Monday, 4 August 2014

दीना की कहानी [Deena Ki Kahani]

पडोसी का लडका : दीना काका और बताओ, आज क्या कमाया, क्या बनाया और क्या खाया? [एक लम्बी डकार लेते हुएं पडोसी उसके खाट के पास आकर पूछा]
दीना: बेटा क्या खाऊँगा, वही जो रोज़ खाता हूँ। [आसमान के तारों के तरफ देखते-देखते दीना ने कहा]
पडोसी का लडका: वही तो पूछ रहा हूँ, काका! कुछ खाया या मैं कुछ रसोइयें से चुरा-कर लाऊँ? [उसने दीना के कान में फुँस-फुसां के कहा]
दीना कुछ देर के लिए सोच में पड गया। रोज-रोज का ग़म खा के सोनें से तो कई ज्यादा अच्छा एक दिन की चोरी ही हैं। आखिर पेट भर जाऐगा तो आत्मा भी तृप्त ही हो जाऐगी। भगवान ने जब कई दिनों बाद ऐसा मौका दिया है तो आज़ भगवान को क्यूं नाराज़ करूं? बोल ही देता हूँ..
जा बेटा कुछ ले आ। [सोचते-सोचतें उसके आँखों में चमक आई]
दीना: बेटा थोडा-सा ही लाना वैसे तो मैनें खाया ही हैं। [दीना ने धीरें से कहा]
पडोसी का लडका घर की ओर चला जाता हैं कुछ खानें के लिए अपनें घर के समानों को चुरानें।
दीना आसमान की तरफ देख के सोचनें लगता हैं कैसा दिन आ गया हैं भूख भी जोर की हैं और चोरी को भी भेजा हैं फिर उतना क्यूं नहीं मंगा लेता जितना इस पापी पेट को चाहिए। क्यूं शर्म के मारें कह दिया भूख नहीं, खाया हैं मैनें क्या चोरी पकडे जानें का डर हैं वो तो पडोस का बच्चा है मैं तो इतना बूढा हो गया हूँ समझ कहा रख दी हैं मैनें। 

वो खुद से शर्मिंदा होकर खाट के एक करवट हो गया दिन भर धूप में रोजगार ढूँढनें में नाकामयाब शरीर भी रात में साथ छोड देता हैं, हड्डियाँ कुछ ऐसे बजी थी कि गली के तीन-चार अवारा कुत्तें दीना के खाट के पास आकर चक्कर लगानें लगे, वो चाहता था उन्हें भगा दे लेकिन दिन-भर की थकान उसे कहा खाट से उठनें की इजाजत दे रही थीं, उसने सोचा कुत्तें ही तो हैं क्या कर लेंगे।

अचानक दीना के दिमाग में यह ख्याल आया वह पडोसी का बच्चा उसके लिए खाना चुरानें को गया हैं। अगर वो आया और इन कुत्तों को देखा तो वह डर के मारें घर के अंदर फिर से चला जाऐगा और फिर उसे आज भी भूखा रहना पडेगा या फिर ऐसा हो वो निडर हो लेकिन कुत्तें अवारा उसे खाना लेता हुआ देखे तो जिद को बैठ जाए और मेरे खानें का हिस्सा हो जाएं। वो ऐसा अन्याय अपनें साथ बिल्कुल बर्दास्त नहीं कर सकता था।

उसके शरीर में एक बिजली कौंधी और वो अपना दुबला-पतला शरीर खाट के बगल में रखी एक पतली सी लाठी के सहारें लेकर खडा हुआ। कुत्तें अब खाट से कुछ दूर हुएं लेकिन अभी भी टकटकी लगाएं वो दीना को देख रहे थें। दीना दौड के कभी एक को भगाता तो कभी दूसरें को इसी दौड-धूप में वो लगा रहा तब-तक अचानक वो पडोस का लडका आकर उसके खाट पर एक पोटली खोलकर बैठ गया।
पडोस का लडका: अरे! दीना काका, कहा पडे हो उन अवारा कुत्तों के पीछें वो कोई सीमा-पार के आतंकवादी थोडे ही ना हैं, नौकरी से रिटायर हो गए लेकिन बल है कि तुम्हारा गया ही नहीं अब आओ यहां मैं कुछ खानें को ले आया हूँ। उन्हें बाद में देख लेना वो कोई भाग थोडे ही ना जाऐंगे।

दीना कुत्तों से अपना ध्यान अब-तक हटा चुका था, लेकिन ना तो वह उस चोरी और ना ही अपनें नौकरी के बारें में सोच रहा था, जो उसनें अपनें देश के लिए सीमा पर खडे होकर 35 साल गुजार दिए थें। उसे तो बस चिंता थीं तो अपनें भूख और उस पडोसी के लडके द्वारा लायी उस खानें की पोटली की।
वह तेजी से अपनी लाठी टेकता हुआ अपनें खाट तक पहुँचा। खानें को देखकर उसकी आँखों में एक चमक की किरण दौड गयी। जैसे-तैसे वो अपनें खाट-पर बैठा और खाना शुरू कर दिया। तेजी से खानें कारण उसे हिचकी आनें लगी। पडोस का लडका यह देखकर खाट से उठा और दीना के उस पुरानी झोंपडी में घुसा जिससे दीना नें अपने रिटायरमेन्ट से बनाया था। अब पैसे उतने नहीं आतें जिससे नया मकान और खानें का समान जुटाया जा सके। पैसे तो बस उतनें ही आते हैं जितना जमींदार को देकर अगले माह तक अपना गर्दन छुडाया जा सके। अब भी इस उम्र में चैंन कहा हैं। बस खुशी इसी बात की हैं बेटी उसनें अच्छी घर ब्याही हैं। भले से कर्ज़ है तो क्या?

पडोसी का लडका: काका! आप इन कुत्तों को नहीं पाल लेतें। [पानी का ग्लास बढाते-बढातें उसने कहा]
दीना हिचकी और पानी दोनों को उपर लेता हुआ पडोसी के लडके के तरफ देखता रहता हैं जैसे उसनें कोई उससे खजाना माँग लिया हो।
दीना: अरे! मैं क्या किसी को पालूंगा, यहां अपना पेट पलता नही। सब भगवान का दिया ही खातें हैं इसे भी मिल ही जाता होगा। भगवान के घर देर है अँधेर नहीं। [कहते-कहते दीना नें एक लम्बा डकार छोड दिया।]

पडोसी का लडका: अरे काका! पाल लो यह तुम्हारी कोठरी तका करेगा, तुम्हारा ख्याल करा करेगा। कुत्तें तो वफादार भी होते हैं बहोत, काका!
दीना: हाँ वफादार तो होते हैं, लेकिन कोठरी क्या तकेगा, वहां कौन-सा खज़ाना गडा हैं। वो तो मैनें अपनें मरने के बाद कोई इंतेजाम ना हो पाएं तो उसके लिए रख छोडा हैं जो मेरा निर्वाह कर दे वो ले लेगा उसे। या उसे बेच के। हाँ कभी-कभी ठंड मिटानें के लिए, बारिशों से बचानें के लिए यह मेरा साथी बना था, लेकिन अब कोई मोह नहीं इसका। सरकार नें वेतन कम कर दिया और भगवान नें दम। ज़िन्दगी भी यहां आकर ठहर गयी हैं जहाँ इसका कोई मतलब ही नहीं। [कहते-कहते दीना सो गया, आज जो पेट भर गया था उसका, अब बस थकान बची थीं जो अगली सुबह-तक उतर ही जाती]

अचानक तेज़-तेज़ आँधियां बहनें लगी और ओलें पडने लगे।

पडोस का लडका: अरे ओ दीना काका! जल्दी उठों ओले पड रहे हैं। [लडके ने हाथ लगाकर दीना को सहारा दिया]
तभी अचानक एक महिला की जोर से अवाज गूँजी: अरें ओ! भोला के बाऊजी, भोला कहाँ हैं, अओलें पड रहे हैं, कही फिर आज उस भिखारी के खटियें के पास तो नहीं, हे भगवान! इस लदके ने तो जीना हराम कर रखा है। अब तो रात में भी चैंन नहीं। और पता ना यह बूढा कब मरेगा, एक तो घर-घरारी इतना कर रखा हैं और भीख माँगता रहता हैं। ना-जानें उस झोंपडी में कितनी अशर्फियाँ चुरा के रखी होगें।
ऐसी विषम परिस्थिति को देखते हुएं पडोस के उस लडके ने खुद को पहले उस परिस्थिति से बचानें को चाहा और दीवार को फांद कर अपनें खिडके से घुस कर बिछावन पर जाकर सो गया।
जब उसकी माँ आई और उसे सोता हुआ पाया, तो किवाड को अच्छें से लगाकर अपनें कमरें चली गयीं।
भोला ने खिडकी से उठकर झांका तो बाहर पाया कि दीनू अपनें झोंपडी के चबूतरें के पास तक पहुँच गया हैं। 

[यह देख जैसे उसके जान में जान आया हो, आखिर आता भी क्यूं ना आखिर भोला का उसके सिवा उसकी सुननें-वाला कोई था ही कहा।]

अगली सुबह
चहल-पहल कुछ ज्यादा ही था। परंतु माहौल शोकित था। भोला अब अपनें कमरे से बाहर था। बाहर गया तो पाया दीनू की लाश उसके खटियें पर रखी हुई थीं। आज भी वही खटिया, उसे घर सचमुच कहा कभी नसीब हुआ था, जो अब होता। कोई कहता पी-कर मर गया होगा, तो कोई कहता शायद सिढियों से फिसल गया होगा, जितनें लोग उतनें बातें सब मुँह-मुँह की जुबाँ रंगीन। शर्म किसी के आँखों में रत्ती-भर ना था। भोला के आँखों में आँसू थें, मगर वो उसे जता भी नहीं पा रहा था, बगल में उसके माँ जो खडी थीं।
कुछ बडे लोग यह सोच-विचार कर रहे थें कि कौन क्या लेगा और कौन क्या। किसपे किसका अधिकार होगा तो कौन किसके लायक। किसी को भी यह चिंता नहीं थीं आज एक देश का रक्षक मर गया हैं। इक बच्चा जो बस उसे अपना समझ रहा था, वही इक था आज उसके गम में शरीक।

नितेश वर्मा

Sunday, 3 August 2014

..ग़रीब का बेटा.. [Gareeb Ka Beta]

पप्पा! मैं भी अब स्कूल जाऊँगां। राजू ने तेज़ी से दौडते-दौडते आकर हरिया से कहा। पापा, मुझे भी श्याम भैया की तरह एम.बी.ए. करके उनके जैसी बडी गाडी खरीदनी हैं। और फिर पापा उसमें मैं, आप और माँ साथ-साथ घूमा करेंगे, कितना मज़ा आयेगा ना, पापा। हरिया राजू की बातों को सुनकर द्रवित हो गया। वो बेचारा रोज़ाना कमानें वाला मज़दूर आखिर क्या पढाऐगा अपनें बेटे को, और उपर से ऐसे बडे ख्यालों को कैसे सच कराऐंगा जो उसके बेटे ने अंज़ानें में सँजों रक्खे हैं।

मग़र कहते है जब बच्चें माँ-बाप को जान से भी ज्यादा प्यारें हो तो वो खुद को गिरवीं रखकर भी अपनें बच्चें के सपनों को पूरा करते हैं। ठीक वैसा ही हरिया नें भी अपना पुत्र-प्रेम दिखातें हुएं करा था। हरिया की मेहनत और राजू की लगन ने उसे आखिरकार उस आलिशान कार तक पहुँचा ही दिया। लेकिन वो कहतें हैं ना ज़माना कहाँ कभी किसी के मुसीबतों को समझता हैं। हरिया के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था, राजू के उच्च शिक्षा हेतु उसनें अपनें घर से लेकर खेत तक को गिरवीं रख दिया था। एक शब्द में कहें तो सर से पावं तक वो कर्ज़ें में डूबा पडा था।

कुछ दिनों बाद राजू एक बडे से कार में आया और नोटों का एक भरा बैग हरिया के सामनें फेंकते हुएं कहा : आप अपना हिसाब कर लो मैं अब यहाँ रहना नहीं चाहता।
उबन सी होती हैं यहाँ, दम घुंटता रहता हैं यहां, मुझे यहाँ जीनें की आदत नहीं, जल्दी से आप बस हिसाब करों।
हरिया को बहोत पछतावा होता हैं जैसे उसनें अपनें बेटे को पढा-लिखा कर कोई पाप कर दिया हो। उसकी आँखों से आँसूओं की धाराएँ बहनें लगी। तभी अचानक कार में बैठी एक लडकी कार का हाँर्न बजाती हैं और उस बडी सी कार के उच्च ध्वनि में जैसे हरिया की सिसकियां छुप-सी जाती हैं। हरिया को जैसे लगता हैं उसकी यह हाल देख वहां की गलियां भी शर्मिंदा हैं जहां कभी राजू दिन-भर खेला करता रहता था। हवाएं भी अब खामोश ही हैं, किसी शोर-शराबें से जैसे मीलों दूर।

राजू शायद अब मार्डन हो चला था। भावुकता, भावनाएँ जैसे शब्द वो तो कहीं उन एम.बी.ए. की गलियों में छोड आया था। हरिया लाचार कभी फेंके हुएं रास्तें पे रखी बैग को देखता था तो कभी सूरज की बढती तपीश को जैसे वो आज़ उसके किएं से खफा हो। बाप का फर्ज़ निभातें-निभातें वो तो यह भूल ही गया था, आज़ के बेटे कैसे होते हैं। लाचारी, बेबसी, लोभी क्या कहें इसे शब्द भी शर्मं से आज़ शर्मिंदा हैं।
दूबारा हाँर्न बजनें पर राजू हरिया को यह सुनाता-सुनाता चला गया : अच्छा ठीक हैं रख ही लो पूरा..
मैं किसी का आभार नहीं रखता।

जातें-जातें उसने ऐसा कुछ कह दिया हो जिससे हरिया फूट-फूट कर रोनें लगा। उसकी आवाज़ें तो हो रही बारिशें भी ना छुपा पाई थीं। मौसम में एक ठंडक आ गई थीं लेकिन हरिया तो जैसे वो कोयला हो गया था जिसपे जलनें से पहलें ही किसी ने पानी डाल दिया हो। वह उठ खडा हुआ। शाम हो चली थीं उसे लगा जैसे अब घर को चलना चाहिएं। वो पैसे टटोलनें लगा कुछ तो आँधियाँ बहा के ले के चली गई थी तो कुछ बारिशों के कारण खराब हो चले थें। हरिया जिस बेचैनी से पैसों को इकट्ठा कर रहा था उसी बेचैंनी से यह भी सोच रहा था अखिर वो घर जाकर क्या कहेगा। ज़मींदार,साहूकार तो पैसा माँगेंगे लेकिन वो राजू के माँ को क्या कहेगा जिसनें राजू की पढाई में कोई बाधा ना हो, अपनी तमाम ज़िन्दगी को उस दो साडी और गलें के एक मंगलसूत्र में गुजार दिया था। आज़ वो सवाल करेगी तो हरिया क्या कहेगा, हरिया अपनें हाँल से शर्मिंदा यही सोच रहा था शायद यही की ग़रीब का बेटा अब ग़रीब ना रहा।

सोच:-

ज़िन्दगी का भी बहोत अज़ीब दस्तूर हैं। कब कैसा रूख मोड ले पता ही नहीं चलता। घर का एक सदस्य जो सपना देखता हैं उसके अपनें भी उसी सपनें में खुद को सँजोनें लगते हैं। बहोत ही संवेदनशील स्थिति होती हैं, आखिर हमें कैसे पहचान हो कौन आगे जाकर हमारें अपने ही हमारें दुख का कारण बन जाएं। बहोत मुश्किल हैं कुछ कहना, जैसा हमेशा एक प्रश्नचिन्ह एक समाज़ पर होता हैं, उसी का यह उद्दृत अंश हैं।

..नितेश वर्मा..