कहानी जारी हैं..
माँ अपनी घिसी-पिटी, रटी-रटाई वहीं लाईन बोल के चली गई जो वो पिछ्लें 20 सालों से बोल रही थीं।
मैं अब कुछ धीमा सा पड गया था ना जानें क्यूं मुझे वो बातें याद आ रहीं थीं जो मुझे अब शायद नहीं आनें चाहिएं? क्यूं मेरा दिल बार-बार वहीं जा के ठहर जाता हैं? कोशिशें सारी नाकाम रह जाती हैं जैसे पंछियों को पर दे के सारी आसमान छीन लो..
पींपींपीं.. तेज़ी से एक ट्रक मेरे बगल से गुजरी मैं ये देख के हतास था क्या करू मैंनें तेज़ी से दूसरी ओर छलांग लगा दी, मरते-मरते बच गया ये सोच के मैं राहत की दो सुकूं ले ही रहा था तभी एक आवाज़..
आह! दो लडकियाँ मेरी से कुछ दूर बैठी पडी थीं जैसे रास्तें की कोई भिखारन, मैं कुछ समझ पाता उससें पहलें एक लडकी ने कहा : ओए! तू पागल हैं क्या? खुद को बचानें के चक्कर में सबको मारेगा क्या? पैर में चोट लग गयी हैं तेरे कारण इसे अब अस्पताल इसे कौन ले जाऐगा?
मैं उसे बस देखता ही जा रहा था चेहरा इतना भोला जैसे राम की सीता हो पर वो तो तात्रिंक की शैतान की तरह आग उगल रही थीं। अबे अब यूं ही देखता रहेगा या कुछ करेगा भी?
मैं उससे नज़र हटाकर दौड के उस दूसरी लडकी के पास गया और लपक-कर उसे गोद में उठा लिया और कहा चलो जल्दी चलो।
वो मेरे तरफ़ गुस्सें से देख रही थीं मैनें पूछा क्या तो बोली : नीचे रख उसे। तेरी बहन लगती हैं या तेरी बीबी जो यूं गोद में उठाएं ले जाऐगा, दिमाग भी घर छोड के आया हैं क्या?
मैनें उसकी ऐसी जली-कटी बातें सुनके उस लडकी को नीचें रख दिया और सर झुका के आगे बढ गया। वो मेरे पीछें आते-आते मुझे अपनी तरफ़ मुडा के कहती हैं ओए हीरो! कहाँ चल दिए, पैर में चोट लगी हैं उसे आपके कारण?
मैं[गुस्से से]: हाँ पता हैं तभी तो ले के जा रहा था उसे उठाकर हाँस्पिटल, पर तुम्हें अपने बक-बक से फ़ुरसत हो तो ना समझोगी।
वो मुझे देखके अब कुछ झेंप सी गयी थी और फ़िर बोली: आई एम साँरी! पर आपको टेक्सी लेना चाहिएं ना यूं ऐसे ही सडक पे गोद में उठा लिया। तब जा के मुझे सारा माज़रा समझ आया इतना पापड क्यूं बेला जा रहा था और गर्मी भी ज्यादा थीं तो मैंनें बिना कोई सवाल किए एक टेक्सी ली और हाँस्पिटल की ओर उससे चलनें को कहा।
अभी तक वो लडकी कराह रही थीं। धीरें ही सही उसकी आवाजें कान में साफ़ आ रही थीं।
सिटी हाँस्पिटल,शिमला..
अब हम हाँस्पिटल के सामनें थें। मैंनें कहा रूको मैं अंदर से बुला के किसी को लाता हूँ।
उसने फ़िर सवाल कर दिया: क्यूं?
मै [झुल्झुलाहट से]: अब इसे आगे कौन से टेक्सी में ले जाऊँगा?
उसने कहा : हाथ से सहारा देकर भी तो हम ले जा सकतें हैं ना, अब पता ना अंदर कोई मिले या ना मिलें और बिना मतलब वक्त बर्बाद करनें से फायदा भी क्या, दर्द और नासूर होता जाऐगा..
उसकी बढती बकवास को सुनके मैनें एक उदासीपन से सिढियों से नीचें उतरते कहा: अच्छा ठीक हैं! जैसा तुम कहो।
फ़िर हमनें साथ होकर उसे हाथ दिया और उसे अंदर ले जा के उसका ट्रीट्मेन्ट कराया। डाँक्टर ने मोच बस बताई और कुछ ज्यादा चोट नहीं आई थीं।
ये सुनके मैं सोचने लगा: बाप रे! लडकियों के कितनें नौटंकी होते हैं थोडा-सा मोच और इतना बडा बवाल?
फिर मैंनें उसे उसके घर तक ड्राप किया और उससे कहा ठीक हैं अब मैं चलता हूँ। हाँ में उसने सर हिलाया मैं अब वहां से चल दिया था
..तभी पीछें से उसने फ़िर आवाज़ लगाई ओए!
मैंनें मुडके देखा तो उसनें कहां :थेंक्यू! और हाँ मेरा नाम अंज़ली हैं। मैं यही पीछे वाली गली में रहती हूँ। मैनें सोचा ये मुझे क्यूं इतना कुछ बता रहीं हैं मैनें भी जबाब में कहा: माईसेल्फ़ समीर!
उसने हँसते हुए कहा : हाँ मुझे पता हैं,आपका नाम और आपका काम। [और कहके हँसते हुई अपनें घर की ओर चल दी]
और मैं उसे देखता रह गया जब-तक वो मेरें आँखों से ओंझल ना हो गई। फिर धीरें-धीरें मैं अपनें घर की ओर आनें लगा और ये सोचनें लगा आखिर उसे मेरे बारें कैसे पता?
तू भी गली के अवारें, लफ़ंगे लडकों की तरह हो गया हैं किसी काम का नहीं हैं, कब से तेरे पापा फोन करके तुझे बुला रहें हैं। माँ की ये आवाज़ मेरे कांच जैसे सपनें को एक पल में ही चूर-चूर कर दिया और मैं हडबडाया तेज़ी से उठा और आँफ़िस की ओर चल दिया।
मैं आँफ़िस का काम करके तेज़ी से घर की ओर चल दिया क्यूंकि आज़ मेरा सबसे पुराना और सबसे खास दोस्त आनें वाला था, रोहन। रोहन मेरे साथ ही पढता था पर बाद में उसकी आगें की पढाई और अच्छी हो इस ख्याल से उसके पापा नें उसका नामाकरण यूनिवर्सिटी आँफ़ पेन्सिलवेनिया में करा दिया था। रोहन पहलें से पढनें में तेज़ था और वो सबकी बातें भी समझता था, दिल का बहोत साफ़ था कभी कोई छ्ल-कपट नहीं रखता था। मेरी नज़र में तो वो शिमला का हीरों था, और हाँ वो मेरा बस वो ही एक दोस्त था, मुझे ज्यादा रिश्तें बनानें पंसद नहीं क्यूंकि आखिर में उन्हें संभालना बहोत मुश्किल हो जाता हैं।
रोहन अंज़ली से शादी कर उसे अपनें साथ पेन्सिल्वेनिया ले जाना चाहता हैं उसे मेरे प्यार के बारें में सब पता हैं लेकिन मैनें उसे कभी ये नहीं बताया था की मेरा प्यार अंज़ली हैं और जब उसनें ये बताया तो उसके बाद मैं उसे कभी ये बताना नहीं चाहता था। शायद अंज़ली भी अपनें परिवार के नए रिश्तें से सहमत थी। उसे मेरे प्यार की थोडी भी भनक नहीं थीं। और मैं अब कुछ इकरार और इज़हार नहीं करना चाहता था बात घर-सामाज़-दोस्ती की अब बस रह गयी थीं और इस कठिन घडी में मेरा इम्तहान बाकी था। पर अंज़ली मेरी प्यार थीं उसे मैं कैसे जानें देता उसके साथ बिताएं हर लम्हें अभी तक मुझमें ज़िन्दा थें। फ़िर मैं उसे क्यूं जानें दे रहा था।
कहानी अगली भाग में जारी रहेगी..
माँ अपनी घिसी-पिटी, रटी-रटाई वहीं लाईन बोल के चली गई जो वो पिछ्लें 20 सालों से बोल रही थीं।
मैं अब कुछ धीमा सा पड गया था ना जानें क्यूं मुझे वो बातें याद आ रहीं थीं जो मुझे अब शायद नहीं आनें चाहिएं? क्यूं मेरा दिल बार-बार वहीं जा के ठहर जाता हैं? कोशिशें सारी नाकाम रह जाती हैं जैसे पंछियों को पर दे के सारी आसमान छीन लो..
पींपींपीं.. तेज़ी से एक ट्रक मेरे बगल से गुजरी मैं ये देख के हतास था क्या करू मैंनें तेज़ी से दूसरी ओर छलांग लगा दी, मरते-मरते बच गया ये सोच के मैं राहत की दो सुकूं ले ही रहा था तभी एक आवाज़..
आह! दो लडकियाँ मेरी से कुछ दूर बैठी पडी थीं जैसे रास्तें की कोई भिखारन, मैं कुछ समझ पाता उससें पहलें एक लडकी ने कहा : ओए! तू पागल हैं क्या? खुद को बचानें के चक्कर में सबको मारेगा क्या? पैर में चोट लग गयी हैं तेरे कारण इसे अब अस्पताल इसे कौन ले जाऐगा?
मैं उसे बस देखता ही जा रहा था चेहरा इतना भोला जैसे राम की सीता हो पर वो तो तात्रिंक की शैतान की तरह आग उगल रही थीं। अबे अब यूं ही देखता रहेगा या कुछ करेगा भी?
मैं उससे नज़र हटाकर दौड के उस दूसरी लडकी के पास गया और लपक-कर उसे गोद में उठा लिया और कहा चलो जल्दी चलो।
वो मेरे तरफ़ गुस्सें से देख रही थीं मैनें पूछा क्या तो बोली : नीचे रख उसे। तेरी बहन लगती हैं या तेरी बीबी जो यूं गोद में उठाएं ले जाऐगा, दिमाग भी घर छोड के आया हैं क्या?
मैनें उसकी ऐसी जली-कटी बातें सुनके उस लडकी को नीचें रख दिया और सर झुका के आगे बढ गया। वो मेरे पीछें आते-आते मुझे अपनी तरफ़ मुडा के कहती हैं ओए हीरो! कहाँ चल दिए, पैर में चोट लगी हैं उसे आपके कारण?
मैं[गुस्से से]: हाँ पता हैं तभी तो ले के जा रहा था उसे उठाकर हाँस्पिटल, पर तुम्हें अपने बक-बक से फ़ुरसत हो तो ना समझोगी।
वो मुझे देखके अब कुछ झेंप सी गयी थी और फ़िर बोली: आई एम साँरी! पर आपको टेक्सी लेना चाहिएं ना यूं ऐसे ही सडक पे गोद में उठा लिया। तब जा के मुझे सारा माज़रा समझ आया इतना पापड क्यूं बेला जा रहा था और गर्मी भी ज्यादा थीं तो मैंनें बिना कोई सवाल किए एक टेक्सी ली और हाँस्पिटल की ओर उससे चलनें को कहा।
अभी तक वो लडकी कराह रही थीं। धीरें ही सही उसकी आवाजें कान में साफ़ आ रही थीं।
सिटी हाँस्पिटल,शिमला..
अब हम हाँस्पिटल के सामनें थें। मैंनें कहा रूको मैं अंदर से बुला के किसी को लाता हूँ।
उसने फ़िर सवाल कर दिया: क्यूं?
मै [झुल्झुलाहट से]: अब इसे आगे कौन से टेक्सी में ले जाऊँगा?
उसने कहा : हाथ से सहारा देकर भी तो हम ले जा सकतें हैं ना, अब पता ना अंदर कोई मिले या ना मिलें और बिना मतलब वक्त बर्बाद करनें से फायदा भी क्या, दर्द और नासूर होता जाऐगा..
उसकी बढती बकवास को सुनके मैनें एक उदासीपन से सिढियों से नीचें उतरते कहा: अच्छा ठीक हैं! जैसा तुम कहो।
फ़िर हमनें साथ होकर उसे हाथ दिया और उसे अंदर ले जा के उसका ट्रीट्मेन्ट कराया। डाँक्टर ने मोच बस बताई और कुछ ज्यादा चोट नहीं आई थीं।
ये सुनके मैं सोचने लगा: बाप रे! लडकियों के कितनें नौटंकी होते हैं थोडा-सा मोच और इतना बडा बवाल?
फिर मैंनें उसे उसके घर तक ड्राप किया और उससे कहा ठीक हैं अब मैं चलता हूँ। हाँ में उसने सर हिलाया मैं अब वहां से चल दिया था
..तभी पीछें से उसने फ़िर आवाज़ लगाई ओए!
मैंनें मुडके देखा तो उसनें कहां :थेंक्यू! और हाँ मेरा नाम अंज़ली हैं। मैं यही पीछे वाली गली में रहती हूँ। मैनें सोचा ये मुझे क्यूं इतना कुछ बता रहीं हैं मैनें भी जबाब में कहा: माईसेल्फ़ समीर!
उसने हँसते हुए कहा : हाँ मुझे पता हैं,आपका नाम और आपका काम। [और कहके हँसते हुई अपनें घर की ओर चल दी]
और मैं उसे देखता रह गया जब-तक वो मेरें आँखों से ओंझल ना हो गई। फिर धीरें-धीरें मैं अपनें घर की ओर आनें लगा और ये सोचनें लगा आखिर उसे मेरे बारें कैसे पता?
तू भी गली के अवारें, लफ़ंगे लडकों की तरह हो गया हैं किसी काम का नहीं हैं, कब से तेरे पापा फोन करके तुझे बुला रहें हैं। माँ की ये आवाज़ मेरे कांच जैसे सपनें को एक पल में ही चूर-चूर कर दिया और मैं हडबडाया तेज़ी से उठा और आँफ़िस की ओर चल दिया।
मैं आँफ़िस का काम करके तेज़ी से घर की ओर चल दिया क्यूंकि आज़ मेरा सबसे पुराना और सबसे खास दोस्त आनें वाला था, रोहन। रोहन मेरे साथ ही पढता था पर बाद में उसकी आगें की पढाई और अच्छी हो इस ख्याल से उसके पापा नें उसका नामाकरण यूनिवर्सिटी आँफ़ पेन्सिलवेनिया में करा दिया था। रोहन पहलें से पढनें में तेज़ था और वो सबकी बातें भी समझता था, दिल का बहोत साफ़ था कभी कोई छ्ल-कपट नहीं रखता था। मेरी नज़र में तो वो शिमला का हीरों था, और हाँ वो मेरा बस वो ही एक दोस्त था, मुझे ज्यादा रिश्तें बनानें पंसद नहीं क्यूंकि आखिर में उन्हें संभालना बहोत मुश्किल हो जाता हैं।
रोहन अंज़ली से शादी कर उसे अपनें साथ पेन्सिल्वेनिया ले जाना चाहता हैं उसे मेरे प्यार के बारें में सब पता हैं लेकिन मैनें उसे कभी ये नहीं बताया था की मेरा प्यार अंज़ली हैं और जब उसनें ये बताया तो उसके बाद मैं उसे कभी ये बताना नहीं चाहता था। शायद अंज़ली भी अपनें परिवार के नए रिश्तें से सहमत थी। उसे मेरे प्यार की थोडी भी भनक नहीं थीं। और मैं अब कुछ इकरार और इज़हार नहीं करना चाहता था बात घर-सामाज़-दोस्ती की अब बस रह गयी थीं और इस कठिन घडी में मेरा इम्तहान बाकी था। पर अंज़ली मेरी प्यार थीं उसे मैं कैसे जानें देता उसके साथ बिताएं हर लम्हें अभी तक मुझमें ज़िन्दा थें। फ़िर मैं उसे क्यूं जानें दे रहा था।
कहानी अगली भाग में जारी रहेगी..
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