Monday, 14 July 2014

..तस्वीरें बदलती ज़िन्दगी की.. [Tasverein Badalti Zindagi Ki]

मेरी चौथी सेमेस्टर बीत चुकी थीं और मैं अपने घर बेतिया आ चुका था । पूरें 2 महीनें की छुट्टी हुई थीं । मैं तो ये सोच के ही घर आया था चाहें कुछ भी हो जाएँ, चाहें जितनी भी गाली क्यूँ ना सुननी पडें मैं अपनी पूरी नींद पूरी करूँगां आखिर परीक्षा में अपनी आँखें रेंत-रेंत के  पूरी 1 दिन वाली लगन लगाई हैं । कुल सात रातें जागें हैं मैंनें, जगना भी था आखिर पूरें 6 महीनें जो ऐशं किए थें मैनें..

ट्रिंग ट्रिंग..

अचानक मेरे मोबाइल ने मेरे ध्यान को भ्रमित किया।
दी कालिंग!!
मैं : कैसी हो?
दी : ठीक! तुम घर आ गए?
मैं : हाँ.. और तुम कब आ रही हो?
दी : 1-2 घंटें में ट्रेन में ही हैं अभी
मैं : अकेले हो क्या?
दी : नहीं, और सब भी हैं एक तुम ही बी-टेक थोडें ही ना करतें हो पूरें दुनियां में उनके भी भाई करते हैं  [तनुक अंदाज में]
मैं : इट मिन्स तुम बस मुझसे मिलने के लिए आ रहीं हो [हंसते हुएँ]
दी : हींहींहींहींहीं [चिढातें हुएँ] हो गया तुम्हारा.. तुमको सोने से फुरसत मिलेगा तब ना कोइ तुमसे मिलेगा.. यू बीजी मैन..!
मैं : रहने दो माँ से बात करना है तो बोलो।
दी : क्या हुआ गुस्सा हो गये क्या?
मैं : नहीं बीजी, ओकेह देन बाय!
दी : हाँ हाँ बाय [चिढाते हुएँ]

कब आ रही हैं? लडकी ना हैं चिंता हो जाती हैं! [माँ ने एक ही साँस में अपनी सारी व्यथा सुना दी]
मैं : अरे! ट्रेन में हैं , आ जाऐगी 1 घंटे में, और साथ में उनके दोस्त भी तो हैं । और अभी टाइम ही क्या हुआ हैं 1:00 अपराहन! आ जाऐगी [ये कहते हुए मैंनें माँ को दिलासा दिलायां]
माँ मेरी बातें सुन के कुछ चुप हो गइ, और फिर अचानक : तुम खाना खाओगें या फिर निशा को आने दूँ ।
मैं : आने दो । निशा मेरी छोटी बहन जो आँठवीं में पढती हैं विद्यालय खुले होने के कारण विद्यालय गइ हुई हैं ।
मैं : माँ ! माँ..
माँ : हान्न! [माँ ने हाँमी भरी जबकी उनकी निगाहें टेलीविज़न के किसी सास-बहू वाली असमंजस परिस्थिति में पडी हुई थीं]
मैं : पापा कहां गए हैं?
माँ : हन्नअअ! तुम्हारें लिये ही गए हैं नदी किनारें वाला ज़मीन बेचने! [माँ ने टीभी से नज़र हटाकर और भावुक होकर]
मैं : आआएएएंएं ! मेरे लिये! अब मैंने क्या कर दिया [बुदबुदाते हुए, जिससे मेरे सर पे दो असमंजस की रेखाएँ भी पड गइ]
माँ : हाँ ! उनको अभी महीना मिले 5 महीनें हो गये हैं.. और अब अगस्त में ही सारें पैंसे मिलेंगें, तब-तक काँलेज़ वाले मानेंगें तुम्हारे । वैसे भी उसको बेचना ही था, क्या फायदा उस जमीन का 6 महीनें पानी से भरा रहता हैं और 6 महीनें तक सूखता रहता हैं । फिर अगस्त में पैसा मिल रहा हैं ना तो कचहरी के पास वाला जमीन ले लेंगें बाद में तुम्हारें खातिर भी वो बहोत सही रहेगा । क्यूँ?
माँ ने उस क्यूँ से पूरें खरीद-बिक्र का कारोबार मेरे सर मड दिया जैसे मैं चाहूँगाँ तभी वो हाँ होगा वर्ना उस ना लक्ष्मण रेखा को कौन काटेंगा ।
तुम क्या सोच रहे हो? अचानक पापा घर में घुसते ही बोलें ।
मैं : प्रणाम पापा! [मैंने पैर छू के प्रणाम किया]
पापा : खुश रहो! [आशीर्वाद देते हुए वो मेरे एक तरफ बैठ गए]
पापा : तुम कब आए?
मैं : अभी आधे घंटे पहले
आ हाँअअ अअ लिजिए! [माँ ने पानी का एक बडा ग्लास पापा को देते हुएँ कहा]
पापा : ठीक से दो पूरा भर देती हो एक बार में ही [पानी का ग्लास हाथ में लेते हुए नाराजगी में कहा]
पापा : तुमको कितना चाहिए अभी तत्काल? [पापा ने आधा ग्लास पानी पिकर ये पूछा]
मैं एक घनी सोच में!
माँ : हान! जितना चाहिए उतना बताओ। अब बताओगे तब ना कुछ इन्तेजाम होगा। [किवाड के सहारें खडी माँ ने मेरी घनी सोच को तोडते हुए कहा]
मैं : देख लिजिए आपको तो सब पता हैं ना.. आधा-आधा दे देंगें कालेज और हाँस्टल में आखिर रोकने से फायदा क्या हैं? जब आखिर में देना तो हैं ही..
पापा : वहीं ना पूछ रहें हैं कितना? [पापा ने मेरी बात को अर्थियां सा दिया]
मैं [बेशर्म होकर] : 35 कालेज ऐन्ड 30 हास्टल में मान लिजिए 70 हजार बूक्स भी तो लेना होगा ही ना!
पापा [माँ की तरफ देखते हुए] : हाँहांअअ ! अच्छा ठीक हैं । अभी रहना हैं ना 20 जुलाई तक?
मैं : हाँ ! टिकट 24 का हैं ।
भैया भइयां ! ओ तेरी निशा और दी भी साथ आ रही थी ! [मैंने अपनी निगाहें उपर करके देखा]
मैं : तुम तो बाद में आने वाली थीं? [मैंने दी से प्रश्नवादी होकर पूछा]
दी : सरप्राइज़ ! होप्स यू गोट दिस वर्ड्स । [दी ने मेरा मूड खराब करते हुए कहा]
हाँ हान ! भाई को सरप्राइज़ देते-देते माँ की कभी जान ही निकाल देना [माँ ने दी की और देखते हुए कहा]
दी मुस्कुरातें हुए माँ और पापा को प्रणाम करती हैं ।
प्रतिउत्तर में : खुश रहो! खुश रहो!

ऐ खाना खा लो तुम्म सब [माँ ने ऊँची आवाज़ में किचन की और जातें हुए कहा]
माँ [पीछे मुडकर पापा की ओर देखकर] : आप भी खा लिजिएँ ना थोडा सा ।
पापा : कितना खिलाओगी? और हम दूबारा कब खातें हैं ? [कहतें हुएं पापा पानी का ग्लास निशा की तरफ बढाते हैं]
माँ : अच्छा! मत खाइयें नहीं खातें हैं तो हम थोडा खा लेते है इन सबके साथ । [रसोइघर की तरफ जातें हुए माँ ने कहा]
निशा : ऐ माँ ! कितना खाओगी? सुबह में ही तो मेरे साथ 4 पराठें खाई थीं।
माँ [गुस्से में] : हां हाँ! तुम और बनाओ पडोसी हमेशा कहती रहती हैं कितनी पतली होती जा रहीं हैं? [माँ ने शायद अपने खाने के सफाई में ये सब कहा होगा]
मैं : चुप कर पगली । [निशा को मैंने डाँटते हुए कहा]
दी : हानन! खाओगी नहीं सच में कितनी पतली हो गइ हो? [दी ने बात को सँभालते हुए कहा]

हम सारें खाने की मेज़ पर और पापा बाजार जानें लगतें हैं..

माँ : पनीर भी लेते आइयेगा सिबू के लिए..
मैं [माँ की बातों को कांटते हुए] : ना ना ! रहने दीजिऐगा.. अब पनीर नहीं खाना । [हाँस्टल के पनीर को याद करते हुएं छीछी यार]
माँ : अंएएए ! क्या तुम भी मिट ही खाओगे क्या? [माँ ने उत्सुक होकर पूछा]
मैं [मुँह बिचकाते हुए] : ये मैनें कब कह दिया की मैंनें ये खाना शुरू कर दिया हैं? मेरा बस अब पनीर से मूड भर गया हैं।
माँ [तनुक स्वर में] : कभी मिट से मन भर जाता हैं तो कभी पनीर से । ऐ बाबू! क्या खाओगे?, तुम्हारें लिए कहाँ से खाना मँगायां जाए? [माँ ने अपना दुखडा सुनाते हुए कहा]
मैंने माँ की बातों का कोइ उत्तर नहीं दिया और जैसे-तैसे अपने थाली को पूरा करके अपने कमरे की ओर चल दिया । सिबू मेरा भी मोबाइल चार्ज़िंग में लगा देना डिस्चार्ज हैं [दी ने मुझें अंदर जाता हुआ देख के कहा]
मैं : हमम्म्म ! ठीक है ।
दी : टेबल पे रख्खी होगी ले लेना ।
मैं : चुप कर यार लगा दिया है! [मैंने बेरुखी में कहा]

नितेश नितेश बाहर आ।

मैं [कमरे के अंदर से ही] : आया भाई! 2 मिनट रूको !
मैने ये कहकर बाँलकोनी से बाहर देखा, कृष्णा और मयूर अपने साथ कुछ जाने-पहचाने और कुछ अंज़ाने चेहरों के साथ क्रिकेट का सामान लिए मेरे द्वार पे मेरे इन्तजार में खडे थे ।
मैंने बिना देर किए तेजी से नीचे उतरनें लगा ये सोच के कहीं ये आपस में बात करते-करते एक-दूसरें को गाली ना बक दे ।
मैं [नीचे उतर के] : हाँय गाइस!
मयूर : हाँय भाई! [ और मुझे देखकर कृष्णा ने अपने चेहरें पे एक बडी मुस्कान बिखेर दी और मेरे गले लग गया]
ओए हो गया तुम्हारा भरत मिलाप तो चले । [मयूर ने कंधे पे बैट उठाते हुए कहा]
मैं : हान हाँ बे! चल.. और भरत मिलाप ये क्या होता हैं, गँवार?
मयूर : जब प्रेमी-प्रेमिका मिलते हैं ना तब ये मिलाप होता हैं । [मयूर ने मेरा मज़ाक उडाते हुए कहा]
ये सुन सारें हँसने लगे और हम खेल के मैदान की ओर चल दिए।
तु कब आया भाई ? [मैंने कृष्णा के करीब जाके ये पूछा]
कृष्णा : भाई कल शाम ही आया।
मैं : भाई तेरी पढाई कैसी चल रही हैं ?
कृष्णा : मस्त भाई! इन्फेक्ट इस बार तेरा भाई यूनिर्वसिटी के टाँप टेन में होगा । [कृष्णा ने मुस्कुराते हुए कहा]
मैंने उसकी तरफ देखकर एक गहरी मुस्कान अपने चेहरें पे बिखेर दी ।
और तु क्या कर रहा है मयूर? [मैने मयूर के तरफ़ होके पूछा]

मयूर, हम्म्म्म्म! मयूर के पिता को गुजरें हुए तीन साल हो गए हैं वो अपने पिता के मरने के साथ ही अपने टी.एस. चार्ण्क्या जाने के सपनें को अपने अंदर ही जला दिया था.. जो अकले में कभी-कभी उसके चेहरें पे दिख भी जाती थीं। और करता भी क्या? एक भोली माँ और 12 वर्ष की एक छोटी बहन। माँ गाँव की होने की वजह से कम पढी-लिखी हुई थीं । छोटी उम्र में ही काफ़ी बडी चुनौतियों का सामना किया था उसनें। उसनें हिम्मत कभी नहीं छोडी ट्यूसन लगा के दो पैसे कमाता हैं और अपने घर को चलाता हैं और हां कभी-कभी रैलियों में भी जाता हैं। अपने जात-भाईयों में ज़्यादा पढा लिखा हुआ वही हैं और शायद बुलन्द हौसलों वाला भी।

मयूर : आआ हम्म्म्म्म ! भाई अभी मैंने गर्मी की छुट्टी की है ट्यूसन में, तो आजकल मैं बन्धू जी के साथ लगा हुआ हूँ । वो आज-कल उन दलितो और मुस्लमानों को उनकी ज़मीन और उनकी रोटी को दिलानें में लगे हुए हैं ।
मैं : सिर्फ़ दलितों और मुसलमानों को ही क्यूँ ? मेरा मतलब हैं सबको क्यूँ नहीं ? अच्छा छोडो गरीबों को ही उनका हक दिलाते ।
मयूर ; तु कहना क्या चाहता हैं ? [गंभीर होकर]

गाइस गाइस ! क्रिकेट खेले ग्राउण्ड आ गया । [कृष्णा ने बीच में ही ये बोल के मेरी बातों को तोड दिया , फिर भी मन मानकर मैं बैट को लेकर विकेट के तरफ़ चला गया]
कृष्णा : ओए! तेरा ये काँलेज़ नहीं हैं जो तु ही पहले बैटिंग करेगा , हम क्या करने आये हैं ।
मैं : चुप कर बे ! मयूर तु बाँल करा भाई! [मयूर जो एक तरफ़ बाँल लेके खडा था, मुझे सुनके रन-अप लेने के लिए पीछे होके चलने लगा]
मयूर ने एक लम्बी रन-अप लेते हुए एक तेज़ आउट-स्वींग डाली और मैने बैट को गेंद की दिशा में घुमा दिया और गेंद पलक झपकते ही खुली आसमान में मिलने को जाता हुआ दिखाई देने लगा । हमारी आँखें अब गेंद को देख पाने में असमर्थ थीं सूरज़ की किरणों का प्रकोप आजकल कुछ ज़्यादा ही हो गया था ।

अचानक एक तेज़ आवाज फ़्फ़्फ़्फ़्फ़ट्ताक ताअअड्डाक्क्क्क मानो जैसे बिजली फ़ट गयी हों हमारें कान के लालें पड गए ।
बाँल पंडित के घर में गया था और वो भी उनके घर के बाँलकोनी का शीशा तोडके..
सारें लडके तेज़ी से गिरते-पडते भागनें लगे क्यूंकि पकडे जाने पे पंडित गाली सुनाना आज़ शुरू करेगा और खत्म अगली रात को करेगा।
ओएएए तेरी ! तेरी तो आज़ अर्थी निकल गई बेटे ! सारी टेक्निकल डिग्री एक बार में ही मिल जाऐगी आज बहूहूहूहूहूहू [भागते हुए कृष्णा ने ये चिल्लाते हुए कहा]

मै एकदम खामोश , मयूर के साथ जैसे कोई पुतला खडा हो और खडे इन्सान के सहारें बस वो खडा हो।
मैंने सोचा कोइ गाली नहीं 1 मिनट से ज़्यादा समय हो गया गेंद को शीशें से लगे हुए , और ये शाला मयूर मेरे साथ अभी तक क्यूँ खडा है ? गेंद मैने मारी है, शीशें मैने तोडे हैं, फिर ये क्यूँ बुत बने रूका पडा है ? फिर झट से मैने अपना सर उठाया और और बस मैं बस देखता रह गया..

मैं : ओ तेरी क्या बात हैं ? [एक 19-20 वर्ष की लडकी जो उत्तरी-भारतीय पोशाक सलवार-सूट में खडी थीं चेहरे पे हजार परेशानियाँ लिए मेरे ही तरफ़ देखे जा रही थीं जैसे मै उसका कोइ बडा कुसूरवार होऊं । शाम की बहती ठंडी हवाओ के कारण उसकी जुल्फ़ें उसकी काबू में नहीं थीं और बहती हवाओ के बीच उसका अपने जुल्फ़ों से परेशान होना उसे और भी खुबसूरत बनाने में कामयाब हो रहा था।]

अचानक मेरी नज़रें उस लडकी से हट के मयूर के तरफ़ गई, अबे ये तो मेरी ही लगा देगा [मयूर भी उसी लडकी को पता ना कब से देखा जा रहा था।]
मैं : चल बे! पीछे हट शालें मेरे सपने को तोडने पे लगा है जो मैने अभी 2 मिनट पहले ही देखें हैं दोस्त कि खुशी बर्दास्त नहीं होती ना तुमलोगों से [कहते- कहते मैने गोग्ल्स लगाकर उसके कंधे का सहारा लेके एक लम्बी छ्लांग लगा के मयूर से दो कदम आगे होते हुए , बेटा बाप , बाप ही होता हैं]
और मै अपना सीना चौडा करतें हुए उपर की तरफ़ जहा वो लडकी खडी थीं, देखता हूँ ।

ओ शीट ! पंडित की पाप उसकी बेटी काली-कलूठी.. चेहरा हाथी के जैसा बिना ब्रेक गाली का पिटारा चाहें जो भी नाम दे दो सब सूट करता हैं कमीने पे , डायन हैं एक नम्बर की देख लो उसको तो पूरा का पूरा दिन खराब चला जाता है , कमीनी ने एक बार तो देखते-देखते ही विडियोगेम खराब कर दिया था।
घर में कोई नहीं हैं क्या ? आ रहीं हूँ आँटी से मिलने , वहीं पे सब पता चल जाऐगा [कमीनी ने फिर श्राप बका]
मैं : ओए साँरी ! साँरी अनु यार !
अनु : क्यूँ ? क्या हुआ ! बडा शेर बन रहा था , अब उछ्ल के आगे आ ना बन्दर कहींका।
मयूर [पीछें से मेरे कानों में बुदबुदाते हुए] : इन्सलट हो गयी यार लौण्डियां के सामने।
मैं : चुप कर शाले !
मयूर : हींहींहींहींहींहीं हाँहाँहाँन्न्न्नाआआआ !
मैंने मयूर को नज़र-अंदाज़ करते हुए चुपचाप बस अनु की ओर देखता रहा ये सोच के जाने अब आगे क्या होगा, क्या चल रहा है इस शैतान के खुराफ़ाती दिमाग में।

लेह्ह्ह !अनु ने गेंद को मेरी तरफ़ फ़ेंका, ये बोल रही हैं तो दे रही हूँ बस, अगर दूबारा आया ना तो [गुस्सें में आगे कुछ ना बोल पाई डायन कहींकी]
मैं गेंद को खुशी से लपकते हुए, और फिर उस लडकी की तरफ देख के मुस्कां के फ़िल्ड की तरफ भागने लगा जैसे मैंने कोइ वर्ल्ड-कप जीत लिया हो !
मैं : अबे किसकी गेंद है यार ले ले ! जान बची यार कसम से !
कृष्णा : ला दे मेरी हैं !
मैं : हरामी शालें ! [हल्कें गुस्से और मुस्कुराते हुए में]
पहलें नहीं बता सकता था , गदहें! आंह?
मैं : वैसे ठीक ही किया जो नहीं बताया , आज़ मेरे सपनों की क्वीन मिल गई । [कहते हुए मैने कृष्णा को गले लगा के थैंक्स कहा]
कृष्णा [आशचर्य से मेरी ओर देखके] : आअं क्या ? क़्वीन , पागल हो गया हैं क्या तु ?
मयूर [बात को तोडते हुए] : शालें ! तुने कभी बताया ही नहीं तु अनु को पसंद करता हैं, हम सारें कमीनें उसे चलते-फिरते यूं ही गाली देते रहते हैं, लानत हैं हमारें ज़ीने पर रिश्तों की भी कद्र नहीं हैं हमे।

मैं ये सुनते ही पास के लगे विकेट को उखाड कर मयूर और कृष्णा के पीछें दौडनें लगा रुको कमीनों बताता हूँ कौन हैं तुम्हारा बाप ?
दोनों दौडते हुए मैदान के तरफ़ जाके हाफ़्ते हुए , भाई भाइ आँल टाइम्स !
मैं [हाँफ़्ते हुए] : मेरा भी है ।
मयूर मुझे देखके मुस्कुराता हैं और दौड के आके मुझे गले लगा लेता हैं और कह्ते-कहते रोने लगता हैं भाई बहोत दिन हो गए थें खुद को ऐसे देखे हुए थैंक्स !कृष्णा भी पीछें से मेरे उपर चढते हुए और मयूर को देखकर..
..भाई बाप लोग को ना कभी थैंक्स नहीं कहते !

फिर हम एक-दूसरें से अलग होकर मयूर विकेट उठाने लगता हैं , मैं उसे अपने तरफ खींच कर ,
मैं : बता ना भाई कौन हैं वो ?
कृष्णा : कौन-कौन यार ?
मैं : तु चुप रह यार , तुझे कैसे पता चलेगा तु भी तो कल्ह ही आया हैं ना यहां ।
मयूर : वो उसकी फ़्रेंड है , कोमल नाम हैं उसका ।
कृष्णा : आअह्ह्ह ! कोमल कितना प्यारा नाम हैं ?
मैं [बनावटी गुस्से और थोडा मुस्कुराते हुए] : भाई तु भगवान के खातिर 2 मिनट के लिए चुप हो जा बस , प्लीज़ !
मयूर [मेरी और कृष्णा के बातों को नज़र-अंदाज करते हुए] : हानं यार एन्ड वो तेरे ही कास्ट की भी हैं ।
कृष्णा : तेरी तो निकल पडी , यार! [फिर से पर इस बार ना-जाने उसकी कहीं बात अच्छी लगी]

..और मैनें कृष्णा को देख के मुस्करां दिया । हमारी तरफ़ अभी भी जात-पात का बडा बोल-बाला हैं , शहर बहोत आगे निकल चुका हैं लेकिन ख्यालात अभी भी गड्ढें में गिरें पडे हुए हैं। खैर मुझे इससे क्या? मै कोइ समाज-सुधारक थोडे ही ना हूँ? ये सोच के हमेशा इनसे मैं अपनी नज़रें फेर लेता हूँ!
मयूर [मुझे सोचता हुआ देखके] : ज़्यादा मत सोच! विधायक की बेटी है ! कुछ ज़्यादा सोचा ना तो दिमाग ही निकाल लेंगे तेरी। बंधूजी बता रहे थे काफी मजबूत पार्टी है और काफी अध्दिमाग भी पता ना कब क्या कर बैठे ?
मैं [मुँह बनाते हुए] : ह्म्म्म्म्म्म !
मयूर : हाँ , तु कल से आयेगा हमारे साथ , कृष्णा भी आ रहा हैं । [मयूर ने दोस्ती दावं-पेंच मारते हुए कहा]
मैनें देखा ये सुन कर कृष्णा मुझे देखने लगा जैसे उसने मुझसे कोई सास-बहू ड्रामें वाला उम्मीद लगा के बैठा हो ।
मैं [कृष्णा से नज़रें हटाते हुए] : नहीं यार रहने दे , मेरा वहां क्या काम? , मैं तो टेक्निकल हैंण्ड हूँ ना और वैसे भी कृष्णा का वहां जाना सहीं भी हैं उसके प्रोफ़ेशन से ये मिलता हैं , आज़ ना तो कल उसे इसमें आना ही हैं , और शुरूआत अपनों के साथ हो जाए तो फिर बुरा भी क्या हैं ? मेरा भला वहां क्या काम ? कुछ काम हो तो चलूं ,ये कुछ लगता है सही ,वर्ना ऐसे ही बैठे रहने से क्या फायदा? [मैंने अपना शातिरपन दिखाते हुए कहा]

मयूर [उत्सुकता से] : काम हैं ! काम है , भाई तभी तो कह रहें है , तू टेक्निकल हैण्ड हैं तो जितनी टेक्निकल प्रोब्लमस होंगी.. वो सब तु देखेगा , इससे तुझे भी फायदा होगा तेरी जान-पहचान भी बढेगी और कुछ मान भी । आखिर तेरी पढाई किसी गरीब के काम आ जाए तो भला इसमें बुराई ही क्या हैं ? और तु हमारें बिना करेगा दिन-भर करेगा भी तो क्या करेगा ?

कृष्णा : और वहां काम करने के पैसे भी मिलेंगें , हर डील पे 100 रू और  सोल्यूशन करने पर 300 रू , कम हैं क्या ? [कृष्णा ने बात बनाते हुए कहा]
मैं [उत्सुक होकर] : क्या-क्या डील पे कितना बताया ? [मेरे बातों की लालच की चमक मेरी आँखों में साफ दिखाई दे रहीं थीं]
कृष्णा : 100 रू !
मैं [बच्चों की तरह होकर] : और सोल्यूशन पे ?
मयूर [मुस्कुराते हुए] : 300 यार !
मैं : हींहींहींहींहीं ! याह्ह्ह ओकेह ! अब बस तु टाइम बता आना कबसे होगा वहां मुझे ?
मयूर : 11 बजे कल सुबह कैसा रहेगा ?
मैं : हम्म्म्म ! बिलकुल ठीक ! सही टाइम हैं भाइ.. मैं आराम से आ जाऊँगाँ ।
बातों-बातों में मै अपने घर के पास आ गया था ।
कृष्णा : ओके ! बाँय भाई सी यू टूमौरो ।
मयूर [मुस्कुराते हुए] : बाँय।
मैं : गुड बाँय ! [कहते हुए घर के अन्दर चला गया]

यहीं मेरा बेटा हैं [घर के मेरे अन्दर आते ही पापा ने एक अंजान शक्स से मेरा परिचय कराया]
पापा : बेटा , ये रामजी हैं , यहीं हमारी ज़मीन बिकवा रहें हैं ।
मैं ये सुन के कुछ चुप सा हो गया और नज़रें अपनी नीचे करके कुछ सोचने लगा ।
पाप : तुम क्या सोच रहे हो ? जाओ अन्दर से कुछ नाश्ता ले आओ !
मैं [चुपचाप अन्दर आकर] : माँ जो कुछ हैं दो कोई आया हैं नाश्ते पे !
माँ : टेबल पे रख्खी हुई हैं , ले जाओ । [माँ ने परेशान होते हुए कहा,शायद वो किसी काम में कुछ ज़्यादा ही व्यस्थ थीं]
मैं नाश्ता ले के बाहर आया , जहां पापा और वो डिलर बैठे हुए थे । हां करीब 26-27 साल का होगा, वो कालें घने और छोटे बालों वाला और शरीर से स्वस्थय , और हाथ में एक सस्ता सा हैण्ड-सेट , जैसे देखने से लग जाएं वो काम क्या करता हो ।
मैं : हाँअअअ ! पापा ! [मैंने नाश्तें को एक तरफ़ रखते हुए कहा]
रामजी [गंवारियत से] : आपका काम सोचने का थोडे ही ना हैं , जब आप सोचेंगे तो पढेंगे क्या ?
पर एक छोटी सी कहानी उसने कहीं जो कुछ दिल को लग गई ।

रामजी : जानते हैं वर्मा जी ! एक लडका अपने बाप के साथ शहर पढने जा रहा था, तो पहले सावारी का साधन नहीं था तो लोग पैदल ही आया-जाया करते थें , और लाज़िम सी बात हैं पैदल चलने के कारण भूख लग ही जाती हैं तो उन्हें भी लग गई । तो बेटा से बाप कहता हैं : बेटा भूख लगी हैं !
 बेटा : हां बाबूजी ! ज़ोर की लगी हैं। [भूख के कारण आवाज़ भी कम ही निकल रही हैं]
बाप क्या कहता हैं बेटे से देखिए वर्मा जी।
पापा : हाँन्न्न-हाअअन्न्न ! [उत्सुक होते हुए]
बाप : बेटा , क्या खाया जाएं ?
बेटा : बाबूजी ! चिकन ही खा लेते हैं , ज़्यादा देर तक बना रहेगा और एनर्जी भी रहेगा और चिकन खाए भी कई दिन हो गए , हाँ वहीं सही होगा । [दोनों आपस में विचार-विर्मश करते हुए]
बाप : ठीक हैं ! आओ चलो चलते हैं , और दोनों एक दुकान के पास पहुँचकर ।
बाप : कैसे हैं चिकन भैया ?
दुकानदार : 10 रू भाई-साहब ! [मुस्कुराते हुए]
बाप बेटा की तरफ़ देखता और हाथ में रक्खें पैसें को देखता हैं जो अपनी ज़मीन को बेच कमाएँ थे । बेटे की पढाई के छाँटने के बाद 6 रू शेष बच रहें थें ।
बेटा ये देखकर : बाबूजी ! आगे चलिए ये कुछ ज़्यादा ही कांट रहा हैं।
दुकानदार : हाँ भैया ! तुम देख लो सारी जगह यहीं रेट ! [मुँह बनाते हुएं]
बाप-बेटा ये कहके आगे बढ जाते हैं , पर लाखों प्रयासों के बाद भी , लाख घुमनें के बाद भी कुछ हासिल नहीं होता , तो वो दोनों हार मानके सत्तू खरीद के खा लेते हैं।

पर पर वर्माजी [कहते हुए रामजी के चेहरें पर आचानक प्रसनता की लहर दौड जाती हैं]

मैनें देखा उन बहती शाम की हवाओं को भूल के , पापा उस कहानी के अंत में खुद को डूबोना चाहते हो । उस कहानी में खुद को देख रहें हो , उनकी आँखों में देखके ऐसा प्रतीत हो रहा था ।
रामजी : जब वहीं बाप-बेटा 10 साल बाद , जब वो अमीर हो जाते हैं तब 100 रू चिकन मिल रहा था और अपनी गाडी को जगह-जगह रोक को खा रहें थें । तो हम वहीं कह रहें थें , दुख-सुख ज़िन्दगी में ना आएं तो फिर क्या मज़ा ज़िन्दगी जीने का।
पापा : हाँ हाँ ! एकदम सही ।

रामजी : ठीक हैं , फिर वर्माजी हम कल आपको फ़ोन करते है ।
पापा : जी शुक्रियां !
रामजी चले जाते हैं और पापा घर के अन्दर ।

रात के आँठ बज रहे थें ।

मैनें मोबाईल उठाया और क्रिकेट खेलना शुरू कर दिया ।
दी : इतने दिन बाद आए हो और आते-आते मोबाइल में ही घुस गए । मेरी तैयारी चल रही थीं फिर भी तुमसे मिलने आइ हूँ ।
मैं [मोबाइल में गेम खेलते हुए] : हाँ तो फिर छोड क्यूँ दी ?
दी : ऐसा कुछ नहीं हैं , फिर जा ही रही हूँ सण्डे को , बस तुमसे मिलने आइ थीं ।
मैं [मोबाइल से नज़र हटाते हुए] : मिलने आइ हो तो फिर क्या ले के आइ हो ?
दी : अभी कोइ कमा थोडे ही ना रहें है ? [मुँह बनाते हुए]
मैं : चल ठीक हैं पका मत रहने दे अब बस  कर ,जाओ अब लाइट भी आ गई हैं ।
दी : तुमसे कुछ बात करने आइ थीं ,बट तुम तो कुछ ज़्यादा ही बीज़ी रहने लगे हो ! [कहते हुएं कमरे से बाहर चली गइ]
माँ : ऐ बाबू! मोबाइल में क्या ढूंढ रहे हो ? अब आँख भी खराब कर लोगे क्या ? अब..
माँ के भाषण से तंग आकर मैनें हेड-फ़ोन उठाया और कान में डाला , अब सब कुछ कन्ट्रोल में था।

2 घंटे बाद..

भैया भैया माँ बुला रही हैं खाने के लिए [निशा ने आवाज़ बाहर से ही लगाया]
मैं : आया ! [कहते हुए हेड-फ़ोन उतार के मै बाहर आया] तुम खा ली क्या ?
निशा : हाँ ! क्यूँ मेरे साथ ही खाते क्या ? तो पहले क्यूं नहीं बताएं ?
मैं : चुप कर यार ! [परेशां होता हुआ]
माँ : हां ! लो ! [माँ ने टेबल की एक तरफ़ से खाना मेरे तरफ़ बढाया]
मैं खाना लेते हुएं  ।
निशा : माँ , मुझे बस 2 पराठें देना ।
माँ [परेशान होते हुए] : रूको ! अभी तुम लोगों का तो अलग ही रहता हैं वो कुछ नहीं खाता , कुछ तुम नहीं खाती और वो कुछ नहीं खाती , हम तो बस परेशान ही रहने लगे है]
मैं : लेह्ह ! और बोल झूठ [मुंह बनाते हुएं]
मैंने खाना खाया और अपने कमरें की ओर चल दिया।

अगली सुबह :

नितेश नितेश ! हल्की-हल्की यें आवाज़ मेरे कानों में आ रहीं थीं ।
मैनें नींद में ही कहा : हाँ क्या है? [वो आवाज़ मेरी माँ की थीं जो मुझे करीब 15-20 मिनट से मुझे पुकार रही थीं।]
मैं चुपचाप आँखों को मलता हुआ आँगन में आ गया।
माँ [मुझे देखते हुएं] : कितना सोते रहते हो ?
मैं : क्यूं क्या हुआ अब ?
माँ : कुछ नहीं , जाओ फिर सो जाओ ।
मै : पापा कहां गए हैं ?
माँ : रामजी के पास , लो खा लो । [माँ ने खानें की थाली को मेरे ओर बढातें हुए कहा]
मैं : अभी ! [अचरज़ता से]
माँ : अभी बोल रहे हो ? 10:00 बज रहें हैं । सब अपने-अपने काम पर कब का निकल गए है । और हान कृष्णा और मयूर भी आएं थें ।
मैं [माँ की तरफ़ देखते हुए] : वो क्यूं आए थे ? अभी तो 11:00 बजने में पूरें 1 घंटे कम हैं । [कहते हुए सर खुजाने लगता हूँ]
माँ : पता ना क्या कह रहें थें ? कि बन्धूजी ने आज़ उन्हें पहले मैनें कुछ साफ से सुना नहीं था , मुझे तो खुद कितने काम रहते हैं। [माँ ने अपना दुखडा फिर से सुनाना शुरू किया , और माँ की सारी अधूरी बातों ने मुझे असमन्जस में डाल दिया और ऐसे में मेरी पूरी नींद एक बार में ही टूट गई]

मै : माँ ! मुझे उनके साथ जाना था । मैं नाश्ता करके निकलूंगा और हान शाम तक ही वापस आ पाऊँगा ।
माँ [गंभीर होते हुए] : पागल हो गए हो क्या ? कल से जो करना होगा वो करना अपनी मन का , आज़ तुम्हारें पापा तुमको कभी भी बुला सकते हैं ।
मैं [माँ की तरफ देखते हुए] : क्यूं ?
माँ : शायद ! वो आज़ पैसे मिल जाएं ज़मीन के कहीं.. बोल रहा था आधा आज़ और आधा 4 दिन बाद देगा ।
मैं : इतनी ज़ल्दी ? कल ही तो बात हुआ था , इतनी ज़ल्दी पैसें दे रहा हैं ? क्या बात हैं ?
माँ : सब मेरे किशन-कन्हैया का कमाल हैं । [माँ ने हाथ जोडते हुएं कहा]
मैं : हम्म्म्म्म्म्म ! ठीक है ।
मैनें फिर मयूर को फोन मिलाया : भाई साँरी यार ! आज़ नहीं आ पाऊँगां पापा का काम हैं , कल से पक्का भाई !
मयूर : चल ठीक है लेकिन कल से पक्का यार !
मैं [मुस्कुराते हुएं] : हान हाँ भाई ! 100 % श्योर !
मैंने अपना नाश्ता उठाया और अपने कमरे की ओर चल दिया..
..इंडिया वर्सेज़ वेस्ट-इंडिज़ का सेमीफाइनल देखने।

माँ ने पीछे से फिर आवाज़ लगाया : क्या कर रहो हो ?
मैं [हल्के गुस्सें में] : कोई काम हैं क्या ?
माँ [विनम्रता से] : इतना झिझक क्यूं रहे हो ?
मैं [हुई गलती को सुधारते हुए] : मैच देख रहा हूँ , माँ ! अब पापा जब फोन करेंगे तब ना जाऊँगां वहा ।
माँ : हाँ ठीक हैं ! याद से चले जाना , हम बाज़ार जा रहें हैं उधर से शाम तक ही आ पाऐंगे मेडिकल शाँप भी जाना हैं अभी दवा लेने । [कहते-कहते माँ ने बाहर से दरवाजें को बाहर से बंद किया]
मै :  ठीक हैं । [और मै फिर मैच में रम गया]

शाम के 4:00 बजे के करीब

अचानक नितेश नितेश..
..एक ज़ोर की आवाज़। [बाहर आके मैनें बाँलकोनी से देखा , कृष्णा और मयूर चार-पाँच आदमियों के साथ खडे थें]
मैं [अचरज़ता से] : हां।
कृष्णा [आशावादी होकर] : चलेगा कचहरी रोड.. विधायक जी वालें पार्टी ने दंगा करवा दिया हैं जात-पात का मतभेद कराकर , और पुलिस-प्रशाशन कुछ नहीं कर पा रहीं हैं , गरीब अपने हक के लिए लड रहे हैं लेकिन कमजोर पड रहे हैं , तू चलेगा हमारे साथ , शायद तु कुछ कर सके ।
मैं [बेर्शमों की तरह होकर] : भाई पापा का फोन आने वाला हैं ।
मयूर [नाराज़गी और थोडे गुस्से से] : अरे यार ! मैने कहा था ना वो नही आयेगा , तु हमेशा बेमतलब का ज़िद करता रहता हैं , देख कितना देर हो गया , पता ना वहां क्या होता होगा। [मयूर उसे तेज़ी से गुस्से में सुनाता हुआ चला जा रहा था और मेरी निगाहें उसे जाता हुआ बस देख रहा था]

तभी ये बी एस एनल सीक्स सचिन ने मीड-आँफ़ की ओर एक लम्बा 6 मारा था । मैं दंगे और अपने मित्रों को यूं ही परेशानियों में पडा छोडकर फिर से मैच देखने में रम गया।

आधे घंटे बाद..

ट्रिंग ट्रिंग.. ट्रिंग ट्रिंग !
मयूर काँलिग !
मैं [झुल्लातें हुए] : अब क्या हो गया , ओह्ह्ह तेरी ! चैंन से मैच भी नहीं देखने देते । [फोन उठाते ही मैने मयूर को ये सुना दिया]
मयूर ने जैसे मेरी बातों को अनसुना कर दिया हो और : यार ! तेरे पापा को दंगे में चोट लग गई हैं , हम उन्हें सिटी हाँस्पिटल लेके जा रहे है , तु ज़ल्दी आ वहां । [ये सुनते ही जैसे मुझे साँप सूंघ गया हो,वैसी वाली कुछ हालत हो गइ थीं]
फिर अचानक पता ना मेरे में वैसी शक्ति कहा से आ गई थीं , और मैं बस 15 मिनट में वहा अपने ब्राउन टी-शर्ट और ब्लू लोअर में सिटी हाँस्पिटल पहुँच गया था ।
हास्पिटल पहुँचकर जब मैं आँपरेशन थियेटर के पास पहुँचा मेरी आँखों से अपने-आप आँसू बहने लगे और मैं दीवार के सहारें खडे होके हाँफ्ते हुएं हिम्मत जुटा के अंदर झांक के देखता हूँ पापा को सर पे गहरी चोट लगी हुई थीं । कृष्णा ने पीछें से आके मुझे हिम्मत दी और मैं उसके गले से लिपटकर रोने लगा।

मयूर : भाई ! चिंता की कोई बात नहीं हैं मामूली चोट लगी हैं ठीक हो जाऐंगे तू बैठ..
..और कृष्णा तू चल । [मयूर कृष्णा की तरफ देखते हुए बोला]

मैं [कुछ गंभीर होकर] : आन्नह! क्या बोला ? क्या-क्या बोल रहा हैं , ये तुझे मामूली दिख रहा हैं । तु होश में तो हैं सर से खून बह रहा हैं । बाप हैं वो मेरा तू दोस्त हैं मेरा कोई समाज़-सुधारक नहीं.. जस्ट ग्रो-अप मैन । [मैंने अपना हाथ उसके सर से झंकझोर के कहा]
मयूर [मेरे हाथ को हटाते हुए] : तु पागल हो रहा हैं क्या.. वहां हज़ारों लोगों की ज़ान जा रही हैं ! तेरे जैसे हज़ार बेटे हैं अपने बाप का घर पे आने का इन्तज़ार कर रहें हैं । क्या सबको मैं ये जवाब दे दूंगाँ की मैं तेरी सहानूभुति के कारण रुक गया था और तेरे खुशी के खातिर मैने उनके बाप को मरने दिया था ।
भाई तू बस अभी ज़ज्बाती हो रहा हैं , अंकल को कुछ भी नहीं हुआ हैं सिर पे एक हल्की चोट लगी हैं , डाँक्टर अंदर पट्टी कर ही रही हैं बस 5 मिनट में सब पहले जैसे हो जाऐगा । मैं तेरा दुश्मन थोडे ही ना हूँ ।
कृष्णा [मुझे आश्वासन देते हुए] : हान्न भाई वो ठीक कह रहा हैं , अंकल पट्टी होने के बाद बिल्कुल ठीक हो जाऐंगे और तुम उन्हें घर पे ले जा सकते हो , हमने डाँक्टर से इस बारें में बात कर ली हैं , और कोइ बात होता तो हम क्या ये कहते?
मैं खामोशी में सर हिलाते हुए : ठीक हैं , एंड हां भाई ! थैंक्स यार !
कृष्णा ने जाते वक्त मुझे देखके मुस्कुरा दिया और मयूर जैसे वो किसी घनी सोच में पडा हो , अपना सर नीचे किए ही बाहर चला गया ।
डाँक्टर : नितेश नितेश !
मैं [अधीरता से] : हाँ हाँ ! जी बोलिए सब तो ठीक हैं ना ?
डाँक्टर : चिंता की कोई बात नहीं हैं सब ठीक हैं , बस ध्यान रहे वो अपने दिमाग पे ज़्यादा ज़ोर ना दे , और सब ठीक हैं।
मैं : ओके डाँक्टर , थैंक्स !
मैं अब पापा को लेके घर आ रहा था , दंगे की वज़ह से पूरा शहर बंद था , इसलिए हम पैदल ही चले आ रहे थें । अचानक पीछें से दंगे का एक झुण्ड तेजी में आ रहा था जिसका पहल विधायक का बेटा कर रहा था ।
विधायक का बेटा : ओए ! बुड्ढें को साइड में कर बे !
मैं पापा के साथ होने के कारण अपने गुस्से को पीकर सडक के एक साइड होने लगा । तभी पीछें से विधायक का बेटा मेरे पैर पे एक डंडा मारते हुए..
अबे इधर..!
..लेकिन उस डंडे के लगने कारण मैंने अपना संतुलन खो दिया और पापा अपने सर के बल नीचे गिर गए।
मैं [गुस्से से पीछे मुडते हुए] : ओए हरामी ! रूक शाले ! उसकी शर्ट पकड के उसके सर पे एक ज़ोर का बजा दिया और सडक खून से पल भर में ही भर गया, इसे देख सारे दंगे वाले तितर-बितर हो गए और मै कुछ हतप्रभ सा ! तभी पीछे से मयूर ने आके मुझे सँभाला और कृष्णा पापा को उठाने लगा पापा ठीक थें , वो पापा को घर लेके चला गया और मयूर मुझे समझाते-समझाते करीब घर 11:00 बजे लेकर पहुँचा।

घर पे आया तो देखा सब खुश थें मेरी दी की जाँब इनक्म-टैक्स डिपार्ट्मेन्ट में हो गइ थीं । दी मेरे तरफ दौडते हुए आके लो नितेश! और एक मिठाई मेरे मुँह में डाल दिया और डिब्बा मयूर को पकडा दिया ।
मैं चुपचाप मिठाई को मुँह से निकाल के हाथ में लेता हुआ लेके अपने कमरे में चला गया । मुझे अभी भी यकीं नहीं हो रहा था एक पल में इतना कुछ कैसे हो सकता हैं । किसी तरह मैंने खुद को सँभाला और सर को अपनें तकिएं में डाल के सो गया।

अगली सुबह..

आपके बेटे क नाम वारेन्ट हैं हमारे पास वर्मा बाबू ! [एक हवलदार ने कहा]
इंस्पेक्टर : हाँ वर्माजी आपने सही सुना , आपके बेटे के खिलाफ़ इल्ज़ाम है कि आपके बेटे ने विधायक जी के बेटे पे जानलेवा हमला किया था भरे-बाज़ार । [पापा ये सुनके एकदम स्तभत हो गये , माँ परेशां , मैं दौडता हुआ आँगन में आया और पापा को सँभालने लगा]
पापा [भावुक होते हुए] : शुरूआत उसने करी थीं इंस्पेक्टर साहब।
मैंने हाथ बढा के पापा को चुप कराया और इंस्पेक्टर की ओर देखकर, आप चलिए ।
कृष्णा दौड के मेरे घर की तरफ़ आ रहा था , और  मुझे इंस्पेक्टर के साथ देखके वो कुछ रूक सा गया , और इंस्पेक्टर की तरफ़ दौड के आते हुए उसने कहना शुरू किया ।
कृष्णा : सर ! आप मेरे दोस्त को किस ज़ुर्म में गिरफ़्तार कर रहे है ?
इंस्पेक्टर : विधायक जी के बेटे पर जानलेवा हमला करने के जुर्म में !
कृष्णा : कल के दंगें में बहोतों की जान गई हैं , मेरे दोस्त के पिता आज़ आपके सामनें ही घायल खडे हैं , ज़िन्हें कल वक्त पे अगर हाँस्पिटल नहीं ले जाया जाता तो वो भी आपके किसी दबी फ़ाइल के पन्नों में नज़र आते , जो अभी आपके सामनें मजबूर होके अपने बेटे की रिहाई की गुहार कर रहे हैं ।
इंस्पेक्टर [व्यंगता से, हँसते हुए] : तो आप इनके वकील हैं ?
कृष्णा [गुस्से से] : वकील नहीं हूँ , लेकिन हान वकालत ज़रूर करी हैं और वक्त आने पे इस्तेमाल भी कर सकता हूँ।
इंस्पेक्टर [कृष्णा के करीब आकर] : तो समझिएं वक्त आ गया अब अपने दोस्त को आप विधायक जी से बचाइयें।

..और ये कहते हुए वो मुझे लेके जाने लगा , कृष्णा खुद की लाचारी को सँभालते हुए कहता हैं।

कृष्णा : भाई तू परेशां मत होना मैं दोपहर तक आ रहा हूं , और तुझे लेके ही वापस आऊँगा ! और किसी के बाप के बस की नहीं हैं जो तुझे यूं ही बिना मतलब अपने गिरफ़्त में रख्खें। [कृष्णा ने व्यंगता में इंस्पेक्टर की ओर देखते हुए कहा , उसकी हालातों को देख इंस्पेक्टर प्रतिउत्तर में मुस्कुरा देता हैं]

टाउन थाना जीप की स्पीड कम हो गई..

आगे मयूर और बंधूजी अपने चार-पाँच साथियों के साथ थानें के बाहर खडे थें , शायद मेरे इंतज़ार में ।
इंस्पेक्टर [बंधूजी के देखते ही हाथ जोडकर] : प्रणाम , बंधूजी !
बंधूजी : प्रणाम प्रणाम ! ई हम का सुन रहे हैं ? आंएएएं आप हमारे लडके लोगों को परेशान कर रहें इसी दिन के खातिर आपको हमने इस काबिल बनाया था की आप हमारें ही धोती में घुस के काटें।

इंस्पेक्टर [मेरी ओर देखते हुए] : सर सर मुझे पता नहीं था ये आपके आदमी हैं गलती हो गई माफ़ी चाहते हैं । [एक याचना करते हुए इंस्पेक्टर ने कहा]
बंधूजी : ठीक है.. ठीक है ! अब छोड दिजीएं इसे, जाने दिजीएं । और आप किसके लिए लड रहे है , आंएएएं ? अब छोडते काहे नहीं , अब क्या सोच रहे हैं ?
इंस्पेक्टर : सर एक प्रोबलम है उ का हैं ना बेल पेपर  मिल जाता ना तो..
..कमिशनर का आँडर आया था इनको पकडने को बहुत बडे लोग है ना..
..पहुँच एइसे लगाएं हैं क्या बताएं पूरी रणनीति बनाएं हैं आप अंदर आइये ! उसने बंधूजी को अंदर बुलाया और चार कप चाय मँगायां।
इंस्पेक्टर : सर इनको गिरफ़्तार करके वो सारें गरीबों का वोट ले लेंगें कि विधायक जी जात-पात भी नही देखते , उनकों क्या हैं ? वो तो उनके पी ए का बेटा हैं अब मुँहबोला मुँहबोला ही होता है , ना । और जहां वोट मिली इनको तो [कहते हुएं इंस्पेक्टर कुछ रूक सा गया और हमारें करीब आते हुएं, मैं अंदर की बात बता रहा हूँ आपको , बात ना फ़ैलें तो सही रहेगा]
बंधूजी : हाँ-हाँ कहिएं आप, निश्चिंत होके कहिएं।
इंस्पेक्टर [धीरे-से] : सर वोटिंग खत्म होते ही इनको मारने का इरादा था ।
मयूर [गुस्से से] : हलवा हैं क्या ? जो मारना था , इसकी माँ का..
इंस्पेक्टर [मयूर को देखते हुए] : मयूर बाबू ! गुस्सा करने से कोई फ़ायदा नहीं अभी ! आप तो बस अभी बेल-पेपर का इंत्ज़ाम किजीएं।

कृष्णा [पीछे से आते हुएं] : यार कल के दंगे के कारण आज़ कचहरी बंद हैं , अब सोमवार को ही कुछ हो सकता हैं । [निराश होते हुएं उसने मयूर से कहा]
इंस्पेक्टर [मयूर और बंधूजी को देखते हुएं] : आप , चिंतित मत होइए । यें हमारे पास है , इन्हें कुछ नहीं होगा , आपके लिए हम इतना भी नहीं कर सकते क्या ?
बंधूजी : हम्म्म्म्म्म्म्म्म ! कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए , समझिएं हम आपके बेटे को आपके पास छोडे जा रहें है ।
इंस्पेक्टर : बिल्कुल सही सर ! आप तनिक भी परेशां ना हो ।
बंधूजी [मयूर की तरफ़ देखते हुए] : अब ठीक हैं ना , सोमवार को आपका दोस्त , आपके साथ फिर से क्रिकेट जमाऐगा ।
मयूर [मेरी तरफ़ देखते हुए] : तू चिंता मत कर , अभी हम घर ही जा रहे है , तू ख्याल रखना बस ।
कृष्णा [मेरी तरफ़ देखते हुए] : जो होता है , वो मैं तुम्हें शाम तक बताता हूँ ।
मैं [हल्की आवाज़ में] : भाई , याद से !
फिर सारें जाने लगते है और इंस्पेक्टर उनके साथ उन्हें बाहर तक छोडने चला जाता है।

रात के करीब आँठ बजे..

आपसे मिलने कोई आया हैं । [अंदर आके एक हवलदार ने मुझसे कहा]
मैं ये सुन के तेजी से बाहर दौडता हुआ आया, कृष्णा एक डब्बा लेके मुझसे मिलने आया था ।
कृष्णा [डब्बें को मुझे देते हुए] : भाई , कैसा है तू ?
मै [उसकी बातों को जैसे अनसुना करते हुए] : किसने भेजा ? माँ ने ?
कृष्णा की आँखों में आँसू थे जो मैं साफ-साफ देख सकता था शायद उसकी यें आँसू मेरे हालतों पे थीं ।
मैं : घर पे सब कैसे है ? और हान्नअ ! पापा कैसे है ? आंन्न्नह्ह्ह ?
कृष्णा : सब ठीक है यार , अब मुझे जाना होगा तू खाना खा लेना भाई। [कहते हुएं उसने मुझसे अपनी नज़रें फेर ली]
मैं : भाई..
कृष्णा [पीछे मुडके अपने आँसूओं को पोछते हुए] : भाई मैं ज़ल्दी ही कुछ करता हूँ , कहते हुए वो चला जाता है ।

मैं चुपचाप खाना खाके खामोशी से ज़ेल के चारदीवारी में सो जाता हूँ। उस रात मैं खुद को बहोत तन्हा महसूस कर रहा था , सिवाएं अंधेरों के मेरे पास और कोई नहीं था, हाँ बेशक एक पानी का मटका रख्खा पडा हुआ था मेरे प्यास को बुझाने को , मगर मेरे अंदर आग ही कुछ अलग थीं जो उस पानी से बुझने वाली नहीं थीं।

रविवार का दिन अगली सुबह कोइ खबर नहीं कुछ पता नहीं मैं बार-बार हवलदार को बुला-बुला के पूछ्ता कोइ आया था क्या मिलने मुझसे और हवलदार हमेशा की तरह परेशान होकर कहता “ अरे भइयां ! कोई मिलने आऐगा तो हम कहीं चुरा लेंगे क्या , मिलनेवाले आऐंगे तब ना मिलवाऊँगां , कितनी बार समझाना पडेगा , आपको ? ”
मैं उसकी बातों को सुन के हमेशा की तरह निराश हो जाता था।

शाम के करीब 5:00 बजे..

हवलदार : कोई आया है ।
मैं हवलदार की इस बात को सुनते ही तेज़ी से बाहर दौडता हुआ आया, और फिर गुस्से से पीछे मुड गया।
सिर्फ़ दो मिनट लूंगी तुम्हारी ! कुछ बातें करनी है तुमसे। [कोमल ने बात तेज़ी में कही जो अनु के साथ अपने एक्सट्रा क्लास का बहना बनाके मुझसे मिलने आइ थीं]
मेरी कदम उसकी बातों को सुनके कुछ रूक सी गई , ना चाहते हुए भी मैं उसकी ओर बढ गया ।
कोमल [मुझे देखते हुए] : कैसे हो तुम ?
मैं [हँसते हुए व्यंग में] : देख लो, कैसा दिख रहा हूँ  ?
कोमल : साँरी ! रियली साँरी।
अनु [उल्झते हुए] : तु क्यूं साँरी माँग रही है ? गलती तो तेरे बाप ने ना की है ? और तू भी तो अपने बाप से परेशां हैं। बस वो नाम का ही बाप हैं उसे तेरे बारें में कुछ पता भी हैं ? तू क्या चाहती हैं ? कहाँ रहती हैं ? तुझे क्या पसंद है ? और और तू..
..मेरी तरफ़ देखकर मुडके , जैसे कोई सांड मेरे आगे अपना मुँह किए खडा हो , कहने लगी “ तू क्या आग उगल रहा हैं ? इसने तो तेरे खातिर अपनी माँ की इकलौती निशानी , उनकी दी हुइ कंघन को बेच दिया।

मैं [हैरान होते हुए] : मेरे खातिर ?
अनु [गुस्से में] : हाँ , तेरे पापा को पटना ले जाया गया है । कल दोपहर उन्हें ज़ोर का चक्कर आया था , डाँक्टर ने उन्हें फ़ौरन पटना रेफ़र कर दिया , इसने अपने कंघन बेच के 3 लाख रूपएं दिए थें ।
मैं ये सुन के कुछ शांत सा पड गया। और अपनी जगह से पीछे होते हुएं..
मैं [अनु की तरफ़ देखकर] : लेकिन ! कृष्णा ने तो मुझे कुछ बताया ही नहीं ? कल रात वो मुझसे मिलने भी आया था , जबकी ।
अनु [ज्वलन में] : हरामी हैं वो कमीना ! हर वक्त दाँत ही दिखाता रहता हैं मेरा बस चले ना तो आँखें नोंच लूं उस कुत्तें के बच्चें का । [कहते हुएं वो गुस्से में बाहर चली जाती है]
कोमल अब भी मेरी ही तरफ़ देख रही थीं , एक घनी खामोशी सी उसके चेहरें पे बनी हुई थीं । अब वो जाने लगी थीं ।
मैनें उसे जाता हुआ देखकर [पीछें से कहा] : आई लभ यू , कोमल !
अचानक उसकी जाती हुइ कदमें रूक गई जैसे वो यहीं सुनने के इंतज़ार में हो , और पीछे मुड मुझे देख के रोने लगी , फिर तेज़ी से दौडते हुएं मेरे करीब आ गई ।
मैं [उसकी आँखों में देखते हुएं] : डू यू ?
कोमल [रोते हुएं] : हां में बस अपने सर और आँखों को हिला दिया ।
अचानक हवलदार : मैडम ! हो गया टाइम अब आप चलिए ।
मैंने ये सुनकर अपनी उंगलियों की गिरफ़्त से उसकी उंगलियों को रिहा कर दिया ।
अब वो हल्की-हल्की कदमों से चलते हुएं मेरी नज़रों से दूर होने लगी , फिर से मैं वापस उस चारदिवारी में आ गया था।

रात 9:00 बजे के करीब..

हवलदार : ओएए क्या बात हैं ? फिर कोई मिलने आया है !
मैं [लापरवाही से] : आप चलिअए , मैं आ रहा हूँ ।
मैं धीरें-धीरें जा रहा था तभी कृष्णा को देखते मैं गुस्से से तेज़ी में उसके पास गया।
मैं : घर पर सब कोई ठीक हैं ना आन्न्न्ह्ह्ह ? कोइ मर भी जाएं तो तुझे क्या ? , तू अपनी हरामीपंती क्यों छोडेगा ? वो कौन हैं ? मेरे पापा.. जान बसती है हमारी उनमें , तुझे तो पता हैं ना , फिर ?
कृष्णा : हाँ जानता हूँ.. सब जानता हूँ! क्या करूं तुझे जेल में देखके और अंकल की हालत को देखके मैं टूट सा गया था । उपर से ये कोर्ट-कचहरी , तुझे बता के मै तुझे और परेशां नहीं करना चाहता था , मैं नहीं चाहता था की तु गुस्सें में कुछ कर बैठ जाएं , और मेरी सारी मेहनत बेकार चली जाएं..
..विधायक अपनी कोई चाल बेकार नहीं जाने देता.. ..तुझे क्या लगता हैं मुझे कुछ पता हीं नहीं रहता क्या? मैं सब समझता हूँ बस चुप रहता हूँ.. तू ही बता इस हालत में मै क्या करूं ?
कृष्णा के उदास-भरी बातों को समझते हुएं , उसके हाथ को पकडते हुएं मै कहता हूँ “ बस मुझे यहां से कैसे भी कर के छुडा दम घुटता है यहां मेरा । ”
कृष्णा [अपनी आँसूओं को पोंछ्ते हुए] : भाई कल सुबह पक्का ।
और वो चला जाता हैं ।

अगला दिन , सोमवार !
दोपहर के 1:00 बजे !

हवलदार [मुस्कुराते हुएं] : ओएए ! चल भाई , तेरी जमानत हो गई । तू तो बडा आदमी निकला बे , बंधूजी खुद लेने आएं है तुझे ।
मै [हवलदार की तरफ़ देखकर] : एक बात याद रखना पांडेजी , जब एक पढा-लिखा इंसान कभी पाँलिटिक्स में उतर गया ना तो तुमलोगों का हुक्का-पानी बंद हो जाऐगा , घबराओ मत अभी कोई नहीं उतरने वाला । [कहके मैने उसकी तरफ़ देख के मुस्कुरा दिया]
हवलदार [गंभीर होते हुए] : क्या मतलब भैयाजी ?
बंधूजी [पीछे से आते हुए] : हान्न्न ! बिल्कुल सहीं पांडे बाबू , इ हैं आज़ से यहां के भैयाजी ।
मैं [मुस्कुराते हुएं हवलदार से] : अरे परेशान मत होइये पांडेजी , मज़ाक कर रहे थें हम , आपने भी तो खूब मस्ती की थीं मेरे साथ भूल गए क्या ? [मैंने ये बात हवलदार के भाषा में ही कह दी]
बंधूजी [मेरी तरफ़ देखते हुएं] : आओ बबूआ ! बाहर तुहार दोस्त , तुहार इंतजार कर रहे हैं ।
मैं बंधूजी के साथ बाहर आने लगता हूँ और बाहर आता देख मयूर मेरी तरफ़ दौड के आता हैं और मेरे गले लग कर ।
मयूर [द्रवित होकर] : भाई कैसा है तू ?
मैं : ठीक हूं , ये बता पापा कैसे हैं ?
मयूर [मुझे एक टिकट बढाते हुएं] : ये ले , पटना का टिकट । तू चला जा मैं यहां देख लूगां सब।

मैं [जेल से बाहर निकलकर,बंधूजी के सर्मथकों के सामने हाथ जोडके , हाथ को उपर करते हुएं] : मैं आज़ से , अब से , इन सबके साथ हूँ मैं नहीं चाहता मेरी तरह कोइ और बने किसी और की हालत मेरी तरह हो , आज़ एक अलग पहचान एक अलग नाम !
तभी बीच से आकर बंधूजी ने मेरा हाथ उठायां और कहा : आपके , अपने भैयाजी !
पीछे से एक जोरदार और लम्बी आवाज़ “ भैयाजी.. भैयाजी.. भैयाजी की जय ! ”

अब मैं , कृष्णा और मयूर एक खुली जीप में बैठ के मेरे घर की ओर जाने लगे ।
कृष्णा : बात हुई थीं आंटीजी से तेरे बारे में पूछ रहीं थीं ।
मैं [कृष्णा की बातों का जवाब दिएं बिना] : और , पापा कैसे हैं ?
कृष्णा : ठीक हैं अब ! डाँक्टर ने एक हफ़्ते का बेड-रेस्ट दिया हैं , फिर सब पहले की तरह नार्मोल हो जाऐगा। तू दिल्ली कब जा रहा हैं ?
मैं : नहीं जा रहा अब , अब जाने का फायदा भी क्या ? मेरे नाम पे अटेम्पट-टू-मर्डर का केस हैं , सिविल-सर्विसेज़ में मैं अब जा नहीं सकता , वो विधायक मुझे जाने नहीं देगा। फिर ऐसी पढाई का फायदा ही क्या जो किसी के काम ना आएं ? जब कालिख लग ही चुकी हैं तो कम से कम उन्हें तो बचाऊँ जो अभी इससे अंजान हैं ।
मयूर [हैरान होते हुएं] : तू यहां करेगा क्या ?
मैं : तुम्हारें साथ रहूँगा । बंधूजी ने अपनी तरफ़ से हाँ भी करी हैं ।
मयूर : तू पाँलिटिक्स में उतरेगा ? तुझे कुछ आता भी क्या , दो दिन पहलें तो तू इससे भाग रहा था ।
मैं : हाँ भाग रहा था मैं , तब बात कुछ और थीं , हालातें कुछ और थीं , मेरे अपने कुछ सपने थे । [कहते-कहते मैं निराश हो गया]
कृष्णा [मेरे गालों पे हाथ मारते हुए] : तू सेन्टी मत हो , ये ज़बरदस्ती की ऐक्टिंग तुझपे सूट नहीं करती ।
मैं [मुस्कुराते हुएं] : अब तू मत समझा एक ज़मानत कराने में तीन दिन लगा दिए हरामी तु वहां कुछ पढता भी था ? [आपस में हम एक-दूसरें की खींचा-तानी करने लगे]

मयूर और कृष्णा मुझे मेरे घर छोड के अपने-अपने घर को चले गयें । मैं अंदर जाते हुए सबको याद करने लगा , ख़ास कर अपने माँ को ज़ो मेरे आने पे हमेशा कहती “ आ गए ! हो गया कमाई आपका ? ” सोचते-सोचते मेरी आँखें भर गई।

रात के 9:00 बजे..

अब मैं बडे से घर में बिल्कुल अकेला , तन्हा सोफ़े पे बैठा , अपनी पाँच दिन पहले की ज़िन्दगी के बारें में सोचने लगा।
तभी आचानक कौतूहलवश मेरी नज़रें जैसे थम सी गई हो किसी बात पे.. ..आखिर वो इंस्पेक्टर ऐसा क्यूं कह रहा था , मुझे 2 दिन बाद मारने का प्लान बना हुआ हैं ? कहीं ये किसी की रची हुई साज़िश तो नहीं , आखिर मुझे मार-कर किसी को क्या फ़ायदा होगा ? मैं तो यहां रहता भी नहीं , कौन जानता होगा , ऐसे बहोत सारें सवाल मेरे दिमाग में घुमने लगे, और इन बातों को सोचते-सोचते मैं सोफ़े पे ही सो गया।

अगली सुबह, करीब 8:00 बजे..

मैं अपनी बाँलकोनी में खडा काँफ़ी पी रहा था । तभी चूंचूंचूं करते हुएं एक जीप मेरे आँखों के सामने आके रूकी , जो मयूर के अचानक ब्रेक लगाने के कारण हुआ था । साथ में बंधूजी भी थे, जो फोन पे किसी से बात कर रहे थे ।
मैं उसे देख के मुस्कुराँ के कहता हूँ “ बेटे ध्यान से । ”
कहते हुएं मैं नीचे जाने लगता हूँ  और मैं अपने द्वार के जैसे  आता हूँ “ तडाक- तडाक त्ड तड तडाक , अचानक चारों तरफ़ से गोली चलने की आवाज़ , मैं हैंरां-परेशां । काँफ़ी का मग जो अभी तक मेरे हाथ में था , गोली लगने के कारण फूट चूका था और उसका सारा काँफी कुछ तो सडक पे और कुछ मेरे कपडों पे फ़ैल चुका था ।
जवाब में बंधूजी ने भी गोली अपनी तरफ़ से चलाई और मुठभेड में एक गोली उनके सीनें में जा लगी और मैं एक गोली से बचने के कारण पीछे मुडा और मेरे मुडते ही मेरा सर मेरे दिवाल से जा टकराया , और  मैं बेहोश होकर गिर पडा । ऐसी स्थिती में मयूर को परेशां देख मुझे मेरी आँखें को बंद होने से रोकने पे मज़बूर करने लगी तभी मैंनें देखा एक धुंधलें से रौशनी से बीच से कृष्णा अपने साथ 40-50 जवानों के साथ दौडता हुआ चला आ रहा था , और उनके पीछे-पीछे मिडिया का एक ग्रुप । स्थिती गंभीर हो चली थीं गोली का बंधूजी को लगना और मिडिया का इसमें इनभोल्भ होना सारी शहर में हलचल मची-पडी थीं , उग्रता.. भारी.. शोर-शराबा से पूरा शहर भरा-पडा हुआ था। पुलिस-प्रशासन राजनितीक पार्टियों के हाथ बंधे पडे हुएं थें, और पुलिस अपने-अपने थानें में बैठ इंडिया वर्सेज़ वेस्ट-इंडिज़ का फाइनल देख रहे थें । आम जनता कुचली जा रही थीं , सोचते-सोचते मेरी आँखें बंद हो गई।

दोपहर के 2:00 बजे करीब..

कृष्णा [पानी पीते हुएं] : अब कैसा है तु भाई ?
मैं [हल्के-हल्के सोफ़े से उठते हुए] : ठीक हूँ । आन्न्ह्ह्ह ! [सर को पडकते हुए]
कृष्णा [मुझे देखकर] : हल्की-सी चोट हैं , जल्द ही ठीक हो जाऐगी ।
मैं  [मुस्कुराते हुएं] : भाई पानी देना।
कृष्णा [पानी का ग्लास बढाते हुए] : ले भाई ।
मैं : अच्छा ये बता , कृष्णा ! कौन लोग वो आए थे बंधूजी को मारने ? [पानी पीते-पीते मैने गंभीरता से पूछा]
कृष्णा [हैंरान होते हुए] : हेन्ह्हे ! मतलब तुझे अभी तक पता नहीं चला , शाले वो उस बंधू को नहीं तुझे मारने आए थे ।
मैं [सुनते ही मुँह का भरा पानी बाहर उगल दिया] : मुझे मुझे ? पर क्यूं ?
कृष्णा ख़ामोशी से मेरी तरफ़ देखता है..

मैं [उत्सुक होकर] : भाई ऐसे चुप मत रह , जान निकल रहीं हैं , बता ना क्यूं ?
कृष्णा [झुंझलाते हुए] : क्यूंकि नहर वाला ज़मीन तेरे नाम पे हैं तू उसका इकलौता मालिक हैं.. जब तू रहेगा ही नहीं तो वो सरकारी सत्तेधारियों के पास चली जाऐगी , इसलिए ऐसा प्लान बनाया गया था ।
मैं [हंसते हुए] : शाले , उससे किसी का क्या फ़ायदा होगा ? आज़ तक तो हमने उस ज़मीन से कुछ माँगा तक नहीं और वो मुझे ही खाने को दौड रहीं हैं ? आखिर लफ़डा क्या हैं , पहले तु ढंग से बताऐगा ? कोइ राज़सी ख़ज़ाना छुपा पडा हैं क्या उस गड्ढें के अंदर ?
कृष्णा [मेरे करीब आते हुए] : हाँ, कुछ ऐसा ही समझ ले ।
मैं [चौंकते हुए] : क्या मतलब ? तू कहना क्या चाहता हैं ?
कृष्णा [मेरे कंधे पे हाथ रखके खडे होते हुए] : लगता हैं शायद तुझे और तेरे घर-वालों को इसके बारें में कुछ भी पता नहीं , नहीं तो भला कौन 3000 करोड की जमीन को गड्ढा समझ के 3 लाख में बेचेगा ।
मैं [हैंरान होते हुएं] : क्या मतलब ? शाले तु एक बार में सब पूरें ढंग से बताऐगा भी कभी , गँवार कहींका । [गुस्से में आके मैंने कहा]
कृष्णा [रुठते हुए] : नहीं जा किसी और से सुन ले ।
मैं [बात बनाते हुए] : ओएए , साँरी यार ! तु तो सिरीयस हो गया ।
कृष्णा [कडवाहट में] : मैं सिरीयस नहीं होता कभी तेरी बातों पे , हाँ थोडा गुस्सा जरूर आ जात हैं कभीं।

मैंने सोचा शाला फिर सेन्टी हो गया , अब पूरे एक घंटे पकाऐगा। और मैं ये सोच में पड गया “ जो मैं अपने पूरे जिन्दगी में नहीं कमा सकता था , वो मुझे सिर्फ़ चार दिन की ही पाँलिटिक्स से हासिल हो गइ हैं , कल का लडका आज़ 3000 करोड का मालिक बन बैठा हैं। ”
कृष्णा [गुस्से से] : शाले जब कुछ बताता हूँ , तो सुनता ही नहीं और बात-बात पे मुझे सुनाता रहता हैं ।
मैं [बनावटी गंभीरता के साथ] : हान हाँ भाई ! तेरी ही बातों को सोच रहा था , बता क्या बता रहा था ?
कृष्णा : तुझे पता हैं , तेरी जमीन को लेके एक बांध बनाने का कान्ट्रेक्ट आया हैं , जिसके बनने के बाद आयात-निर्यात 60% तक सस्ता हो जाऐगा और जिसकी ज़मीन हैं उसे सरकार द्वारा सालाना उस रकम का 5% तक मिलेगा । इसलिए मेरे भाइ तुझे..
मै [उसकी बातों को बीच में ही काँटते हुए] : लेकिन तुझे इतना सब कुछ कैसे पता हैं?
कृष्णा [रंग दिखाते हुए] : भाई , मुझे सब पता हैं ! इंस्पेक्टर और वो जो तेरा जमीन बिकवा रहा था ना , कमीना । सब कहीं ना कहीं , किसी ना किसी मायने में उस विधायक से मिले हुए हैं वो तो अपना मयूर हैं जो बंधू के..
मैं [कृष्णा की बातों को फिर से काँटते हुएं] : हाँ , यार बंधूजी कैसे है , अब ?
कृष्णा [गुस्से से] : शाला , मर जाएं वो भी तो ठीक रहेगा ? [उसकी बातों से लगा जैसे वो ज़िंदा हो]
मैं [बात बनाकर] : ऐसा क्यूं कह रहा हैं , भाई ?
कृष्णा [कुछ शांत पडकर] : और क्या कहूं भाई ? उसकी भी नज़र तो तेरे ज़मीन पे ही थीं ना , मैं तो कहूं ये सारें सियासती दांवेदार खुद में लड-कट के मर जाएं तो सबका कल्याण हो जाएं।

मैं : अच्छा यें बता ये इंस्पेक्टर और रामजी , बंधूजी को इतना क्यूं मानते हैं ?
कृष्णा [अकडते हुए] : क्यूं नहीं मानेंगे बंधू उसकी जात का हैं और उनके अधिकारों के लिए लडता रहता हैं । मयूर भी कुछ सोच के साथ ही शायद बंधूजी से जुडा हुआ हैं , मुझे पता नहीं ये [कहते-कहते वो अपने बातों से मुकर गया]
मैं [सोचते हुए] : अच्छा तो ये सब मयूर को पता था ?
हाँ पता था लेकिन इतना सब कुछ नहीं [मयूर कमरें के अंदर आते हुए कहा]
मुझे नहीं पता था , तेरे साथ इतना कुछ हो जाऐगा , तेरी किस्मत ख़राब हो जाऐगी , तू आगे पढ नहीं पाऐगा , इतना टूट जाऐगा ? मैं तेरा दोस्त हूँ.. हाँ बेशक! थोडी देर के लिए मैं सियासती दांव-पेंच में आ गया था । [मयूर ने अपनी सारी सफ़ाइ एक साँस में ही कह दिया था]
कृष्णा [घनी खामोशी की माहौल को तोडते हुए] : और हमें ये भी पता नहीं था ,तेरे पास इतनी अच्छी आइटम हो जाऐगी और तू करोडों का मालिक, वर्ना कसम से उस नहर में ही तुझे डूबों के मार डालता कम से कम इनके सहानुभूति लेके कुछ हिस्से का मालिक तो बन जाता।
[उसकी इस बेतूकी बातों पे हम तीनों हँस पडे]

मयूर [चुप होते हुए] : अब तुझे विधायक से कौन बचाऐगा ?
मैं! [एक पतली सी आवाज़ जो हमारें कानों तक आ पहुँची थीं]
हमने पीछे मुडके देखा वो आवाज़ कोमल की थीं , शायद वो अपने घर से भाग के आई थीं ।
मैं [कोमल की तरफ़ देखकर] : मतलब ?
मयूर [मुझे समझाते हुए] : देख यार , वो तुझसे प्यार करती हैं और तुझसे शादी करना चाहती है जिसके बाद किसी भी बात की चिंता नहीं रहेगी और विधायक का कोइ आदमी तुझे हाथ भी नहीं लगा पाऐगा । कोमल के मामा इस शहर का हुक्का-पानी बंद करवा देंगे , वो साध्वी जी के साथ रहते हैं कहां जान-पहचान नहीं हैं उनकी ? और बडी बात ये हैं की कोमल के मामा की जान इसी में बसती हैं , तो वो तेरा कुछ बिगडने नहीं देंगे कभी.. ऐटलिस्ट अभी तो पक्का नहीं.. जब तक वो जिंदा हैं बाद का बाद में देखेंगे।

मैं [हैंरान होते हुए] : तुमलोग पागल हो गए हो? यें भी कोई सोल्यूशन है, ऐसा भी कहीं होता हैं क्या ?
कृष्णा [समझाते हुए] : भाई-भाई , इसके अलावा हमारें पास अभी कोई उपाय नहीं हैं ।
बातें चलती रही अंत में मुझे हार के तैयार होना ही पडा और हमारी शादी हो गई । सब खुश थे ,सिवाएं मेरे , मेरे निर्णय में आज़ मेरा परिवार दूर खडा अपने परेशानियों से जूझ रहा था , मैं उन्हें अकेला कर उदास बैठा था ।
जिन्दगी में अब वक्त मेरे साथ नहीं था । मेरे अपने.. मेरे सपनें.. सब मेरी बिगडती हालातों के कारण मुझसे दूर थें । मेरे साथ बस मेरे दो दोस्त और कोमल थीं..
..और मैं बेबस।

अगली सुबह करीब 9:00 बजे..

मेरे घर के बाहर करीब 400-500 लोगों की लम्बी भीड , विधायक और कोमल के मामा आपस में कुछ बातें कर रहे थें तभी भीड से ,पीछे से विधायक के पी ए का बेटा अपने साथ एक रिवाल्वर लेता हुआ आया विधायक के पास पहुँचता हैं और ज़ोर से चिल्लाकर “धोखा धोखा घोर धोखा , कहते-कह्ते उनके सीने में 4-5 गोलियों को उतार देता हैं । ”
ये देख मैं स्तभत , भीड एकदम खामोश परिस्थिती के विपरीत और..
..कोमल तेज़ी से रोते हुएं अपने पापा के पास दौड के पहुँचती हैं ,
..कोमल के मामाजी मिडिया और भीड को सँभालते हुएं ,पीछे से दौडते हुए इंस्पेक्टर..
..दौडता हुआ आके पी ए के बेटा को गिरफ़्तार करता हैं ,
..सारी उत्तेज़ना.. उग्रता.. गर्ज़ना समाप्त हो जाती है!

गहरी खामोशी के बीच मिडिया की आवाज़ और मेरे पीछे टी भी पर एक सामाचार..

आज़ करीब सुबह 8:00 बज़े..
..बंधूजी की मौत से पूरा शहर शोकित..
और फिर मेरी नज़र सडक पे मरे-पडे विधायक जी की ओर गई। घना शोकित और शांत शहर।
हवलदार [मुझे बाँलकोनी में खडा देखकर चिल्लया] : भैयाजी भैयाजी ! अब आप ही कुछ करीएँ ।
मैं [धीरे से एवं असमंज़स से] : आआंन्न्नाअ !
हवलदार के पीछे खडी सारी भीड “ हाँ हान्न ! भैयाजी अब आप ही कुछ करीएं ? ”
जैसे वो सैकडों की भीड मुझे कब से जानती हों , और ऐसे जैसे अभी कुछ हुआ ही ना और अब मिडिया की नज़र मुझपर एक नए चेहरें की तालाश में ।
मैं परेशां परिस्थितियां मेरे हक में नहीं थीं या फिर ऐसा कहों मेरे वश में नहीं थीं , वक्त से पहले इतना कुछ मिल रहा था या फिर कुछ छींन रहा था पता नहीं मेरे साथ क्या हो रहा था , मैं भीड में कोमल को ढूँढ रहा था और भीड की निगाहें मुझे लोगों को विश्वास दिख रहा था , मयूर और कृष्णा की भींगी आँखें भीड के बीच से मुझे देखती हुई , कोमल जो अपने पिता का सर अपने गोद में रखकर रो रही थीं , कुछ समझ नहीं आ रहा था , मैं खामोश !
और पीछे से एक बडी भीड , एक बडी गूँज , भैयाजी ! एक नया चेहरा !


..नितेश वर्मा..



[सर्वाधिकार लेखक के पास सुरक्षित हैं। कापी-राईट की शर्तें और नियमों का विश्लेषण कुछ समय के बाद यहां भी उपल्ब्ध करा दिया जायेगा।] 

Sunday, 13 July 2014

..ए हाशमी फैन.. [A Hashmi Fan]

ए हाशमी फैन [A Hashmi Fan] मैंनें इस बार इस टाँपिक को लिया था लिखनें को। पहलें तो ये बहोत आसान लगता था लिखना मुझे। क्यूंकि जैसा मैं सोचता था उसके हिसाब से..

..हाँ होंगे 5-10 नामी फैन्स इमरान के, क्या हैं? उनसे जुड के कुछ टिप्स बटोर लूंगा..
फिर कुछ उनके और इमरान के बारें में लिख के इसे भी निपटा दूंगा..
और मुझे भी तो थोडा-बहोत पता हैं ही।
लेकिन सारी सोच धरी की धरी रह गई या आप यों कह लिजीएं मिट्टी में मिल के रह गई। हुआ यों की जब मैं शाम को अपनी चाय के चुस्की के साथ सोशल-नेटर्वक पे इमरान के फैन्स की तालाश कर रहा था। बडी आसानी से एक लम्बी लाईन हाथ लग गई थीं। अब मुझे उनमें से 1 को चुनना था क्यूंकि कहानी का टाईटल भी मैंच करवाना था तो मैनें लिस्ट को खोलतें हुएं ये सोचा,
..पर जब मैनें लिस्ट खोला तो मैं सकतें में आ गया हजारों फैन्स के नाम इमरान से जुडे थे। ये देख के तो मैं हैरान हो गया। मैं ये सोचनें लगा अब मैं क्या करूं ये तो बहोत मुश्किल काम हो गया। अब कैसे किसी एक को चुनूं जो मुझे इमरान से जुडी सारी खबरें दे।

कैसे वो फिल्म-इंडस्ट्रीज़ में आएं, उनके और क्या-क्या सपनें हैं या थे? परिवारिक-संबंध कैसा हैं? आगें आनें वाली फिल्में कौन-कौन सी हैं? कितनें फिल्में हिट या फ्लाप हुई हैं, इत्यादि सभी जानकारियाँ। पर अब मुश्किलात बढ गएं थें। चाय भी ठंडी पड चुकी थीं और दिल भी। अब जैसे कोई उपाय ही नहीं दिख रहा था पूरी रात दिमाग खपानें के बाद मैनें ट्वीटर पे खुद ये सवाल कर दिया
@emeraanhashmi Please Suggest Me  A Name Of  Your Closest Fan . I Want To Write About Yourself  Thorugh His Voice.
लेकिन आपकों जान के यें हैंरत होगी इमरान का कोई जवाब नहीं आया। लेकिन कुछ दिनों बाद मुझे एक नोटिफिकेशन मिला जिसमें @EHCOBRAMAN नें मेरी ट्वीट को री-ट्वीट किया था और एक जवाब छोडा था।
@Niteshverma086 what u want to know about @emraanhashmi?
बहोत दिनों बाद एक लडकें के जवाब को मैंनें उस वक्त ज्यादा अहमियत नहीं दिया क्यूंकि मैंनें उसे ना लिखनें का मन बना लिया था, सोचा जब इमरान को ही अपनें फैन्स की नहीं पडी तो मैं क्यूं उनकें पीछें पडके कुछ लिखूं? तो मैनें उस नोटिफिकेशन का कोई जवाब नहीं दिया। फिर अगलें दिन जब मैनें फिर एकाउन्ट ओपेन किया तो एक और नोटिफिकेशन आया था @EHCOBRAMAN फोलोस यू। शायद इस कारण उसनें मुझे फोलों किया होगा क्यूंकि मैंनें अपने प्रोफाइल पें अभी तक ये लिख रक्खा था मैं इमरान हाशमी पे एक कहानी लिख रहा हूँ।
उस वक्त मेरे दिमाग में ये बात कौंधा नितेश! कोई भी इंसान छोटा और बडा नहीं होता शायद यहीं इमरान का सबसे बडा फैन हो..  ..या हो फिर ना हो तुझे तेरे काम की चीजें बता दे..
..जो लिखना हो लिखवा दे, ये सब सोचतें हुएं मैनें फिर से वहीं नोटिफिकेशन को खोल के बैठ गया और बिना कुछ सोचें मैनें वो @EHCOBRAMAN की प्रोफाईल खोल ली।
पूरी प्रोफाईल इमरान के नाम-काम से भरी हुई थीं। यहां तक की लडकें ने अपना नाम भी नहीं लिखा था। मैंनें सब अच्छें से देखा और एक प्यारा सा संदेश @EHCOBRAMAN के नाम ट्वीट किया।

@EHCOBRAMAN Please Contact Me On Niteshverma086@gmail.com
मैं आपसे कुछ बात करना चाहता हूँ, यदि आप मेरे कहानी के पात्र के हिसाब से सहीं होंगे तो मैं आपकों ले के इस कहानी को पूरा करूंगाँ। यदि आप मेरे प्रस्ताव से राज़ी हैं तो मुझसे संपर्क करें।
अब आप ये मत सोचनें लगना यें ट्वीटर पे 140 शब्द ही सीमाएं होती हैं तो मैंनें इतना सब कुछ एक ट्वीट में ही कैसे लिख दिया तो आप ये गलत सोच रहें हो मैनें उस लडकें को उसके मेल पे मैसेज़ करा था।
मेरे मैसेज़ के कुछ ही पलों बाद उसका एक मैसेज़ आया जिसमें थेंक्यू और एक मैसेज़ लिखा था: जी हाँ बिलकुल आप मुझसे जो चाहें सहायता ले सकतें हैं मुझे कहानी ले के ना भी लिखे तो कोई बात नहीं पर आप ये कहानी जरूर लिखे हमें आपकें इस प्रयास पे गर्व हैं।
पहली बार किसी अंज़ान शक्स नें मुझे बहोत कुछ एक मैसेज़ के जरिएं ही सीखा दिया था। कितना शालीन स्वभाव कितना निश्छ्ल जिसे अपनें व्यक्ति-गत प्रशंसा से कोई लगाव ही नहीं था उसे तो बस अपनें स्टार को ले के फिक्र पडी थीं।
अब मैं समझ गया था ये वहीं हैं जिनके साथ मुझे आगे की कहानी लिखनी हैं। बातें भी बहोत उम्दा तरीकें से करतें हैं आसान और कम शब्दों में कहानी को एक मुकाम तक पहोचानें में काफी मदद कर सकते हैं। मेरे पहलें की ज़ितनी आकलन थीं सब ना जानें क्यूं इस लेख में झूठी पड रही थीं, शायद सच में यह एक बहोत मुश्किल काम था, लेकिन क्या करूं करना तो अब था ही, तो मैनें बात आगें बढातें हुएं..
..मैनें उनसे उनका नाम पूछा..

..नाम सौरभ कश्यप जो नई दिल्ली के रहनें वाले थें उम्र की कोई जरूरत नहीं थीं तो मैनें पूछा भी नहीं। मैनें उनसे बातें करनी शुरू कर दी कुछ दिनों में हम अच्छें-खासे दोस्त बन गएं थें। अब सुबह की गुड-मार्निंग से लेकर रात की ग़ुड-नाईट तक एक दूसरें को हर-पहर विश करना जैसे रिवाज़ हो गया था। लेकिन अभी तक इमरान की कोई ऐसी बात नहीं हुई थीं की आखिर मैं अब इनसे पूछूँ क्या? अब क्या लिखूं इमरान के बारें में? सारी खबरें तो सौरभ बता ही देता हैं जो एक-आध नई फोटों आती हैं भेज़ भी देता हैं अब इस बेचारें इंसा से पूछं के उसे भी परेशान क्यूं करुँ? क्या करूँ इस कहानी को यहीं छोड दूँ? अनेक सवाल रोज़ एक प्रश्न खुद से लेकिन कोई जवाब नहीं मिलता।

लेकिन एक दिन अचानक हम बात ही कर रहें थें तो सौरभ नें मुझसे पूछ ही लिया : जी आपनें वो किताब कहाँ तक लिख ली?
किताब नहीं कहानी.. [मैंनें सुधारतें हुएं कहा]
और फिर जब-तक एक समरी नहीं बन जाता मैं क्या लिख पाऊँगाँ आपनें तो कुछ बताया भी नहीं कि इमरान का बचपन कैसा था कैसे वो फिल्म-इंडस्ट्रीज़ में आएं? खैर और सब तो आपनें बता ही दिया हैं [मैनें फिर से एक लम्बा मैसेज़ करा जिससे वो कुछ देर सोच सके]
लेकिन मेरे मैसेज़ के जातें ही तुरंत एक जवाब जैसे मानें उन्हें पता ही था मैं क्या लिख के भेजूगाँ जो जवाब तैयार रक्खा था। जी आपकों पूछना चाहिए, कहानी तो आप ही लिख रहें हैं ना अब आपको पता होगा ना कि कहानी में कब क्या लिखना हैं, और मुझसे क्या-क्या पूछना हैं?
इतनें सहज़ और आसान तरीकों में उसनें दिल की बात कह दी।

मैंनें फौरन पूछा अच्छा आप ये बताओ : आप लोग इमरान को इतना ट्वीट करतें हो वो जवाब क्यूं नहीं देते?
जी वो ज्यादा सोशल नहीं हैं काम से वक्त मिलनें पे जब घर जातें हैं तो घर और बच्चें को पूरा समय देते हैं, और हाँ जब कभी आँन-लाईन होतें हैं तो हमारा जवाब जरूर देते हैं; पर ऐसा बहोत कम ही बार हुआ हैं जब किसी ने उनका जवाब पाया हैं। [सौरभ ने जवाब दिया।]
फिर आप लोग उनके पीछें इतना क्यूं पडे है? [मैनें पूछा]
ये कैसा सवाल है? [सौरभ ने उधर से फिर पूछा।]
मैनें बोला: हाँ, सवाल ही आप ये बताओ ताकि मैं अपनें कहानी के जरिएं लोगों को ये समझा पाऊँ। [मैनें बात बदलते हुएं उस सवाल को एक नया स्वरूप देते हुएं पूछा]
अच्छा ये सवाल था, कहानी की बात हैं मैं तो कुछ और ही समझा था। [उसने जैसे राहत की साँस ले के लिखी हो।]
फिर मैनें कहा: हाँ, तो फिर बताओ आप, कैसी बात हैं आप लोग कैसे उन्हें अब भी वहीं दर्ज़ा दे के रक्खे हो?

तभी अचानक ओ नो।
इंटरनेट ऐक्सेस डिस्कनेक्टेड।
मैसेज़ ये चला गया था अब बस जवाब का इंतज़ार था..
..ऐसा अक्सर होता था लेकिन जब आज़ मुद्दें की बात थीं तो दिल बेचैंन था, लेकिन अब कर भी क्या सकता था रात के 1:00 बज रहें थें तो मैनें सब बंद किया और सोनें को लेट गया लेकिन नींद थीं जो आँखों की उड गयी थीं।
कभी-कभी इस बात पे हँसी आती थीं ये करते क्या हैं इमरान के फैन्स दिन भर रात भर ट्वीट या पिक अपलोड और कोई दूसरा काम नहीं हैं क्या? ऐसे ही करतें रहेंगे क्या? एक स्टार, वो भी सुपर-स्टार नहीं हैं इतनें लोग इसी में लगे पडे हैं आखिर इंडिया का फ्यूचर भी कुछ हैं या नहीं या ये बच्चें बस यूं ही अपनें साथ कहीं कोई मज़ाक तो नहीं कर रहें हैं ना, खैर मुझे करना क्या मैं अपना काम करूंगाँ और चलता बनूंगाँ। पर ऐसा करने से इन्हें मिलता क्या हैं?
ओ नितेश फिर से यार, चल चुप-चाप सो जा।

अगली दिन उठा तो एक लम्बा चौडा मैसेज़ मिला जिसमें इमरान को चाहनें की कई वजहों का जिक्र किया हुआ था। मैनें सब को सिल-सिलवार ढंग से संजोया और अगला सवाल फिर उसके पास छोड दिया
..आप ये बताओ आप इमरान से कभी मिलो हो..
..पर्स्नली ना सही तो.. जब वो किसी इवेन्ट में आयें हो तब.. या किसी फिल्मी प्रोमोश्न में या कहीं भी?
जवाब जैसे हमेशा की तरह तैयार होता था पर इस बार बहोत छोटा सा जवाब: जी नहीं,
कभी पर्स्नली नहीं मिला,
लेकिन हाँ एक बार जब वो राज़-3 और एक बार घनचक्कर के प्रोमोशन के लिए दिल्ली आए थें तो मिला था दूर से ही देखा था। अच्छा अनुभव था लेकिन राज़-3 में कुछ ज्यादा मज़ा नहीं आया माँल में थीं प्रोग्राम मैनें तो ढंग से देखा भी नहीं था उसनें अपना दिले-हाल मैसेज़ में बयां कर दिया। रोनें के दो-तीन आँसू उसनें बकायदा स्मालीं के तौर पे गिरा भी दिए थें।
मैंनें इस बात को नकारतें हुएं और कुछ गंभीर जैसे कोई राइटर: जी और घनचक्कर का अनुभव कैसा रहा, कृप्या विस्तार-पूर्वक बताएं? [मैनें पूछा]
जी घनचक्कर का बहोत अच्छा अनुभव रहा। इमरान को 8:00 बजे आने था। लेकिन कुछ परेशानी होनें के कारण..
..पता ना परेशानी क्या थीं अभी तक भी पता नहीं ऐसे ही टुकडों में ना-जानें कितनें मैसेज़ जिसमें सब कुछ लिखा था जब इमरान आया तो वो कैसे दौड के उसके कार के पीछें गया। बार्डीगार्ड्स के होते हुएं भी उसके हाथों को कैसे टच किया कैसे प्रमोशन में लुटाएं गए डीवीडी कैसेट को पाया इत्यादि सभी उससे जुडे सुहावनें पल।

मैं हैंरा था ये सब मैसेज़ पढ-कर, इतना लगाव होता हैं एक फैन्स को अपनें चहेतें कलाकार से। मैनें तो कभी ये सोचा ही ना था, मैं तो बस ये सोच रहा था पता ना जब इमरान को ये पता चलेगा उसके इतनें ना-जानें कितनें फैन्स हैं तो उनका क्या रिऐक्शन होगा? फिर धीरे-धीरें करके मैनें सारी बातें इक्ठ्ठा कर ली कैसे इमरान नें फिल्म-इंडस्ट्रीज़ को ज्वाइन किया और आगें के प्लानिंग्स क्या हैं? प्लानिंग तो सौरभ ने बस इतना ही बताया था की वो आगें बस इसी क्षेत्र में जुडे रहेंगें और बेहतर से बेहतर फिल्मों को बनानें की कोशिश करेंगें। और इमरान के फिल्म-इंडस्ट्रीज़ के आनें के बारें में सौरभ ने जो बताया वो आप खुद पढ ले उनकी जुबानी।

Me: How Did Emran Hashmi Get Into Films?

Saurbh Kashyap: Hmm... intresting story. let me think firstly, i will be replied you after some time..

He was never really interested in studies and was hot-headed and rebellious in college, as he was totally confused and insecure, but was not coming to terms with it. Rahul Bhatt, Mohit Suri and a whole bunch of their would just hang out at Pali Hill looking at these fast cars with blaring music. They were extremely naughty kids. He knew that he could use his innocent looks to get away with murder. Mukeshji was close to his grandmom and would often come home and tell her, 'Yeh kya khada rehta hai aapke nukkad pe, dukan ke paas, doston ke saath.' Mukeshji also told her to send him and that's the first time when he went to Bhatt sahab's house.Mukeshji  gave him a lecture on becoming clear and he didn't understand half the things Mukeshji was saying, but he started assisting Vikram Bhatt. He was a lazy assistant and hated going and calling actors from vans and had a big ego. Mohit would do that, he wouldn't. Bhatt sahab saw that and felt he could be an actor and nudged him to become one.After that he joined acting classes, but midway got an offer to act in Yeh Zindagi Ka Safar. But he messed up so badly that he was thrown out. It became a sort of ego issue for him and he continued going on the set to see what he needed to do to become an actor. His  grandmom was more realistic and knew that he neither looked like an actor nor could dance nor had the passion for Hindi films, so she was happy with me taking up second or third lead roles to at least make money. But he was clear that he needed to do something substantial and could not be just another name on the credit list. He remember that he refused to dub for his first film Footpath. This assistant told me, 'Bachchan ki tarah dub karo.' he said 'Fuck-off' and showed him the middle finger, as he didn't want to be like anyone else. Finally, Vikram Bhatt had to dub in his place as the film had to be released.

In this way emraan hashmi entered into the bolloywood industries.

इतनी सही और सुलभ जानकारी.. सही में मुझे पहलें ये सारी बातें पता नहीं थीं। मुझे अब लगनें लगा था..

..इत्तेफाक से ही क्या इत्तेफाक हुई हैं..
..जिसकी चाह थीं अब वो हाथ में आई हुई हैं।

अगर हम ऐसे नहीं मिले होतें तो कहीं और ना कहीं और मिले होतें कोई और बात होता कोई अलग टाँपिक होता वर्ना इत्तेफाक से इतनी अच्छी इत्तेफाक कहाँ बनती हैं।
धीरें-धीरें उसनें ये भी बताया कि वो सिर्फ़ इमरान की ही मूवी देखता हैं या गानें सुनता हैं।
हाँ ग्राफ़िक्स अच्छी कर लेता हैं सोचता हैं इसके जरिएं आगे कुछ कर लेगा और मौका हाथ लगा तो इमरान के साथ भी काम कर लेगा। इस बहानें ऐक्टिंग के बारें में भी सोचता हैं।
ऐसे ही ना जानें कितने कहें-अनकहें, छूएं-अनछूएं पल जो किसी फैन के ज़िन्दगी को एक फ्रेम में संज़ों के रख देती हैं।

एक ख्वाब हैं सौरभ की वो इमरान से मिलना चाहता हैं पर्स्नली..
दुआ करता हूँ मैं उसकी यें ख्वाहिश पूरी हो जाएं।

ऐसे ही ना जानें आपके भी कितनें फैन्स और फैवरेट स्टार होंगे आप मुझे उनके बारें में बताईयें यदि आपकी जुबानी अच्छी लगीं तो मैं उन्हें अपनें शब्दों में पिरों को कहानी के रूप में आपके सामनें प्रस्तुत करूंगाँ। यह कहानी पढनें और मुझे समय देनें के लिए धन्यवाद।

[यह कहानी एक फैन की कहानी कहती हैं जो अपनें फैवरेट स्टार के बारें में क्या-क्या भावनाएं रखता हैं का विश्लेषण करती हैं।यह कहानी मेरी कल्पनाओं पे आधारित हैं जिसका किसी के निजी ज़िन्दगी से कोई संबंध नहीं हैं। यदि ऐसा होता हैं तो वो उसे सिर्फ़ मात्र संयोग कहें।]

..नितेश वर्मा..

Wednesday, 9 July 2014

..पहलें प्यार की उल्झनें..

कल हमनें देखा था पहलें प्यार की उल्झनें में पहले पक्ष यानी की लडकों की परेशानियों को आज़ हम उससे आगे बढेंगे और दूसरें पक्ष यानी लडकियों की परेशानी पे गौर करेंगे।

उफ़्फ़ कैसे करूँगीं मैं अपनी मुहब्बत का इज़हार, वो तो मेरी हर-बात का मज़ाक बना देता हैं। कितना बेवकूफ़ हैं इतना भी नहीं समझता मैं उसे कितना प्यार करती हूँ सब मैं ही बताऊँगी उसे भी तो कुछ पढ लेना चाहिए तिरछी नज़रों से देखती रहती हूँ कोई इशारा नहीं होता क्या? पता ना बेवकूफ़ कब समझेगा? चलो नहीं भी समझता हैं तो क्या मैं ही जा के बता देती हूँ की मैं उसके बगैर जी नहीं सकती उसके बाहों में बाहें डाल में भी दो कदम चलना चाहती हूँ जैसे हर प्रेमी-जुगल करतें हैं। और उसके इंकार का तो सवाल ही पैदा नहीं होता मैं हूँ भी कितनी सुन्दर आईनें के पास जाती हूँ तो आईना शर्मा जाता हैं थोडा फ़िल्मी सा लगता हैं इतनें से कम अपनी खूबसूरती बयां करूं तो वो उस खूबसूरती की अपमान हैं। ये मैं नही कहती काँलेज़ की सारी लडकियाँ भी यहीं कहती रहती हैं और मुझे जितने लव-लेटर मिले हैं ना उनमें सब में मेरी खूबसूरती के खूब खिस्सें हैं कैसे वो मेरी खूबसूरती के कायल हूएं, कैसे वो मेरे दीवानें हुएं और बहोत कुछ लेकिन मैनें उनपें कभी ध्यान नहीं दिया क्यूंकि प्यार तो मैं सिर्फ़ उसी से करती हूँ ना किसी और के बारें में सवाल भी पैदा नहीं होता चाहें और सब कैसे भी हो कितने भी सुन्दर कितने भी शरीफ़ क्यूं ना।

पर मैं उससे बताऊँगी कैसे और कहूँगी क्या कोई खत लिख लूं क्या मगर क्या लिखूं ऐसे ही सामनें से जा के कह दूँ क्या? नहीं-नहीं सामनें तो बहोत सारें लडके-लडकियाँ भी होंगे अच्छा नहीं होगा और मैं भी कोई ऐसी वैसी लडकी थोडे ही ना हूँ पता ना कोई देखेगा तो क्या सोचेगा कितनी बदतमीज़ लडकी हैं। और कही उसनें सब के सामनें मना कर दिया तो क्या? हाँ ऐसा भी तो वो कर सकता हैं और मैं कोई नूर की परी थोडे ही ना हूँ और आज़कल वो सुरभि की बच्ची कुछ ज़्यादा ही उससे चिपक रहीं हैं बात-बात पे हाथें मार देती हैं कोई ना कोई बहाना बस ढूंढतें रहती हैं उसे छूनें का ऐसे लडकियों का करना अच्छा थोडें ही ना लगता हैं माना उसे मेरे मन के बारें में कुछ पता नहीं पर समझना तो चाहिएं ना और वो तो बस अपने-आप को टाँम-क्रूज़ ही समझता रहता हैं जैसे वो इतना स्मार्ट हैं की लडकियाँ तो बस उसके पीछें लगी रहती हैं। लेकिन वो सोचता भी तो सहीं हैं मैं ना जानें कबसे उसके पीछें लगी हूँ।

लेकिन क्या करूँ कभी वो बात बढाना चाहें तो ना बढाऊँ कैसे कहूँ फोन करके कह दूँ क्या? नहीं-नहीं ये ठीक नहीं होगा मिल के कहती हूँ पर घर-वालों से क्या कहके जाऊँगी? हाँ ट्यूशन का बहाना कर दूँगी और वैसे भी नखडें करनें में बहोत आगें हूँ और माँ को बेवकूफ़ बनाना तो बस मेरे बायें हाथ का काम हैं। यकीन मानिएं जब बच्चें बडे हो जातें तो सबसे बेवकूफ़ अपनी माँ को समझतें हैं तो मैंनें भी उनकों बेवकूफ़ समझ के बेवकूफ़ बनाना शुरू कर दिया हैं और वो भी 7 साल पहलें से। लेकिन बडी बात ये नहीं बडी बात ये हैं की अब उसे कैसे समझाऊँ?

काफ़ी असमंजस और काफ़ी नाजुक स्थिति होती हैं ये खुद को समझाना दिल को समझाना काफ़ी मुश्किल होता हैं। लेकिन परेशां-हैरान दिल काफ़ी खुश होता हैं इस वक्त। एक अज़ीब एहसास होता हैं। पहले प्यार का पहला इज़हार, जहां दिल सिर्फ़ और सिर्फ़ हाँ सुनना चाहता हैं। ऐसी ही होती हैं पहलें प्यार की उल्झनें।

..नितेश वर्मा..

Tuesday, 8 July 2014

..पहलें प्यार की उल्झनें.. [Pahle Pyar Ki Uljhane]

प्यार बहोत ही अनोखा और बहोत ही सुहावना सफ़र हैं,जो सबके ज़िन्दगी में एक बार जरूर आता है।कभी किसी के बचपन में.. तो कभी किसी के जवानी में.. तो कभी किसी के शादी के बाद.., लेकिन आता जरूर हैं। एहसास काफ़ी सुखद होता हैं दिल इन परिस्थितियों में काफ़ी नाज़ुक हो जाता हैं.. जरा-जरा सी बात पे रूठना तो रिवाज़ हो जाता हैं। पर इस प्यार की एक और अहम और काफ़ी दिल-चस्प बात होती हैं जब आपकों यानी की किसी लडकी या लडके को इसका इज़हार करना हो।

पहला प्यार अब इज़हार करना हैं क्यूंकि बिना इज़हार इकरार होनें से रहा। पर ऐसे में क्या-क्या परेशानियाँ पहल होती हैं उनमें में आपकों कुछ बताता हूँ और जो बच जाएं तो आप जरूर याद दिला दे।

आज़ हम बात पहलें पक्ष यानी के लडकों की करेंगे और कल दूसरी पक्ष लडकियों की उल्झनों पे गौर करेंगें।

बहोत मुश्किल होता हैं ना पहली मुहब्बत का इज़हार। ना जानें वो क्या कह देगी कहीं इंकार तो नहीं कर देगी। ना ना-ना ऐसे कै्से कर देगी आखिर वो भी तो मुझसे प्यार करती हैं..
माना कभी उसनें ये कहा नहीं पर उसकी जो बडी-बडी आँखें बोलती हैं ना मैनें सब-कुछ बिल्कुल उसमें साफ़-साफ़ पढा हैं। वो मेरा ही होना चाहती हैं शायद कहनें से शर्माती हैं.. खैर कोई नहीं! इन मामलों में लडके ही हमेशा से बली-के-बकरे बनतें आ रहें तो.. मैं भी सहीं। आखिर अपनें प्यार के लिएं मैं कुछ नहीं करूँगां तो कौन करेगा? पर मुश्किल हैं वो ना कह देगी तो.. और हाँ मैं उससे कहूँगा कैसे..? और उसका मुँहफ़ट भाई अगर हमारें बीच आया ना तो अच्छा नहीं होगा.. मैं पहले ही बता देता हूँ.. प्यार का इज़हार करनें जा रहा हूँ कोई मज़ाक थोडे ही ना हैं।

पता ना उसका क्या रिऐक्शन होगा, कहीं वो मुझसे नाराज़ हो के बात भी करना बंद कर देगी तो..? तब-तब मैं क्या करूँगां..? ना-ना अभी नहीं फिर बाद में कभी कोशिश करूँगां। कोइ अच्छा-सा वक्त देख के, उसे और ज़्यादा समझ के और हाँ उस चिंटू के बच्चें से लडकियों को पटानें के और भी पैंतरें सीख के। सब कहतें हैं वो लडकियों को यूं पटा लेता हैं। मैं आज़ भी हैरान रहता हूँ इस बात पे काला-कलूटा, छोटे-कद वाला आखिर लडकियाँ उससे पट कैसे जाती हैं। मेरी नज़र में तो वो बिल्कुल जाहिल,निकम्मा,आवारा और आप चाहें जो कह लो जितना बुरा वो मेरी नज़रों में हैं। खैर मुद्दा ये नहीं हैं बात मेरे पहले प्यार के पहले इज़हार की हैं।

कैसे क्या करूं? कुछ समझ नहीं आता.. वो कुछ इशारा दे दे तो बात बन जाएं पर उसे अपनें दोस्तों से फ़ुरसत कहां..? एक मैं ही तो नाकारा हूँ जो उसके प्यार के पीछें पागल रहता हूँ। पर मैंनें भी तो देखा ही हैं ना कल जी क्लासिक के मूवी में राज़ेश खन्ना नें क्या समझाया था.. लडकियों को अपना बनाना हैं तो थोडी चापलूसी कर ही लेनी चाहिएं, लडकियों को यें अच्छें लगते हैं जब कोई उनके नखडों को उठाता हैं।

कसम से बहोत गंदे और उबाऊँ नखडे होते हैं पर क्या करें हम इस आशिक दिल का। अपनें प्यार के चक्कर में उसे भी ढोता-फ़िरता हैं। पता ना आज़ मैं ना जानें कैसी-कैसी बातें कर रहा हूँ, शायद यहीं तो कहीं प्यार नहीं जब मैं उसके पास भी नहीं तो भी वो मेरे ख्यालों में समाई हुई हैं।

जानें कैसे क्या होगा? आखिर मैं कब उसे अपनें दिल का प्यार बतलाऊँगां या फ़िर यें प्यार ऐसी ही कैसे किसी कोनें में दब के रह जाऐगा और ज़िन्दगी भर मुझे टींस देता रहेगा।ना-ना मैं हर-गिज ऐसा नहीं होनें दूँगा। मैं अपनें प्यार का इज़हार करूगाँ और जल्द ही करूँगां फ़िर कैसे करूँगां?

बातें फ़िर वहीं आके रूक जाती हैं जहां से वो शुरू हुई हैं और डायरी का फिर वो एक पन्ना भर जाता हैं इस कश्मो-कश में जो मुहब्बत की दास्तां बतानें के लिएं लिखी जा रहीं हो।

..नितेश वर्मा..

Monday, 7 July 2014

हमारी अधूरी कहानी-3 [Hamari Aduri Kahani-3]

कहानी जारी हैं..

ना जानें मुझे ऐसा क्यूं लग रहा था जो कुछ भी हुआ और आगे होनें वाला हैं उसके पीछें सिर्फ़ मैं और मैं ही हूँ। किसे कुसूर-वार ठहराऊँ जिससे आज़-तक मैनें मुहब्बत का इज़हार किया हीं नहीं या फिर उसे जो मेरें बचपन का दोस्त हैं जिससे मैनें इतनी बडी सच्चाई छुपा रक्खी हो। अब कुछ समझ नहीं आता कब-तक इन झूठी मुस्कानों को चेहरें पे लिएं घूमता रहूँगा। मौत भी करीब नहीं अभी तो जवानी पर कदम रक्खा हैं, ये लोग सूसाइड कैसे कर लेते हैं। मैं भी इन हालतों से बचना चाहता हूँ। मैं भी मरना चाहता हूँ, क्या करू दोस्त की ज़िन्दगी की खुशी छींन भी नहीं सकता और अंज़लि के बगैर जी भी नहीं सकता।

पूरा फ़िल्मी माहौल बना हुआ हैं। ये फ़िल्मी राइटर भी ना, ना जानें कैसे-कैसे स्क्रीप्ट लिखतें रहतें हैं हर कहानी में दुखडा ही सुनाता हैं कभी आज़-तक कोई ऐसी फ़िल्म हैं जो उपाय ना सही जुगाड ही लगा दे इन सब मुश्किलों में नहीं ऐसा क्यूं करेंगें, पैसे जो ना ढेर कमानें है? खैर मैं भी कहा खोया चला जा रहा हूँ? जब दिल बेचैंन होता हैं तो शायद हो जाता हैं, अंज़लि नें बताया था कभी।

आज़ भी मुझे याद हैं हम-दोनों जब शाम में मिलें और वो अपनें शादी की बात मुझे बता रहीं थीं, मैं किसी सोच में डूब गया था। शायद वो मेरे प्यार से अंज़ान थीं, मैं उसका दोस्त हूँ इसलिए वो ये बात मुझे बताना चाहती हो या फ़िर और कोई वजह हो। उस-दिन कुछ खास दिमाग नहीं चला। मैं एक-दम सुन्न पडा था,बस उसका हाथ था जो मेरी हाथ में तो मैं ज़िंदा खडा था।

रोहन जब शिमला आया मैं उससे मिलनें गया ही नहीं पता ना मुझे क्या हो गया था। मैं उसे जानतें हुएं भी अपनें प्यार का दुश्मन समझ रहा था, उसी के वज़ह से ये सब कुछ हुआ था ऐसे ही ना जानें कितनें ख्याल जो दिल में घर किएं बैठें थें। रंज़िशें इतनी थीं की मैं बयाँ नहीं कर सकता। जिस दोस्त से मैं कभी इतना प्यार करता था वो आज़ उस दो-दिन के आई लडकी के लिए खराब हो गया था। सहीं कहतें हैं लोग इश्क में दिमाग खराब हो जाता हैं, तो फिर ये हमेशा लडकों के साथ क्यूं होता हैं? क्या लडकियाँ कभी प्यार नहीं करती?

मैं अपनी बदहाली के साथ जी रहा था और धीरे-धीरें अंज़लि को भूलानें की कोशिश कर रहा था। आखिर अकेला इंसान इन परिस्थितियों में कर भी क्या सकता हैं?

तभी अचानक मेरें मोबाइल पे एक नम्बर फ़्लैस हुआ नम्बर रोहन का था अभी शायद उनकी शादी को दो-दिन ही हुएं होगें। मैंनें ये सोचा शायद कोई काम होगा उठा ही लेता हूँ, फिर ये सोच के रूक गया कहीं कुछ हनीमुन का आइडिया पूछेगा तो मैं क्या कहूँगा। मेरे दिल के जख्मों को फिर से वो नासूर कर देगा, छोड देता हूँ। तब-तक फिर एक बार उसका नम्बर दूबारा से फ्लैस हो गया मैनें सोचा चल देखता हूँ काम की बात करेगा तो ठीक वर्ना और कुछ पूछेगा तो मैं ना कर ही दूँगा। इसमें इतना हिचकना क्या, दोस्त हैं वो मेरा मैनें ना जानें कितनी बार ना कहा हैं इस बार भी कह दूँगा। और मैं हनीमून के बारें में जानता ही क्या हूँ अभी तो मेरी शादी भी नहीं हुई।
तो मैनें फोन उठा लिया हैलो! हाँ बोल रोहन, कैसा हैं भाई?
ठीक हूँ। दूसरी तरफ़ से कुछ उखडे आवाज़ में रोहन नें कहा।

मैं रोहन को जानता था जब भी उसे किसी बात की परेशानी होती वो ऐसे ही बातें किया करता था ..
मैनें पूछा क्या बात हैं भाई कोई दिक्क्त हैं क्या अंज़लि से?
दिक्कत कैसी दिक्कत जब उससे शादी मेरी हुई ही नहीं तुझे तो पता होगा ही कहतें-कहतें वो कुछ रूक-सा गया फिर अचानक अच्छा तुझे कैसे पता होगा तू तो यहां था ही नहीं मैनें कित्ती बार ना जानें फोन मिलाया था तेरा फोन लग ही नहीं रहा था। फिर मैं परेशान वैसे ही तेरे घर गया तो आंटी ने बताया तू मुम्बई गया हुआ हैं, क्या काम था तेरा?

अभी मैं उसकी शादी ना होनें सा जितना हैरान था बता नहीं सकता दिल के कोनें में एक खुशी भी थी मुम्बई तो बस उसकी याद से दूर होनें का बहाना था। प्यार तो अब भी मैं उससे उतना ही करता था और जाँब का क्या हैं जाँब तो मैं शिमला में भी कर सकता था।
इन सभी ख्याली पुलावों को मैनें पकनें से रोका और रोहन से पूछा क्यूं यार ऐसा क्या हुआ?
अंज़लि तो बहोत ही अच्छी लडकी हैं तुझे तो वो पसंद भी थीं ना तूनें ही तो फोटों देखके बात को आगे बढाया था।
हाँ यार! पर इंकार उसे हैं तो अब क्या करें?
शादी के ऐन वक्त पे उसनें मना कर दिया और कहनें लगी अभी वो यें शादी नहीं कर सकती वो इसके लिए तैयार नहीं हैं। इस बात पे ड्रामा भी बहोत हुआ था।
पर अभी मैं बता नहीं सकता मैं पेन्सिल्वेनिया जा रहा हूँ अभी ऐयर-पोर्ट पर उस फ्लाइट का इंतज़ार ही कर रहा हूँ। दूसरी तर्फ़ से एक साँस में रोहन नें बोला।

और हाँ वो अंज़ली भी आस्ट्रेलिया जा रही हैं अपनें आगे की पढाई के लिए उसका स्काँलर-शीप आया हैं। रोहन की आवाज़ मुझे फिर से सुन्न कर कर दी थीं।

पर अब मैं कुछ खुश था उसकी शादी जो नहीं हुई थीं पर दिल अब भी बेचैंन था वो आस्ट्रेलिया में मेरा दोस्त पेन्सिलवेनिया और मैं मुम्बई में।

किसी अंज़ान मोड पे आके जैसे हमारी कहानी ठहर गई हो उसके बाद आज़ एक अरसां हो गया हैं दोनों मेरे दिल में आज़ भी बाकी हैं किसी पुरानी फ़िल्म के राजेश खन्ना और मधुबाला की तरह। शायद मैं भी उनके जेहन में कहीं ना कहीं जिंदा होऊँगा, पर यकीं से नहीं कह सकता, क्यूंकि उनसे अब कोई संपर्क जो ना रहा।

[यह कहानी मेरी कल्पनाओं पे आधारित हैं जिसका किसी के निजी ज़िन्दगी से कोई संबंध नहीं हैं। यदि ऐसा होता हैं तो वो उसे सिर्फ़ मात्र संयोग कहें।]

..नितेश वर्मा..

Sunday, 6 July 2014

हमारी अधूरी कहानी-2 [Hamari Aduri Kahani-2]

कहानी जारी हैं..

माँ अपनी घिसी-पिटी, रटी-रटाई वहीं लाईन बोल के चली गई जो वो पिछ्लें 20 सालों से बोल रही थीं।
मैं अब कुछ धीमा सा पड गया था ना जानें क्यूं मुझे वो बातें याद आ रहीं थीं जो मुझे अब शायद नहीं आनें चाहिएं? क्यूं मेरा दिल बार-बार वहीं जा के ठहर जाता हैं? कोशिशें सारी नाकाम रह जाती हैं जैसे पंछियों को पर दे के सारी आसमान छीन लो..

पींपींपीं.. तेज़ी से एक ट्रक मेरे बगल से गुजरी मैं ये देख के हतास था क्या करू मैंनें तेज़ी से दूसरी ओर छलांग लगा दी, मरते-मरते बच गया ये सोच के मैं राहत की दो सुकूं ले ही रहा था तभी एक आवाज़..

आह! दो लडकियाँ मेरी से कुछ दूर बैठी पडी थीं जैसे रास्तें की कोई भिखारन, मैं कुछ समझ पाता उससें पहलें एक लडकी ने कहा : ओए! तू पागल हैं क्या? खुद को बचानें के चक्कर में सबको मारेगा क्या? पैर में चोट लग गयी हैं तेरे कारण इसे अब अस्पताल इसे कौन ले जाऐगा?
मैं उसे बस देखता ही जा रहा था चेहरा इतना भोला जैसे राम की सीता हो पर वो तो तात्रिंक की शैतान की तरह आग उगल रही थीं। अबे अब यूं ही देखता रहेगा या कुछ करेगा भी?
मैं उससे नज़र हटाकर दौड के उस दूसरी लडकी के पास गया और लपक-कर उसे गोद में उठा लिया और कहा चलो जल्दी चलो।
वो मेरे तरफ़ गुस्सें से देख रही थीं मैनें पूछा क्या तो बोली : नीचे रख उसे। तेरी बहन लगती हैं या तेरी बीबी जो यूं गोद में उठाएं ले जाऐगा, दिमाग भी घर छोड के आया हैं क्या?
मैनें उसकी ऐसी जली-कटी बातें सुनके उस लडकी को नीचें रख दिया और सर झुका के आगे बढ गया। वो मेरे पीछें आते-आते मुझे अपनी तरफ़ मुडा के कहती हैं ओए हीरो! कहाँ चल दिए, पैर में चोट लगी हैं उसे आपके कारण?
मैं[गुस्से से]: हाँ पता हैं तभी तो ले के जा रहा था उसे उठाकर हाँस्पिटल, पर तुम्हें अपने बक-बक से फ़ुरसत हो तो ना समझोगी।
वो मुझे देखके अब कुछ झेंप सी गयी थी और फ़िर बोली: आई एम साँरी! पर आपको टेक्सी लेना चाहिएं ना यूं ऐसे ही सडक पे गोद में उठा लिया। तब जा के मुझे सारा माज़रा समझ आया इतना पापड क्यूं बेला जा रहा था और गर्मी भी ज्यादा थीं तो मैंनें बिना कोई सवाल किए एक टेक्सी ली और हाँस्पिटल की ओर उससे चलनें को कहा।
अभी तक वो लडकी कराह रही थीं। धीरें ही सही उसकी आवाजें कान में साफ़ आ रही थीं।
सिटी हाँस्पिटल,शिमला..

अब हम हाँस्पिटल के सामनें थें। मैंनें कहा रूको मैं अंदर से बुला के किसी को लाता हूँ।
उसने फ़िर सवाल कर दिया: क्यूं?
मै [झुल्झुलाहट से]: अब इसे आगे कौन से टेक्सी में ले जाऊँगा?
उसने कहा : हाथ से सहारा देकर भी तो हम ले जा सकतें हैं ना, अब पता ना अंदर कोई मिले या ना मिलें और बिना मतलब वक्त बर्बाद करनें से फायदा भी क्या, दर्द और नासूर होता जाऐगा..

उसकी बढती बकवास को सुनके मैनें एक उदासीपन से सिढियों से नीचें उतरते कहा: अच्छा ठीक हैं! जैसा तुम कहो।
फ़िर हमनें साथ होकर उसे हाथ दिया और उसे अंदर ले जा के उसका ट्रीट्मेन्ट कराया। डाँक्टर ने मोच बस बताई और कुछ ज्यादा चोट नहीं आई थीं।
ये सुनके मैं सोचने लगा: बाप रे! लडकियों के  कितनें नौटंकी होते हैं थोडा-सा मोच और इतना बडा बवाल?
फिर मैंनें उसे उसके घर तक ड्राप किया और उससे कहा ठीक हैं अब मैं चलता हूँ। हाँ में उसने सर हिलाया मैं अब वहां से चल दिया था
..तभी पीछें से उसने फ़िर आवाज़ लगाई ओए!
मैंनें मुडके देखा तो उसनें कहां :थेंक्यू! और हाँ मेरा नाम अंज़ली हैं। मैं यही पीछे वाली गली में रहती हूँ।       मैनें सोचा ये मुझे क्यूं इतना कुछ बता रहीं हैं मैनें भी जबाब में कहा: माईसेल्फ़ समीर!
उसने हँसते हुए कहा : हाँ मुझे पता हैं,आपका नाम और आपका काम। [और कहके हँसते हुई अपनें घर की ओर चल दी]
और मैं उसे देखता रह गया जब-तक वो मेरें आँखों से ओंझल ना हो गई। फिर धीरें-धीरें मैं अपनें घर की ओर आनें लगा और ये सोचनें लगा आखिर उसे मेरे बारें कैसे पता?

तू भी गली के अवारें, लफ़ंगे लडकों की तरह हो गया हैं किसी काम का नहीं हैं, कब से तेरे पापा फोन करके तुझे बुला रहें हैं। माँ की ये आवाज़ मेरे कांच जैसे सपनें को एक पल में ही चूर-चूर कर दिया और मैं हडबडाया तेज़ी से उठा और आँफ़िस की ओर चल दिया।

मैं आँफ़िस का काम करके तेज़ी से घर की ओर चल दिया क्यूंकि आज़ मेरा सबसे पुराना और सबसे खास दोस्त आनें वाला था, रोहन। रोहन मेरे साथ ही पढता था पर बाद में उसकी आगें की पढाई और अच्छी हो इस ख्याल से उसके पापा नें उसका नामाकरण यूनिवर्सिटी आँफ़ पेन्सिलवेनिया में करा दिया था। रोहन पहलें से पढनें में तेज़ था और वो सबकी बातें भी समझता था, दिल का बहोत साफ़ था कभी कोई छ्ल-कपट नहीं रखता था। मेरी नज़र में तो वो शिमला का हीरों था, और हाँ वो मेरा बस वो ही एक दोस्त था, मुझे ज्यादा रिश्तें बनानें पंसद नहीं क्यूंकि आखिर में उन्हें संभालना बहोत मुश्किल हो जाता हैं।

रोहन अंज़ली से शादी कर उसे अपनें साथ पेन्सिल्वेनिया ले जाना चाहता हैं उसे मेरे प्यार के बारें में सब पता हैं लेकिन मैनें उसे कभी ये नहीं बताया था की मेरा प्यार अंज़ली हैं और जब उसनें ये बताया तो उसके बाद मैं उसे कभी ये बताना नहीं चाहता था। शायद अंज़ली भी अपनें परिवार के नए रिश्तें से सहमत थी। उसे मेरे प्यार की थोडी भी भनक नहीं थीं। और मैं अब कुछ इकरार और इज़हार नहीं करना चाहता था बात घर-सामाज़-दोस्ती की अब बस रह गयी थीं और इस कठिन घडी में मेरा इम्तहान बाकी था। पर अंज़ली मेरी प्यार थीं उसे मैं कैसे जानें देता उसके साथ बिताएं हर लम्हें अभी तक मुझमें ज़िन्दा थें। फ़िर मैं उसे क्यूं जानें दे रहा था।

कहानी अगली भाग में जारी रहेगी..

Saturday, 5 July 2014

हमारी अधूरी कहानी-1 [Hamari Aduri Kahani-1]

समीर सुबह-सुबह कहाँ चल दिया, तेरे पापा ने तुझे किसी काम के लिए आँफ़िस बुला रक्खा हैं, जाऐगा नहीं क्या?
माँ तेज़ी से घर से निकलती हुई मुझे बाहर जाता हुआ देख के कहती हैं।
मैं उनकों देखके मुस्कुरां के कहता हूँ, हाँ अभी तो सुबह हैं ना दोपहर में चला जाऊँगा और बाईक निकाल के आगें सडक की ओर रूख कर लेता हूँ।

आज़ तुम फ़िर लेट हो गए? [अंजली ने मेरी ओर देखके नाराज़गी में कहा]
मैंनें समझातें हुएं कहा: ट्रेफ़िक था।
अंजली मेरी इस बात पे मुस्कुरां दी, और बाईक की ओर आतें हुएं कहां: तुम भी कुछ भी बोलते हो, सुबह के 6 बजे कौन सा ट्रेफ़िक?
मैंनें बाईक को धीमी गति से आगे बढाता हुएं कहा मेरा घर कोई ट्रेफ़िक से कम थोडे ही ना हैं, तुम्हें तो बस दुनियांदारी की लगी रहती हैं। कभी मेरा भी हाल पूछ लिया करो, ना जानें किस गम, किस सदीं में जी रहा हूँ। मेरी सारी बनावटी भावुक बातों के सुनके अंजली कहती हैं: हाँ-हाँ बातें तो कोई तुमसे बनाना सीखें। जब भी अंज़ली ऐसी फ़िल्मी बातें करती मैं खुद को किसी हाल में ही आएं फ़िल्म का अभिनेता समझनें लगता।

अंजली: कहाँ खो गए मेरे घनचक्कर?
मैं [बेरूख होते हुएं] : अरे कुछ नहीं यार! मैं तो बस यूं ही [कहते हुएं मैंनें बाईक की गति को बढा दिया]
लो तुम्हारें घर का मोड आ गया अब मैं चलता हूँ [मैनें बाईक को एक साइड में धीमा करतें हुएं कहा]
अंजली बाईक से उतर-कर क्यूं तुम नहीं आ रहें हो क्या? साथ में काँफ़ी तो कम से कम पीतें जाओ।
मैं[शर्मातें हुएं]: नहीं फ़िर कभी ओके बाएं।
अंजली घर की ओर जानें लगी और मैं उसे देखता रहा, जब तक वो मेरे आँखों से ओझल ना हो गई।

अचानक मेरे पास तभी दो बुर्जुग गुजरें और मुझे बाइक एक साइड में खडा करके अंजली को देखता हुएं.. कहते हैं: पता ना इस देश का भविष्य क्या होगा शर्मा जी। नौजवानों को तो हुक्कमरानी से फ़ुरसत ही कहां हैं, जरा सा मौका मिल जाएं तो अपनी लैला की आँचल में घुस जाएं। कमबख्त कैसा जमाना आ गया हैं?

मैं[फ़िल्मी अंदाज में]: शर्मा जी! जरा हमारी भी सुनतें जाओ।
दोनों नें मेरी बातों को सुना और दौडतें हुएं मेरे पास आ गएं। मैंनें बाइक की मिरर में देखते हुएं कहां यहां से तीन गली छोड के चले जाओ आपकों अपनें घर के भी नाकारा, निकम्में नौजवान मिल जाऐंगें ठीक हैं ना या फ़िर विस्तार-पूर्ण समझाऊँ अंकल।
दोनों चुपचाप मेरी बात सुनकर मुझे देखते हुएं चले गएं जैसे मैं किसी फ़िल्म का विलेन होऊ।
फ़िर मैंनें बाईक सर्टाट करी और घर की तरफ़ चल दिया। घर पहूंचतें ही माँ नें फ़िर सवालों का पेड खडा कर दिया।

कहाँ गया था..? यें रोज़ सुबह-सुबह तू कहाँ चला जाता हैं..? पहले तो तेरी ये हालत नहीं थीं..? पता ना हे भगवान मेरे बेटे को क्या हो गया हैं..? जरूर मिश्राजी की बेटी ने कोई जादू-टोना किया हैं, शादी की उम्र हो चूकीं और उनकों कुछ पता ही नहीं। कहने पे और कहतें हैं अभी बी काँम ही तो किया हैं, अभी उम्र क्या हैं..? मैनें देखे हैं ना उसे ना जानें कितनें लफ़ंगे लडकों के साथ। हे भगवान उस चुडैल से मेरे बेटे को बचाओ..

मैं [जोर से चिल्लातें हुएं]: माँ तुम्हारा हो गया तो कुछ मिलेगा खानें को कितना बोलती..
मेरी बातें अधूरी ही रह जाती हैं तब-तक माँ रसोइयें से एक थाली लेते हुई मेरी तरफ़ चली आती हैं।
लेकिन इतनें पे भी वो चुप नहीं रहती और कुछ ना कुछ बोलती रहती हैं।

मैंनें तुझे कितनी बार समझाया हैं तू उससे बातें ना किया कर। मेरा बच्चा! आज मेरे साथ तू पंडीजी के पास चल। वो ही तुझे बस ठीक कर सकतें हैं।

मैं [माँ को समझातें हुएं जो खुद में व्यस्थ हैं]: माँ-माँ, माँ ऐसा कुछ भी नहीं हैं जैसा तुम सोच रहीं हो।
माँ[उसी परेशानी से मेरी तरफ़ देखते हुएं] फ़िर कैसा हैं? इसमें कुछ पता नहीं चलता, तु मेरी बातों को समझता क्यूं नहीं..

माँ की फ़िर वही पुरानी बातें शुरू हो इससें पहले मैंनें माँ को बता दिया जो मैं उन्हें बताना नहीं चाहता था..
माँ-माँ मैनें माँ को अपनी तरफ़ करतें हुएं कहाँ: माँ उसका नाम अंजली हैं। मैं उससे पहली बार अपनी बी काँम फ़ाइनल्स के इक्साम में रोड-क्रास के दौरान मिला था। वो भी शायद इक्साम ही दे के आ रही थीं। मैंनें उसे पहली बार वहीं देखा था। अब बस रहनें दो तुम्हें पता लग गया ना इसमें ऐसा-वैसा कुछ नहीं, जैसा की तुम हर-वक्त सोचती रहती हो।

माँ[अचरजता से] हेन्न्न्न! ऐसे कैसे बस मुझे तो कुछ पता ही नहीं हैं उसके बारें में जरा अच्छें से बता कौन हैं वो कहाँ रहती हैं परिवार-वालें कैसे हैं उसके और हाँ अपनी कास्ट की होनी चाहिएं वर्ना तेरे पापा कभी नहीं मानेंगें।
मैं [पूरी बदहाली से माँ की तरफ़ देखते हुएं] : ओए! रूक जाओ यहीं वैसा कुछ नहीं हैं वो बस मेरी फ़्रेन्ड हैं और बस फ़्रेन्ड। और इससे ज्यादा मैं कुछ चाहता भी नहीं।
माँ[मेज को साफ़ करती हुई बोली]: हाँ बेटे मुझे भी पता हैं मैं भी दुनियां देख रही हूँ फ़्रेन्ड के लिए आज कौन कितना करता हैं, खैर कोई बात नहीं जब तू ही कहता हैं तो मुझे पूरा भरोसा हैं तू ऐसा-वैसा कुछ नहीं करेगा।

कहानी अगली भाग में जारी रहेगी..

हमारी अधूरी कहानी [विवरण]

कभी-कभी खुद को ये समझाना बहोत मुश्किल होता हैं आखिर क्यूं कुछ कहानियाँ अधूरी ही रह जाती हैं। क्या यहीं नियति में होता हैं या फिर हम नियति मान उसे स्वीकार लेते हैं। क्यूं अधूरें राह की तरह ये कहानियाँ होती हैं, बिना किसी मंज़िल के भटकती रहती हैं। मक्सद क्या होता हैं..? आखिर इन कहानियों को कौन सुनना पसंद करता हैं..? ऐसी कहानियों का क्या? क्या यें कहानियाँ दिल को सुकूं पहोचाती हैं..?

सवाल कई होतें हैं लेकिन कोई जवाब ऐसा नहीं होता जो इस दिल को सुकूं दे सके और उस अधूरें कहानी को भी कहीं ना कहीं पूरा कर दे।दिल बेचैंन रहता है। किसी की बातें बेचैंन कर देती है। हर-वक्त बस वहीं बात सीनें में चलती रहती हैं आखिर आगे क्या हुआ होगा उनके साथ। कैसे और ना जाने कब, जैसे कई सवाल।

हर वक्त नज़र के सामनें जैसे एक उल्झन हो जैसे वो कहानी मेरी हो खुद को देखूं तो परेशानी दिल की चेहरें पे साफ नज़र आ जाए। दिल कहीं लगता नहीं। इसी सोच में डूबा रहता हैं आखिर यें मेरे साथ होता तो कैसा होता उस दुखद अनुभव के बारें में सोच के ही दिल बैठा जाता हैं।

लेकिन तब-तक ये बात अनसुल्झी रहस्य या मिथ्या की तरह होती हैं जब-तक आप खुद-ब-खुद इससे रू-ब-रू नहीं होते। ऐसी कहानियों से मैं भी दूर रहता था।

                 
देर से ही लेकिन एक दिन ऐसा आया जब मुझे समझ आया कुछ कहानियाँ अधूरी ही अच्छी लगती हैं। वो अधूरी हैं तभी सहीं है। उनका वो अधूरापन ही अच्छा लगता हैं वो अधूरें होके भी पूरा बनें रहतें हैं। जैसे किसी अंज़ान रास्तें पे आगें ना चलनें से वो मंज़िल की ओर ना ले जाती हो।

आईयें आपको बिल्कुल ऐसी कहानी सुनाता हूँ जो अधूरी हो के भी पूरी हैं। वो अपनी कहानी के जरिएं एक संवाद कह जाऐगी जो उस अधूरेपन को आपके दिल से मरहम की तरह जुड से उसकी चोट को निकाल देगा।


ये कहानी मेरें और मेरे प्यार की हैं.. पहली नज़र का प्यार हैं.. दिल कुछ सोचता नहीं.. मुहब्बत हो जाती हैं.. मुहब्बत अब इकरार होने को हैं.. पर वक्त वहीं आ के जैसे मेरे लिएं रूक जाती हैं.. एक अज़नबी शक्स का आगमन होता हैं जो मेरे प्यार का असल हिस्सा हैं, एक अहम पहलूं।


हालातें इतनी संगीन हैं.. वो उसके साथ जुडने को मजबूर या यों कहों.. तैयार हैं। शायद उसे मेरी मुहब्बत के इज़हार का इंतज़ार हो.. या मुझे लेकर वो ऐसा कुछ सोचती ही ना हो.. मैं ही शायद कहीं ना कहीं बेवकूफ़ हूँ जो एक ख्वाब ढोता चला जा रहा हूँ।

मैं उसके बारें क्या सोचता हूँ.. शायद उसनें कभी जाना ही नहीं.. कोई तो इशारा करती आज़.. एक बार तो कहती.. लेकिन अब क्या..? अब कुछ कहनें का फ़ायदा ही क्या..? दिल टूट चूका हैं.. हालतें मेरे समझ से बाहर की हैं।
सब बिगडा हुआ हैं, शायद ऐसा ही होता हैं.. सच कहतें हैं कुछ कहानियाँ अधूरी ही रह जाती हैं। लेकिन मेरा क्या..? मैं कोई कहानी नहीं..? मैं कोई देवदूत नहीं जो बस इक मकसद को पूरा करनें को आया हो..? नियति रचनें को आया हो.. आज़ तीन ज़िन्दगीयाँ एक अज़ीब से मोड पे हैं.. कुछ कहना अखबारी हो जाऐगा.. खामोशी.. इस हालत के पक्ष में हैं। अज़ीब दास्तां हैं आखिर क्यूं होता हैं ऐसा..? आईयें देखतें हैं हम..


                                               #  हमारी अधूरी कहानी  #


..मिले जैसे-तैसे किसी मोड पे..
..करनें लगे बातें हम खुलके जोर से..
..शरम हमें अब किस बात का..
..जुडनें लगे जब हम दिल की डोर से..

..बातें ना बनाओं..
..आँखें ना दिखाओ..
..हैं जो ये कहानी तुम्हारी..
..तो कहके सुनाओ..

..कहनें को आएं जब कहानी हम..
..हिस्सों-हिस्सों में बाँट गएं कहानी हम..
..दिल के दरमयां इक बात बची हैं..
..अधूरें हम और रह गई अधूरी ये ज़ुबानी..
..कहनें को आएं जब हम..
..हमारी अधूरी कहानी..!

..नितेश वर्मा..