम वारेन्ट हैं हमारे पास वर्मा बाबू ! [एक हवलदार ने कहा]
इंस्पेक्टर : हाँ वर्माजी आपने सही सुना , आपके बेटे के खिलाफ़ इल्ज़ाम है कि आपके बेटे ने विधायक जी के बेटे पे जानलेवा हमला किया था भरे-बाज़ार । [पापा ये सुनके एकदम स्तभत हो गये , माँ परेशां , मैं दौडता हुआ आँगन में आया और पापा को सँभालने लगा]
पापा [भावुक होते हुए] : शुरूआत उसने करी थीं इंस्पेक्टर साहब।
मैंने हाथ बढा के पापा को चुप कराया और इंस्पेक्टर की ओर देखकर, आप चलिए ।
कृष्णा दौड के मेरे घर की तरफ़ आ रहा था , और  मुझे इंस्पेक्टर के साथ देखके वो कुछ रूक सा गया , और इंस्पेक्टर की तरफ़ दौड के आते हुए उसने कहना शुरू किया ।
कृष्णा : सर ! आप मेरे दोस्त को किस ज़ुर्म में गिरफ़्तार कर रहे है ?
इंस्पेक्टर : विधायक जी के बेटे पर जानलेवा हमला करने के जुर्म में !
कृष्णा : कल के दंगें में बहोतों की जान गई हैं , मेरे दोस्त के पिता आज़ आपके सामनें ही घायल खडे हैं , ज़िन्हें कल वक्त पे अगर हाँस्पिटल नहीं ले जाया जाता तो वो भी आपके किसी दबी फ़ाइल के पन्नों में नज़र आते , जो अभी आपके सामनें मजबूर होके अपने बेटे की रिहाई की गुहार कर रहे हैं ।
इंस्पेक्टर [व्यंगता से, हँसते हुए] : तो आप इनके वकील हैं ?
कृष्णा [गुस्से से] : वकील नहीं हूँ , लेकिन हान वकालत ज़रूर करी हैं और वक्त आने पे इस्तेमाल भी कर सकता हूँ।
इंस्पेक्टर [कृष्णा के करीब आकर] : तो समझिएं वक्त आ गया अब अपने दोस्त को आप विधायक जी से बचाइयें।

..और ये कहते हुए वो मुझे लेके जाने लगा , कृष्णा खुद की लाचारी को सँभालते हुए कहता हैं।

कृष्णा : भाई तू परेशां मत होना मैं दोपहर तक आ रहा हूं , और तुझे लेके ही वापस आऊँगा ! और किसी के बाप के बस की नहीं हैं जो तुझे यूं ही बिना मतलब अपने गिरफ़्त में रख्खें। [कृष्णा ने व्यंगता में इंस्पेक्टर की ओर देखते हुए कहा , उसकी हालातों को देख इंस्पेक्टर प्रतिउत्तर में मुस्कुरा देता हैं]

टाउन थाना जीप की स्पीड कम हो गई..

आगे मयूर और बंधूजी अपने चार-पाँच साथियों के साथ थानें के बाहर खडे थें , शायद मेरे इंतज़ार में ।
इंस्पेक्टर [बंधूजी के देखते ही हाथ जोडकर] : प्रणाम , बंधूजी !
बंधूजी : प्रणाम प्रणाम ! ई हम का सुन रहे हैं ? आंएएएं आप हमारे लडके लोगों को परेशान कर रहें इसी दिन के खातिर आपको हमने इस काबिल बनाया था की आप हमारें ही धोती में घुस के काटें।

इंस्पेक्टर [मेरी ओर देखते हुए] : सर सर मुझे पता नहीं था ये आपके आदमी हैं गलती हो गई माफ़ी चाहते हैं । [एक याचना करते हुए इंस्पेक्टर ने कहा]
बंधूजी : ठीक है.. ठीक है ! अब छोड दिजीएं इसे, जाने दिजीएं । और आप किसके लिए लड रहे है , आंएएएं ? अब छोडते काहे नहीं , अब क्या सोच रहे हैं ?
इंस्पेक्टर : सर एक प्रोबलम है उ का हैं ना बेल पेपर  मिल जाता ना तो..
..कमिशनर का आँडर आया था इनको पकडने को बहुत बडे लोग है ना..
..पहुँच एइसे लगाएं हैं क्या बताएं पूरी रणनीति बनाएं हैं आप अंदर आइये ! उसने बंधूजी को अंदर बुलाया और चार कप चाय मँगायां।
इंस्पेक्टर : सर इनको गिरफ़्तार करके वो सारें गरीबों का वोट ले लेंगें कि विधायक जी जात-पात भी नही देखते , उनकों क्या हैं ? वो तो उनके पी ए का बेटा हैं अब मुँहबोला मुँहबोला ही होता है , ना । और जहां वोट मिली इनको तो [कहते हुएं इंस्पेक्टर कुछ रूक सा गया और हमारें करीब आते हुएं, मैं अंदर की बात बता रहा हूँ आपको , बात ना फ़ैलें तो सही रहेगा]
बंधूजी : हाँ-हाँ कहिएं आप, निश्चिंत होके कहिएं।
इंस्पेक्टर [धीरे-से] : सर वोटिंग खत्म होते ही इनको मारने का इरादा था ।
मयूर [गुस्से से] : हलवा हैं क्या ? जो मारना था , इसकी माँ का..
इंस्पेक्टर [मयूर को देखते हुए] : मयूर बाबू ! गुस्सा करने से कोई फ़ायदा नहीं अभी ! आप तो बस अभी बेल-पेपर का इंत्ज़ाम किजीएं।

कृष्णा [पीछे से आते हुएं] : यार कल के दंगे के कारण आज़ कचहरी बंद हैं , अब सोमवार को ही कुछ हो सकता हैं । [निराश होते हुएं उसने मयूर से कहा]
इंस्पेक्टर [मयूर और बंधूजी को देखते हुएं] : आप , चिंतित मत होइए । यें हमारे पास है , इन्हें कुछ नहीं होगा , आपके लिए हम इतना भी नहीं कर सकते क्या ?
बंधूजी : हम्म्म्म्म्म्म्म्म ! कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए , समझिएं हम आपके बेटे को आपके पास छोडे जा रहें है ।
इंस्पेक्टर : बिल्कुल सही सर ! आप तनिक भी परेशां ना हो ।
बंधूजी [मयूर की तरफ़ देखते हुए] : अब ठीक हैं ना , सोमवार को आपका दोस्त , आपके साथ फिर से क्रिकेट जमाऐगा ।
मयूर [मेरी तरफ़ देखते हुए] : तू चिंता मत कर , अभी हम घर ही जा रहे है , तू ख्याल रखना बस ।
कृष्णा [मेरी तरफ़ देखते हुए] : जो होता है , वो मैं तुम्हें शाम तक बताता हूँ ।
मैं [हल्की आवाज़ में] : भाई , याद से !
फिर सारें जाने लगते है और इंस्पेक्टर उनके साथ उन्हें बाहर तक छोडने चला जाता है।

रात के करीब आँठ बजे..

आपसे मिलने कोई आया हैं । [अंदर आके एक हवलदार ने मुझसे कहा]
मैं ये सुन के तेजी से बाहर दौडता हुआ आया, कृष्णा एक डब्बा लेके मुझसे मिलने आया था ।
कृष्णा [डब्बें को मुझे देते हुए] : भाई , कैसा है तू ?
मै [उसकी बातों को जैसे अनसुना करते हुए] : किसने भेजा ? माँ ने ?
कृष्णा की आँखों में आँसू थे जो मैं साफ-साफ देख सकता था शायद उसकी यें आँसू मेरे हालतों पे थीं ।
मैं : घर पे सब कैसे है ? और हान्नअ ! पापा कैसे है ? आंन्न्नह्ह्ह ?
कृष्णा : सब ठीक है यार , अब मुझे जाना होगा तू खाना खा लेना भाई। [कहते हुएं उसने मुझसे अपनी नज़रें फेर ली]
मैं : भाई..
कृष्णा [पीछे मुडके अपने आँसूओं को पोछते हुए] : भाई मैं ज़ल्दी ही कुछ करता हूँ , कहते हुए वो चला जाता है ।

मैं चुपचाप खाना खाके खामोशी से ज़ेल के चारदीवारी में सो जाता हूँ। उस रात मैं खुद को बहोत तन्हा महसूस कर रहा था , सिवाएं अंधेरों के मेरे पास और कोई नहीं था, हाँ बेशक एक पानी का मटका रख्खा पडा हुआ था मेरे प्यास को बुझाने को , मगर मेरे अंदर आग ही कुछ अलग थीं जो उस पानी से बुझने वाली नहीं थीं।

रविवार का दिन अगली सुबह कोइ खबर नहीं कुछ पता नहीं मैं बार-बार हवलदार को बुला-बुला के पूछ्ता कोइ आया था क्या मिलने मुझसे और हवलदार हमेशा की तरह परेशान होकर कहता “ अरे भइयां ! कोई मिलने आऐगा तो हम कहीं चुरा लेंगे क्या , मिलनेवाले आऐंगे तब ना मिलवाऊँगां , कितनी बार समझाना पडेगा , आपको ? ”
मैं उसकी बातों को सुन के हमेशा की तरह निराश हो जाता था।

शाम के करीब 5:00 बजे..

हवलदार : कोई आया है ।
मैं हवलदार की इस बात को सुनते ही तेज़ी से बाहर दौडता हुआ आया, और फिर गुस्से से पीछे मुड गया।
सिर्फ़ दो मिनट लूंगी तुम्हारी ! कुछ बातें करनी है तुमसे। [कोमल ने बात तेज़ी में कही जो अनु के साथ अपने एक्सट्रा क्लास का बहना बनाके मुझसे मिलने आइ थीं]
मेरी कदम उसकी बातों को सुनके कुछ रूक सी गई , ना चाहते हुए भी मैं उसकी ओर बढ गया ।
कोमल [मुझे देखते हुए] : कैसे हो तुम ?
मैं [हँसते हुए व्यंग में] : देख लो, कैसा दिख रहा हूँ  ?
कोमल : साँरी ! रियली साँरी।
अनु [उल्झते हुए] : तु क्यूं साँरी माँग रही है ? गलती तो तेरे बाप ने ना की है ? और तू भी तो अपने बाप से परेशां हैं। बस वो नाम का ही बाप हैं उसे तेरे बारें में कुछ पता भी हैं ? तू क्या चाहती हैं ? कहाँ रहती हैं ? तुझे क्या पसंद है ? और और तू..
..मेरी तरफ़ देखकर मुडके , जैसे कोई सांड मेरे आगे अपना मुँह किए खडा हो , कहने लगी “ तू क्या आग उगल रहा हैं ? इसने तो तेरे खातिर अपनी माँ की इकलौती निशानी , उनकी दी हुइ कंघन को बेच दिया।

मैं [हैरान होते हुए] : मेरे खातिर ?
अनु [गुस्से में] : हाँ , तेरे पापा को पटना ले जाया गया है । कल दोपहर उन्हें ज़ोर का चक्कर आया था , डाँक्टर ने उन्हें फ़ौरन पटना रेफ़र कर दिया , इसने अपने कंघन बेच के 3 लाख रूपएं दिए थें ।
मैं ये सुन के कुछ शांत सा पड गया। और अपनी जगह से पीछे होते हुएं..
मैं [अनु की तरफ़ देखकर] : लेकिन ! कृष्णा ने तो मुझे कुछ बताया ही नहीं ? कल रात वो मुझसे मिलने भी आया था , जबकी ।
अनु [ज्वलन में] : हरामी हैं वो कमीना ! हर वक्त दाँत ही दिखाता रहता हैं मेरा बस चले ना तो आँखें नोंच लूं उस कुत्तें के बच्चें का । [कहते हुएं वो गुस्से में बाहर चली जाती है]
कोमल अब भी मेरी ही तरफ़ देख रही थीं , एक घनी खामोशी सी उसके चेहरें पे बनी हुई थीं । अब वो जाने लगी थीं ।
मैनें उसे जाता हुआ देखकर [पीछें से कहा] : आई लभ यू , कोमल !
अचानक उसकी जाती हुइ कदमें रूक गई जैसे वो यहीं सुनने के इंतज़ार में हो , और पीछे मुड मुझे देख के रोने लगी , फिर तेज़ी से दौडते हुएं मेरे करीब आ गई ।
मैं [उसकी आँखों में देखते हुएं] : डू यू ?
कोमल [रोते हुएं] : हां में बस अपने सर और आँखों को हिला दिया ।
अचानक हवलदार : मैडम ! हो गया टाइम अब आप चलिए ।
मैंने ये सुनकर अपनी उंगलियों की गिरफ़्त से उसकी उंगलियों को रिहा कर दिया ।
अब वो हल्की-हल्की कदमों से चलते हुएं मेरी नज़रों से दूर होने लगी , फिर से मैं वापस उस चारदिवारी में आ गया था।

रात 9:00 बजे के करीब..

हवलदार : ओएए क्या बात हैं ? फिर कोई मिलने आया है !
मैं [लापरवाही से] : आप चलिअए , मैं आ रहा हूँ ।
मैं धीरें-धीरें जा रहा था तभी कृष्णा को देखते मैं गुस्से से तेज़ी में उसके पास गया।
मैं : घर पर सब कोई ठीक हैं ना आन्न्न्ह्ह्ह ? कोइ मर भी जाएं तो तुझे क्या ? , तू अपनी हरामीपंती क्यों छोडेगा ? वो कौन हैं ? मेरे पापा.. जान बसती है हमारी उनमें , तुझे तो पता हैं ना , फिर ?
कृष्णा : हाँ जानता हूँ.. सब जानता हूँ! क्या करूं तुझे जेल में देखके और अंकल की हालत को देखके मैं टूट सा गया था । उपर से ये कोर्ट-कचहरी , तुझे बता के मै तुझे और परेशां नहीं करना चाहता था , मैं नहीं चाहता था की तु गुस्सें में कुछ कर बैठ जाएं , और मेरी सारी मेहनत बेकार चली जाएं..
..विधायक अपनी कोई चाल बेकार नहीं जाने देता.. ..तुझे क्या लगता हैं मुझे कुछ पता हीं नहीं रहता क्या? मैं सब समझता हूँ बस चुप रहता हूँ.. तू ही बता इस हालत में मै क्या करूं ?
कृष्णा के उदास-भरी बातों को समझते हुएं , उसके हाथ को पकडते हुएं मै कहता हूँ “ बस मुझे यहां से कैसे भी कर के छुडा दम घुटता है यहां मेरा । ”
कृष्णा [अपनी आँसूओं को पोंछ्ते हुए] : भाई कल सुबह पक्का ।
और वो चला जाता हैं ।

अगला दिन , सोमवार !
दोपहर के 1:00 बजे !

हवलदार [मुस्कुराते हुएं] : ओएए ! चल भाई , तेरी जमानत हो गई । तू तो बडा आदमी निकला बे , बंधूजी खुद लेने आएं है तुझे ।
मै [हवलदार की तरफ़ देखकर] : एक बात याद रखना पांडेजी , जब एक पढा-लिखा इंसान कभी पाँलिटिक्स में उतर गया ना तो तुमलोगों का हुक्का-पानी बंद हो जाऐगा , घबराओ मत अभी कोई नहीं उतरने वाला । [कहके मैने उसकी तरफ़ देख के मुस्कुरा दिया]
हवलदार [गंभीर होते हुए] : क्या मतलब भैयाजी ?
बंधूजी [पीछे से आते हुए] : हान्न्न ! बिल्कुल सहीं पांडे बाबू , इ हैं आज़ से यहां के भैयाजी ।
मैं [मुस्कुराते हुएं हवलदार से] : अरे परेशान मत होइये पांडेजी , मज़ाक कर रहे थें हम , आपने भी तो खूब मस्ती की थीं मेरे साथ भूल गए क्या ? [मैंने ये बात हवलदार के भाषा में ही कह दी]
बंधूजी [मेरी तरफ़ देखते हुएं] : आओ बबूआ ! बाहर तुहार दोस्त , तुहार इंतजार कर रहे हैं ।
मैं बंधूजी के साथ बाहर आने लगता हूँ और बाहर आता देख मयूर मेरी तरफ़ दौड के आता हैं और मेरे गले लग कर ।
मयूर [द्रवित होकर] : भाई कैसा है तू ?
मैं : ठीक हूं , ये बता पापा कैसे हैं ?
मयूर [मुझे एक टिकट बढाते हुएं] : ये ले , पटना का टिकट । तू चला जा मैं यहां देख लूगां सब।

मैं [जेल से बाहर निकलकर,बंधूजी के सर्मथकों के सामने हाथ जोडके , हाथ को उपर करते हुएं] : मैं आज़ से , अब से , इन सबके साथ हूँ मैं नहीं चाहता मेरी तरह कोइ और बने किसी और की हालत मेरी तरह हो , आज़ एक अलग पहचान एक अलग नाम !
तभी बीच से आकर बंधूजी ने मेरा हाथ उठायां और कहा : आपके , अपने भैयाजी !
पीछे से एक जोरदार और लम्बी आवाज़ “ भैयाजी.. भैयाजी.. भैयाजी की जय ! ”

अब मैं , कृष्णा और मयूर एक खुली जीप में बैठ के मेरे घर की ओर जाने लगे ।
कृष्णा : बात हुई थीं आंटीजी से तेरे बारे में पूछ रहीं थीं ।
मैं [कृष्णा की बातों का जवाब दिएं बिना] : और , पापा कैसे हैं ?
कृष्णा : ठीक हैं अब ! डाँक्टर ने एक हफ़्ते का बेड-रेस्ट दिया हैं , फिर सब पहले की तरह नार्मोल हो जाऐगा। तू दिल्ली कब जा रहा हैं ?
मैं : नहीं जा रहा अब , अब जाने का फायदा भी क्या ? मेरे नाम पे अटेम्पट-टू-मर्डर का केस हैं , सिविल-सर्विसेज़ में मैं अब जा नहीं सकता , वो विधायक मुझे जाने नहीं देगा। फिर ऐसी पढाई का फायदा ही क्या जो किसी के काम ना आएं ? जब कालिख लग ही चुकी हैं तो कम से कम उन्हें तो बचाऊँ जो अभी इससे अंजान हैं ।
मयूर [हैरान होते हुएं] : तू यहां करेगा क्या ?
मैं : तुम्हारें साथ रहूँगा । बंधूजी ने अपनी तरफ़ से हाँ भी करी हैं ।
मयूर : तू पाँलिटिक्स में उतरेगा ? तुझे कुछ आता भी क्या , दो दिन पहलें तो तू इससे भाग रहा था ।
मैं : हाँ भाग रहा था मैं , तब बात कुछ और थीं , हालातें कुछ और थीं , मेरे अपने कुछ सपने थे । [कहते-कहते मैं निराश हो गया]
कृष्णा [मेरे गालों पे हाथ मारते हुए] : तू सेन्टी मत हो , ये ज़बरदस्ती की ऐक्टिंग तुझपे सूट नहीं करती ।
मैं [मुस्कुराते हुएं] : अब तू मत समझा एक ज़मानत कराने में तीन दिन लगा दिए हरामी तु वहां कुछ पढता भी था ? [आपस में हम एक-दूसरें की खींचा-तानी करने लगे]

मयूर और कृष्णा मुझे मेरे घर छोड के अपने-अपने घर को चले गयें । मैं अंदर जाते हुए सबको याद करने लगा , ख़ास कर अपने माँ को ज़ो मेरे आने पे हमेशा कहती “ आ गए ! हो गया कमाई आपका ? ” सोचते-सोचते मेरी आँखें भर गई।

रात के 9:00 बजे..

अब मैं बडे से घर में बिल्कुल अकेला , तन्हा सोफ़े पे बैठा , अपनी पाँच दिन पहले की ज़िन्दगी के बारें में सोचने लगा।
तभी आचानक कौतूहलवश मेरी नज़रें जैसे थम सी गई हो किसी बात पे.. ..आखिर वो इंस्पेक्टर ऐसा क्यूं कह रहा था , मुझे 2 दिन बाद मारने का प्लान बना हुआ हैं ? कहीं ये किसी की रची हुई साज़िश तो नहीं , आखिर मुझे मार-कर किसी को क्या फ़ायदा होगा ? मैं तो यहां रहता भी नहीं , कौन जानता होगा , ऐसे बहोत सारें सवाल मेरे दिमाग में घुमने लगे, और इन बातों को सोचते-सोचते मैं सोफ़े पे ही सो गया।

अगली सुबह, करीब 8:00 बजे..

मैं अपनी बाँलकोनी में खडा काँफ़ी पी रहा था । तभी चूंचूंचूं करते हुएं एक जीप मेरे आँखों के सामने आके रूकी , जो मयूर के अचानक ब्रेक लगाने के कारण हुआ था । साथ में बंधूजी भी थे, जो फोन पे किसी से बात कर रहे थे ।
मैं उसे देख के मुस्कुराँ के कहता हूँ “ बेटे ध्यान से । ”
कहते हुएं मैं नीचे जाने लगता हूँ  और मैं अपने द्वार के जैसे  आता हूँ “ तडाक- तडाक त्ड तड तडाक , अचानक चारों तरफ़ से गोली चलने की आवाज़ , मैं हैंरां-परेशां । काँफ़ी का मग जो अभी तक मेरे हाथ में था , गोली लगने के कारण फूट चूका था और उसका सारा काँफी कुछ तो सडक पे और कुछ मेरे कपडों पे फ़ैल चुका था ।
जवाब में बंधूजी ने भी गोली अपनी तरफ़ से चलाई और मुठभेड में एक गोली उनके सीनें में जा लगी और मैं एक गोली से बचने के कारण पीछे मुडा और मेरे मुडते ही मेरा सर मेरे दिवाल से जा टकराया , और  मैं बेहोश होकर गिर पडा । ऐसी स्थिती में मयूर को परेशां देख मुझे मेरी आँखें को बंद होने से रोकने पे मज़बूर करने लगी तभी मैंनें देखा एक धुंधलें से रौशनी से बीच से कृष्णा अपने साथ 40-50 जवानों के साथ दौडता हुआ चला आ रहा था , और उनके पीछे-पीछे मिडिया का एक ग्रुप । स्थिती गंभीर हो चली थीं गोली का बंधूजी को लगना और मिडिया का इसमें इनभोल्भ होना सारी शहर में हलचल मची-पडी थीं , उग्रता.. भारी.. शोर-शराबा से पूरा शहर भरा-पडा हुआ था। पुलिस-प्रशासन राजनितीक पार्टियों के हाथ बंधे पडे हुएं थें, और पुलिस अपने-अपने थानें में बैठ इंडिया वर्सेज़ वेस्ट-इंडिज़ का फाइनल देख रहे थें । आम जनता कुचली जा रही थीं , सोचते-सोचते मेरी आँखें बंद हो गई।

दोपहर के 2:00 बजे करीब..

कृष्णा [पानी पीते हुएं] : अब कैसा है तु भाई ?
मैं [हल्के-हल्के सोफ़े से उठते हुए] : ठीक हूँ । आन्न्ह्ह्ह ! [सर को पडकते हुए]
कृष्णा [मुझे देखकर] : हल्की-सी चोट हैं , जल्द ही ठीक हो जाऐगी ।
मैं  [मुस्कुराते हुएं] : भाई पानी देना।
कृष्णा [पानी का ग्लास बढाते हुए] : ले भाई ।
मैं : अच्छा ये बता , कृष्णा ! कौन लोग वो आए थे बंधूजी को मारने ? [पानी पीते-पीते मैने गंभीरता से पूछा]
कृष्णा [हैंरान होते हुए] : हेन्ह्हे ! मतलब तुझे अभी तक पता नहीं चला , शाले वो उस बंधू को नहीं तुझे मारने आए थे ।
मैं [सुनते ही मुँह का भरा पानी बाहर उगल दिया] : मुझे मुझे ? पर क्यूं ?
कृष्णा ख़ामोशी से मेरी तरफ़ देखता है..

मैं [उत्सुक होकर] : भाई ऐसे चुप मत रह , जान निकल रहीं हैं , बता ना क्यूं ?
कृष्णा [झुंझलाते हुए] : क्यूंकि नहर वाला ज़मीन तेरे नाम पे हैं तू उसका इकलौता मालिक हैं.. जब तू रहेगा ही नहीं तो वो सरकारी सत्तेधारियों के पास चली जाऐगी , इसलिए ऐसा प्लान बनाया गया था ।
मैं [हंसते हुए] : शाले , उससे किसी का क्या फ़ायदा होगा ? आज़ तक तो हमने उस ज़मीन से कुछ माँगा तक नहीं और वो मुझे ही खाने को दौड रहीं हैं ? आखिर लफ़डा क्या हैं , पहले तु ढंग से बताऐगा ? कोइ राज़सी ख़ज़ाना छुपा पडा हैं क्या उस गड्ढें के अंदर ?
कृष्णा [मेरे करीब आते हुए] : हाँ, कुछ ऐसा ही समझ ले ।
मैं [चौंकते हुए] : क्या मतलब ? तू कहना क्या चाहता हैं ?
कृष्णा [मेरे कंधे पे हाथ रखके खडे होते हुए] : लगता हैं शायद तुझे और तेरे घर-वालों को इसके बारें में कुछ भी पता नहीं , नहीं तो भला कौन 3000 करोड की जमीन को गड्ढा समझ के 3 लाख में बेचेगा ।
मैं [हैंरान होते हुएं] : क्या मतलब ? शाले तु एक बार में सब पूरें ढंग से बताऐगा भी कभी , गँवार कहींका । [गुस्से में आके मैंने कहा]
कृष्णा [रुठते हुए] : नहीं जा किसी और से सुन ले ।
मैं [बात बनाते हुए] : ओएए , साँरी यार ! तु तो सिरीयस हो गया ।
कृष्णा [कडवाहट में] : मैं सिरीयस नहीं होता कभी तेरी बातों पे , हाँ थोडा गुस्सा जरूर आ जात हैं कभीं।

मैंने सोचा शाला फिर सेन्टी हो गया , अब पूरे एक घंटे पकाऐगा। और मैं ये सोच में पड गया “ जो मैं अपने पूरे जिन्दगी में नहीं कमा सकता था , वो मुझे सिर्फ़ चार दिन की ही पाँलिटिक्स से हासिल हो गइ हैं , कल का लडका आज़ 3000 करोड का मालिक बन बैठा हैं। ”
कृष्णा [गुस्से से] : शाले जब कुछ बताता हूँ , तो सुनता ही नहीं और बात-बात पे मुझे सुनाता रहता हैं ।
मैं [बनावटी गंभीरता के साथ] : हान हाँ भाई ! तेरी ही बातों को सोच रहा था , बता क्या बता रहा था ?
कृष्णा : तुझे पता हैं , तेरी जमीन को लेके एक बांध बनाने का कान्ट्रेक्ट आया हैं , जिसके बनने के बाद आयात-निर्यात 60% तक सस्ता हो जाऐगा और जिसकी ज़मीन हैं उसे सरकार द्वारा सालाना उस रकम का 5% तक मिलेगा । इसलिए मेरे भाइ तुझे..
मै [उसकी बातों को बीच में ही काँटते हुए] : लेकिन तुझे इतना सब कुछ कैसे पता हैं?
कृष्णा [रंग दिखाते हुए] : भाई , मुझे सब पता हैं ! इंस्पेक्टर और वो जो तेरा जमीन बिकवा रहा था ना , कमीना । सब कहीं ना कहीं , किसी ना किसी मायने में उस विधायक से मिले हुए हैं वो तो अपना मयूर हैं जो बंधू के..
मैं [कृष्णा की बातों को फिर से काँटते हुएं] : हाँ , यार बंधूजी कैसे है , अब ?
कृष्णा [गुस्से से] : शाला , मर जाएं वो भी तो ठीक रहेगा ? [उसकी बातों से लगा जैसे वो ज़िंदा हो]
मैं [बात बनाकर] : ऐसा क्यूं कह रहा हैं , भाई ?
कृष्णा [कुछ शांत पडकर] : और क्या कहूं भाई ? उसकी भी नज़र तो तेरे ज़मीन पे ही थीं ना , मैं तो कहूं ये सारें सियासती दांवेदार खुद में लड-कट के मर जाएं तो सबका कल्याण हो जाएं।

मैं : अच्छा यें बता ये इंस्पेक्टर और रामजी , बंधूजी को इतना क्यूं मानते हैं ?
कृष्णा [अकडते हुए] : क्यूं नहीं मानेंगे बंधू उसकी जात का हैं और उनके अधिकारों के लिए लडता रहता हैं । मयूर भी कुछ सोच के साथ ही शायद बंधूजी से जुडा हुआ हैं , मुझे पता नहीं ये [कहते-कहते वो अपने बातों से मुकर गया]
मैं [सोचते हुए] : अच्छा तो ये सब मयूर को पता था ?
हाँ पता था लेकिन इतना सब कुछ नहीं [मयूर कमरें के अंदर आते हुए कहा]
मुझे नहीं पता था , तेरे साथ इतना कुछ हो जाऐगा , तेरी किस्मत ख़राब हो जाऐगी , तू आगे पढ नहीं पाऐगा , इतना टूट जाऐगा ? मैं तेरा दोस्त हूँ.. हाँ बेशक! थोडी देर के लिए मैं सियासती दांव-पेंच में आ गया था । [मयूर ने अपनी सारी सफ़ाइ एक साँस में ही कह दिया था]
कृष्णा [घनी खामोशी की माहौल को तोडते हुए] : और हमें ये भी पता नहीं था ,तेरे पास इतनी अच्छी आइटम हो जाऐगी और तू करोडों का मालिक, वर्ना कसम से उस नहर में ही तुझे डूबों के मार डालता कम से कम इनके सहानुभूति लेके कुछ हिस्से का मालिक तो बन जाता।
[उसकी इस बेतूकी बातों पे हम तीनों हँस पडे]

मयूर [चुप होते हुए] : अब तुझे विधायक से कौन बचाऐगा ?
मैं! [एक पतली सी आवाज़ जो हमारें कानों तक आ पहुँची थीं]
हमने पीछे मुडके देखा वो आवाज़ कोमल की थीं , शायद वो अपने घर से भाग के आई थीं ।
मैं [कोमल की तरफ़ देखकर] : मतलब ?
मयूर [मुझे समझाते हुए] : देख यार , वो तुझसे प्यार करती हैं और तुझसे शादी करना चाहती है जिसके बाद किसी भी बात की चिंता नहीं रहेगी और विधायक का कोइ आदमी तुझे हाथ भी नहीं लगा पाऐगा । कोमल के मामा इस शहर का हुक्का-पानी बंद करवा देंगे , वो साध्वी जी के साथ रहते हैं कहां जान-पहचान नहीं हैं उनकी ? और बडी बात ये हैं की कोमल के मामा की जान इसी में बसती हैं , तो वो तेरा कुछ बिगडने नहीं देंगे कभी.. ऐटलिस्ट अभी तो पक्का नहीं.. जब तक वो जिंदा हैं बाद का बाद में देखेंगे।

मैं [हैंरान होते हुए] : तुमलोग पागल हो गए हो? यें भी कोई सोल्यूशन है, ऐसा भी कहीं होता हैं क्या ?
कृष्णा [समझाते हुए] : भाई-भाई , इसके अलावा हमारें पास अभी कोई उपाय नहीं हैं ।
बातें चलती रही अंत में मुझे हार के तैयार होना ही पडा और हमारी शादी हो गई । सब खुश थे ,सिवाएं मेरे , मेरे निर्णय में आज़ मेरा परिवार दूर खडा अपने परेशानियों से जूझ रहा था , मैं उन्हें अकेला कर उदास बैठा था ।
जिन्दगी में अब वक्त मेरे साथ नहीं था । मेरे अपने.. मेरे सपनें.. सब मेरी बिगडती हालातों के कारण मुझसे दूर थें । मेरे साथ बस मेरे दो दोस्त और कोमल थीं..
..और मैं बेबस।

अगली सुबह करीब 9:00 बजे..

मेरे घर के बाहर करीब 400-500 लोगों की लम्बी भीड , विधायक और कोमल के मामा आपस में कुछ बातें कर रहे थें तभी भीड से ,पीछे से विधायक के पी ए का बेटा अपने साथ एक रिवाल्वर लेता हुआ आया विधायक के पास पहुँचता हैं और ज़ोर से चिल्लाकर “धोखा धोखा घोर धोखा , कहते-कह्ते उनके सीने में 4-5 गोलियों को उतार देता हैं । ”
ये देख मैं स्तभत , भीड एकदम खामोश परिस्थिती के विपरीत और..
..कोमल तेज़ी से रोते हुएं अपने पापा के पास दौड के पहुँचती हैं ,
..कोमल के मामाजी मिडिया और भीड को सँभालते हुएं ,पीछे से दौडते हुए इंस्पेक्टर..
..दौडता हुआ आके पी ए के बेटा को गिरफ़्तार करता हैं ,
..सारी उत्तेज़ना.. उग्रता.. गर्ज़ना समाप्त हो जाती है!

गहरी खामोशी के बीच मिडिया की आवाज़ और मेरे पीछे टी भी पर एक सामाचार..

आज़ करीब सुबह 8:00 बज़े..
..बंधूजी की मौत से पूरा शहर शोकित..
और फिर मेरी नज़र सडक पे मरे-पडे विधायक जी की ओर गई। घना शोकित और शांत शहर।
हवलदार [मुझे बाँलकोनी में खडा देखकर चिल्लया] : भैयाजी भैयाजी ! अब आप ही कुछ करीएँ ।
मैं [धीरे से एवं असमंज़स से] : आआंन्न्नाअ !
हवलदार के पीछे खडी सारी भीड “ हाँ हान्न ! भैयाजी अब आप ही कुछ करीएं ? ”
जैसे वो सैकडों की भीड मुझे कब से जानती हों , और ऐसे जैसे अभी कुछ हुआ ही ना और अब मिडिया की नज़र मुझपर एक नए चेहरें की तालाश में ।
मैं परेशां परिस्थितियां मेरे हक में नहीं थीं या फिर ऐसा कहों मेरे वश में नहीं थीं , वक्त से पहले इतना कुछ मिल रहा था या फिर कुछ छींन रहा था पता नहीं मेरे साथ क्या हो रहा था , मैं भीड में कोमल को ढूँढ रहा था और भीड की निगाहें मुझे लोगों को विश्वास दिख रहा था , मयूर और कृष्णा की भींगी आँखें भीड के बीच से मुझे देखती हुई , कोमल जो अपने पिता का सर अपने गोद में रखकर रो रही थीं , कुछ समझ नहीं आ रहा था , मैं खामोश !
और पीछे से एक बडी भीड , एक बडी गूँज , भैयाजी ! एक नया चेहरा !


..नितेश वर्मा..



[सर्वाधिकार लेखक के पास सुरक्षित हैं। कापी-राईट की शर्तें और नियमों का विश्लेषण कुछ समय के बाद यहां भी उपल्ब्ध करा दिया जायेगा।] 

No comments:

Post a Comment