Saturday, 24 October 2015

शर्माजी का लडका

अरे आप अवि को क्यूं नहीं समझातें? शर्मा जी को पेपर पढता हुआ देख अवि की माँ ने उनसे कहा।
शर्मा जी का यह सुनना था की वो भडक गए। अरे समझाया उनको जाता हैं जिनके पैर जमीं पे होते हैं, जनाब तो आसमानों की सैर किया करते हैं। उन्हें ये मिडिल-क्लास मेंटालिटी कभी समझ में आई हैं। अरे हमारे यहाँ कोई काम वक्त पे ना हो तो उस काम को बाद में छोडना ही पडता हैं। तुमनें देखा नहीं कबसे सोच रहे थें अवि कुछ काम धंधा सीख ले, और ना कुछ तो कम से कम मेरे बीजनेस में ही कुछ हाथ बटा दिया करें तो मैं भी कुछ दिनों का वक्त निकालकर इस घर की कुछ मरम्मत करवा दूं। मगर सोचनें से क्या होता हैं, वो निकम्मा कुछ कभी समझें तो कहतें-कहतें शर्माजी रूक गये।
आप भी ना कहाँ-कहाँ की बात लेकर बैठ गये। मुझे पता हैं उसे बिजनेस नहीं, उसे तो डाक्टर बनना है। कभी-कभी मैंनें उसको देखा हैं वो डाक्टरों के बारें में कुछ ज्यादा ही बात करनें लगता हैं और वैसे भी अभी अवि की उम्र हैं ही क्या 22 का तो हुआ हैं।
शर्मा जी फिर भडक गये। अरे 22 का हुआ हैं कहनें में तुम्हें तनिक भी शर्म नहीं आती, अरे उसके उम्र में तो लोग न-जानें क्या-क्या कर बैठते हैं। औरों की कोई बात क्यूं करें, तुमनें देखा नहीं हैं क्या मुझे, मैं तुम्हें गाँव से शहर क्या लेकर और किस हालत में आया था। उस वक्त हमारें पास क्या था, कुछ नहीं। मगर आज आज हमारें पास क्या नहीं हैं। कमसे कम जीनें की उम्मीदें तो हैं। मगर न-जानें हमनें अपनी ज़िन्दगी में कौन सी भूल कर दी की हमारा इकलौता बेटा इतना निकम्मा निकल गया।
अच्छा बस भी किजीएं। ये लिजिये चाय पीजिये, मैं अभी अवि को फोन करके आती हूँ, न-जानें कहाँ फिर से आपके डर से निकला हैं, अब आयें तो आप उसको डाँटे नहीं।
शर्माजी चाय की चुस्कियों के साथ खुद को अखबार के उल-जुलूल में फिर से डूबों दिया। दर-असल उनका ये रूटिन था, वो शाम को जब अपना सो काल्ड फैन्सी जनरल स्टोर एवं किराना की एकमात्र विश्वसनीय दुकान को बंद करके आतें तो पेपर पढने में बैठ जातें, उनको पढना अच्छा लगता था, वो कभी अपनें गाँव से शहर राइटर बननें को आये थें, मगर किस्मत या घर का बोझ जो कह ले उन्हें एक किरानें के दुकान का मालिक बना के बैठा दिया। मगर हरिचंदर शर्मा उर्फ हरिजी या शर्माजी अपनें बेटें को इस हालत में कभी नहीं देखना चाहतें थें। वो चाहते थें अवि भी कुछ करें, मगर उसे अपनें आवारागर्दी से कहाँ कभी फुरसत मिली थीं। वो तो बारहवीं में ही दो बार फेल कर चुका था, वो क्या खाक डाक्टर बनेगा। इससे परेशान शर्माजी नें सोचा और कुछ नहीं आता तो क्या बेटा हैं उनका दुकान का ही काम-धंधा अगर सीख ले तो ज़िन्दगी आराम से गुजर जाऐगी। मगर अवि की बात ना तो उनके कभी समझ में आयी थीं और ना ही कभी आ पानें को थीं।
अवि कहाँ था तू? अभी मैं तुझे फोन ही करनें वाली थीं।
अरे माँ वो मैं अपने दोस्तों के साथ कहते-कहते वो कुछ रूक-सा गया और फिर गले को जोर से साफ करते हुएं बोला अरे। मम्मी हम बनारस के लडके साथ मिलकर और क्या करते हैं, ग्रुप-स्टडी कर रहे थें। अब इतने तो समझदार हम हो ही गये हैं के क्या भला हैं और क्या बुरा सोच सके।
इतने में शर्माजी फिर भडक गये और बोले हाँ बहोत खूब ये अपनी माँ को और टोपी पहनाते फिरो। मैनें तुम्हें देखा था बाइक पे लडको के साथ मटर-गस्ती करते हुएं।
अरे! आप भी ना। अरे! जवान लडका हैं शाम में थोडी मस्ती कर ही ली तो क्या हुआ।
शर्माजी फिर नाराज़ होके पेपर पढनें में उलझ गये। उलझ गये या खुद को उल्झा लिया, किसी बात से मुँह मोड लेना कितना आसान होता हैं। लेकिन जब अपनें ही बात को ना समझे, उस हालात को ना समझे तो सब उल-जुलूल सा लगता हैं। एक प्रश्नचिह्न सा।
अवि अब कमरें में तू जा, और हाँ अंदर बैठ के पढाई करना।
अवि को पढाई दर-असल अब बोरिंग सी लगती है, वो तो बस अंजू के प्यार में पागल हैं। अंजू उसके साथ बारहवीं में पढती थीं, अब वो डाक्टरी की पढाई करती हैं और अवि बस डाक्टरी की बात किया करता हैं। अब क्या करें अवि जो भी हैं जैसा भी हैं लेकिन अंजू से प्यार तो करता हैं ना। वो तो अंजू को यहाँ तक बोलनें का सोच लेता था की अंजू मैं फेलियर हूँ, मैं नालायक हूँ, मैं थोडा बदमाश भी हूँ, मैं जानता हूँ के मैं गलत हूँ, तुम्हारें सामनें मैं जीरो परसेंट हूँ, मगर मेरा प्यार 100 परसेंट सच्चा है, ये दिल बस तुम्हें ही देख के धडकता हैं। वो तो आग लगें उस मुँहे जगदीश के बेटे को जो उसे ये जन्नत 2 का डायलग बता के उसे चला गया, कही अंजू ने भी जन्नत 2 देखा होगा तो सब मिट्टी में मिल जाऐगा सोच के अवि ने उस पन्नें को अपनें दिल से फाडकर बाहर फेंक दिया। लेकिन अंजू को तो उसनें दिल में बसा रखा था।
अवि अवि आ जा मैनें खाना लगा दिया हैं।
अवि अपनी माँ की आवाज सुनकर बाहर निकला और फिर रूठकर अंदर जानें लगा तो अवि की माँ ने कहाँ अब क्या हुआ तुझे?
अवि : माँ, फिर बैंगन की सब्जी, मैनें कितनी बार तुम्हें मना किया हैं, ये हमें बैंगन पसंद नहीं। आप ही खाओ या पापा को खिलाओ।
शर्माजी फिर बोल पडे : बेटाजी तो फिर पहले कमाना सीख लिजीएं, और नही खाया जाता तो बाजार से जाकर खुद ले आया किजीए।
अवि झल्लाता हुआ फिर अपनें कमरें में आ गया, और चल रहें अपनें धीरें-धीरें गतिमान पंखे को देख रहा था, जिसे उसके पापा नें उसके दूसरें जन्मदिन पे ऐस ए गिफ्ट दिया था, ये तो उसे याद भी नहीं, मगर अवि की माँ ने उसे ये इतनी बार बताया था के ये बात उसके जेहन तक ने रट लिया था। लेकिन ये कैसा गिफ्ट जो किसी काम का नहीं हैं सोच के रवि झल्ला जाता, जो आज-तक तो ना कभी हवा दे पायी थीं, पर आजकल अपनें जिंदा होनें का प्रमाण जरूर देती रहती है। चर्र-चर की आवाज अब अवि को कहा चैंन से सोनें देती हैं तो अपना अवि भी अब कहाँ सोता हैं, हर पल अंजू ही तो उसे याद रहती हैं।
अवि अवि तू क्या कर रहा हैं बेटा। धत्त तेरी के पकडा गया।
माँ ने मेरी हाथों से अंजू की वो तस्वीर ले ली थीं, जो मैनें बारहवी में उसके ऐडमिट कार्ड को चुरा कर उसके लेमिनेशन को उतार कर बडे जतन से काट कर अपनें जेब में हाँ, बायी जेब में न-जानें कितने सालों से लेकर घूम रहा हूँ। वो कहते हैं अगर जिससे प्यार हो ना उसको बायीं तरफ रखा करते हैं क्यूंकि दिल भी उसी साईड होता हैं। खैर जाँ पे अभी आ बनी हैं, और मैं आपको ये सब बता रहा हूँ।
देख बेटा मैं बता रही हूँ तेरे पापा को ये सब बिलकुल भी पसंद नहीं और प्यार-वयार ना तो हमारें कुल-खानदान में किसी ने किया हैं और ना ही तू भी कभी इसे करेगा। वो तेरी सब हरकतों पे चुप रहते हैं, मगर जब वो यहाँ बोलेंगे तो मैं भी कुछ नहीं कर सकती। अच्छा होगा, तू इसे भूल जा।
अवि : माँ, मैं इससे प्यार करता हूँ, मैं इसे नहीं भूल सकता। तुम पापा को ये समझाओ ना।
माँ : अवि, मुझमें इतनी हिम्मत नहीं हैं। जा तू खुद कर ले।
अवि : माँ, एक बार कोशिश करने में क्या जाता है, मैं अंजू से बात करता हूँ। तुम पापा से करो।
माँ : मतलब, आशिक तू एक-तरफा हैं, बेटा बात मान तू उसे भूल जा। वो डाक्टरी पढ रही है और तू तीसरी बार बारवहीं की तैयारी कर रहा हैं, कोई चांस ही नही हैं।
अवि : माँ, आप मेरी ही माँ हैं ना, ये सब तो अंजू के माँ के डायल्गस है, आप बस दुआ करें।
माँ को अवि ने तो जैसे-तैसे अपनें हक में ला ही लिया था, अब बारी थीं तो अंजू को मनानें की और शर्माजी को मनानें की। अगर शर्माजी ना मानें तो भी चलेगा, भाग के शादी कर लेंगे लेकिन अंजू का मानना जरूरी हैं, लेकिन कैसे। सोचते-सोचते अवि की आँख लगी तो अगले सुबह ही खुली।
सुबह आँख खुली तो घर में चहल-कदमी कुछ ज्यादा ही थीं, लोगों का आना-जाना बहोत हो रहा था। अवि आँख धोकर अभी बैठा ही था, बगल से एक तौलिया उसके तरफ लिये एक लडकी खडी थीं। रवि हैंरान था वो समझ नहीं पा रहा था की अंजू उसके सामनें तौलियों को लिये क्या कर रही है। वो कुछ देर सोच में पड गया। अंजू ने उसकी तरफ देखते हुएं कहा अब अंकल जी ठीक हैं। अवि ये सुन के परेशान हो गया। वो एक सुध से अंजू को देखे जा रहा था, वो ना जानें कब से अंजू के आवाज को सुननें को तरस रहा था और आज वो उसके सामनें हैं तो ऐसी हालत में। अवि अभी तक समझ भी नहीं पाया था कि गोविन्द जो उसके पापा के साथ उनके दुकान में उनका हाथ बटाता था, बोला की भैया आपकों आंटी जी ने हास्पिटल को बुलवाया हैं, चलिए। अवि अब बस अंजू को देखे जा रहा था, अंजू ने अपना हाथ अवि के हाथ में रखते हुएं कहा, अवि अब बस तुम्हें ही सब देखना हैं, आज सुबह ही अंकल जी को हार्ट अटैक आया था, वो अभी भी ऐडमिट हैं। मैनें देखा हैं, पहले से काफी बेहतर हैं, मगर उन्हें आराम की अभी बहोत जरूरत हैं।
अवि का ये सुनना था, वो तेजी से अस्पताल की ओर भागता हुआ गया। उसे तो आज अपनी बाइक का भी होश नहीं आया, ना ही उसे ये सोच आया की इस हालत में उसे देख के सब क्या-कया बातें बनाऐंगे। दर-असल हम ये भूल ही जातें हैं हमारा दिखावा एक दिन हालात के आगें मजबूर होकें टूट जाता हैं, आँखों से परदा हट जाता हैं, सब बिलकुल सच सा, एकदम साफ सा दिखता हैं।
अवि अब अस्पताल में था, शर्माजी आज कुछ ना बोल पानें की हालत में थें, अवि की माँ बिन कुछ कहें आँसू बहाएँ जा रही थीं। अवि खुद को इस हालत में संभाल नहीं पा रहा था तभी नर्स ने आकर अवि के हाथों में एक लम्बी पर्ची पकडा दी। कुछ पैसें तो शर्माजी नें बचा के रखें थें सो इलाज तो हो गया, अब उनके दवा का, घर का, दुकान का सब का कुछ करना तो होगा ही। आखिर किसी नें सच ही कहा हैं बनियें का लडका आखिर घूम-फिर के दुकान पे बैठ ही जाता है, सो अवि भी अब दुकान पे जानें लगा। घर को संभालनें लगा, शर्माजी की दवा-इलाज का ख्याल करनें लगा। अब अवि बाइक से राउन्ड मारनें नहीं जाया करता हैं। अंजू के पीछें नहीं भागा करता हैं, मुहब्बत का आशिक नहीं बना फिरता हैं, अब तो अवि बदल गया हैं, जिम्मेदार सा हो गया हैं। शर्माजी तो अब ठीक भी हो गये हैं, अवि की माँ अवि को इतना समझदार होता हुआ देखकर खुश हैं, अंजू की चाहत भी अब अवि के करीब उसे ले आयी हैं, मग़र अवि खुद से नाराज़ हैं। वो उदास हैं इस बात को लेकर के क्या इंसान का मान इसलिए होता हैं के वो जिम्मेदार होता हैं।
सब उसके साथ हैं, सब उसके हक में हैं, दुकान भी बहोत आगें निकल चुकीं हैं, मगर अवि अब भी ज़िन्दगी की पेंचिदगीयों में उल्झा पडा हैं। अवि आज खुद को इस मुकाम पे देखता हैं तो सोचता हैं की इक छोटी सी गलती, इक छोटी सी ज़िद उसे कहाँ ले आयी हैं। अवि खुश रहना चाहता है, लेकिन अब वो ये नहीं कर सकता की अपनी खुशियों के खातिर वो किसी और के सपनों को तोडे।

नितेश वर्मा